विधानसभा चुनाव से महज 15 महीने पहले भूपेंद्र पटेल को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी ने जो सियासी दांव खेला है, उसके कई मायने हैं. अगर ये फैसला लेने में और देर की जाती, तो पार्टी को अगले साल के चुनाव में जीत हासिल करके गुजरात का किला बचाना बेहद मुश्किल हो जाता. वोट प्रतिशत के लिहाज से सत्ता की चाबी रखने वाले पटेल समुदाय से सीएम बनाकर बीजेपी ने पाटीदार समाज की नाराजगी को दूर करने के साथ ही जहां अपने गिरते हुए जनाधार को थामा है, तो वहीं कांग्रेस की राह भी मुश्किल कर दी है, जो हार्दिक पटेल के चेहरे पर सत्ता में आने का सपना पाले हुए है.
गुजरात की सियासत में पटेलों की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राज्य बनने के 61 साल के गुजरात के इतिहास में अब तक कुल 17 मुख्यमंत्री हुए हैं, जिनमें से सात बार किसी पटेल ने ही गद्दी संभाली है. भूपेंद्र पटेल इस समुदाय से राज्य की कमान संभालने वाले आठवें मुख्यमंत्री हैं. सिर्फ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एकमात्र अपवाद हैं, जो गैर पटेल होने के बावजूद सबसे लंबे समय तक (4610 दिन) गुजरात के मुख्यमंत्री रहे. साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव के आंकड़ों के मुताबिक गुजरात की 6 करोड़ 30 लाख की कुल आबादी में पाटीदारों का हिस्सा 14 प्रतिशत है और कुल वोटरों की बात करें तो उसमें पाटीदार 21 प्रतिशत हैं. पूर्व मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल की 24 सदस्यीय कैबिनेट में 8 मंत्री इसी समुदाय से आते थे. राज्य के कुल 182 विधायकों में से अभी भी 42 विधायक पटेल हैं.
संख्या के आधार पर पाटीदारों का गुजरात में ख़ासा प्रभाव है, वे आर्थिक रूप से भी मज़बूत हैं. पाटीदारों के बीच सामुदायिक समझ भी काफी बेहतर है, वे अब राजनीतिक रूप से भी पहले से ज्यादा मजबूत हुए हैं. हालांकि, गुजरात में पाटीदार-पटेल समुदाय दो वर्णों में बंटा हुआ है. कड़वा पाटीदार पटेल और लेउवा पाटीदार पटेल. अगले चुनाव में मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल को टक्कर देने के लिए हार्दिक पटेल उनके सामने होंगे, जो खुद कड़वा पटेल हैं और हाल के वर्षों के शासन में सत्तारुढ़ पटेल-पाटीदार नेताओं में कड़वा पटेल नेताओं की संख्या ज़्यादा है. लेउवा पटेल ज़्यादातर सौराष्ट्र-कच्छ इलाके (गुजरात के पश्चिम तटीय क्षेत्र का इलाका) के राजकोट, जामनगर, भावनगर, अमरेली, जूनागढ़, पोरबंदर, सुरेंद्रनगर, कच्छ ज़िलों में ज़्यादातर पाए जाते हैं. जबकि कड़वा पटेल समुदाय के लोग उत्तर गुजरात के मेहसाणा, अहमदाबाद, कड़ी-कलोल, विसनगर इलाके में अधिक संख्या में हैं. लिहाज़ा अगर इन करोड़ से ज़्यादा मतदाताओं का अनुपात देखें, तो कड़वा पटेल 60% और लेउवा पटेल 40% हैं.
उल्लेखनीय है कि गुजरात की पहली महिला मुख्यमंत्री आंनदीबेन पटेल को हटाने के बाद पाटीदार समुदाय में बीजेपी की पकड़ कम होना शुरू हो गई थी और फिर 2017 में इस समुदाय के हिंसक आंदोलन ने पिछले चुनाव में बीजेपी को काफी हद तक नुकसान पहुंचाया था. उसकी सीटें 115 से घटकर 99 पर आ गईं थीं, तब पार्टी को ये अहसास हुआ कि पाटीदारों की नाराजगी उसे भारी पड़ रही है.
लिहाज़ा, पाटीदारों को साधने के लिए ही भूपेंद्र पटेल की ताजपोशी की गई है, लेकिन उनके पास वक़्त कम है और चुनौतियां ज़्यादा हैं. पटेलों को अपने पाले में लाने के लिए भी उन्हें काफी मशक्कत करनी होगी क्योंकि पिछले कुछ सालों में हार्दिक पटेल ने कांग्रेस में उनकी पैठ मजबूत की है. सरकार पर हावी ब्यूरोक्रेसी पर लगाम कसते हुए एक सख्त सीएम की धमक भी बनानी होगी. विकास के मोर्चे पर तो वे साल भर में ज्यादा कुछ नहीं कर पाएंगे, लेकिन विपक्ष से मुकाबले के लिए बीजेपी को अब अपनी रणनीति में भी बदलाव लाना होगा. इसलिये कि अब आम आदमी पार्टी बीजेपी के लिए नया खतरा बन गई है. सूरत नगर निगम चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बहुत शानदार रहा था. जिसके बाद आप के हौसले और बढ़ गए हैं. बीजेपी की सत्ता में वापसी के लिए पार्टी का ग्राफ बढ़ाना भी उनके लिए बड़ी चुनौती होगी.
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