विकास के जिस 'पुष्पक विमान' पर सवार होकर नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री आवास से सात लोक कल्याण मार्ग दिल्ली तक पहुंचे वह अब उलझनों के मकड़जाल में फंसा हुआ है. जिस 'गुजरात मॉडल' ने बीजेपी को भारतीय लोकतंत्र के शिखर तक पहुंचाया वह अब चर्चा के लिए मोहताज हो गया है. साल 2017 विदा लेने को है लेकिन जाते जाते यह साल भारतीय राजनीति को कुछ ऐसी कहानियां दे जाएगा जिसे आने वाले कई सालों तक सुनाया जाएगा. इसके पीछे की वजह है गुजरात में होने वाला सियासी संग्राम. जाहिर है जिस राज्य ने देश को विकास का रास्ता दिखाया हो, वहां की सियासी उथल-पुथल पर पूरे देश की नजर तो रहेगी ही. 2014 में विकास का जो 'अश्वमेध घोड़ा' पूरे देश में दौड़ा वह अब खुद गुजरात में ही हांफते-हांफते दम तोड़ता दिख रहा है.
लोकतंत्र में चुनाव को सबसे बड़ा पर्व माना जाता है औैर इस पर्व में मुद्दे इसकी उमंग को बढ़ाते हैं. सियासत के कायदे वही हैं जो लोकतंत्र को रास्ता दिखाए. लेकिन जीत के जज्बे को पैदा करने से लेकर सत्ता हथियाने तक धर्म, जाति और ‘राष्ट्रवादी हुंकार’ एक अहम जरिया बनता जा रहा है. गुजरात से इतर देवरिया से दिल्ली तक की जनता जब सूबे की सियासी लड़ाई में विकास के मॉडल, रोजगार, शिक्षा, सुरक्षा के बजाए जनेऊ, राहुल गांधी का मंदिर जाना, असली हिन्दू पार्टी कौन, गुजराती अस्मिता, नेहरू-सरदार पटेल विवाद, सरदार पटेल किसके... जैसे मुद्दों को देखती है.. तो चौंक जाती है. जनता के मन में अजीब सी कसमसाहट उठती है. जनता के माथे पर उलझन की लकीरें साफ देखी जा सकती हैं कि गुजरात से ही 'गुजराती विकास मॉडल' चर्चा से दूर क्यों है? इस पूरे घटनाक्रम के दर्शकों के मन में ये सवाल सुलगने लगता है कि राहुल गांधी के हिन्दू या गैर हिन्दू होने से, नेहरू और सरदार पटेल के बीच विवाद से उसके रोजगार, शिक्षा और सुरक्षा से क्या संबंध है?
2014 की जोरदार जीत के बाद 'कांग्रेस मुक्त भारत' का सपना देखने वाली पार्टी से जनता को तकदीर लिखने की उम्मीद थी. आपने कितनी तकदीर लिखी, लोगों को कितनी राहत मिली, रोजगार से शिक्षा तक कितना सफल रहा आपका मॉडल..यह तो कोट पैंट वाले साहब आंकड़ों से जनता को समझा देंगे. जनता भी भाषणों से या संवेदनाओं से कितना समझेगी यह 2019 के गर्भ में छिपा है. लेकिन इतना तो तय है कि आपका मॉडल अब गुजरात में उठ चले चुनावी मुद्दों में चर्चा का विषय नहीं है. जिस मॉडल की चर्चा पूरे देश में आपने की वह गुजरात से क्यों गायब है? यही सवाल पूरे देश की जनता को कचोट रहा है. विपक्ष लगातार रोजगार, आवास और शिक्षा पर हमलावर है. अब गुजरात के इतर देश की जनता के बीच यह आशंका जन्म ले रही है कि क्या सत्ता पक्ष के पास पिछले 22 साल में किये गये जनहित के इतने काम भी नहीं हैं जो आमजन के बीच रखे जाएं?
जब गुजरे चुनावों के दस्तावेजों को पलट कर देखते हैं तो पाते हैं कि चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो, हर चुनाव में उठ रहे मुद्दों ने जनता की उम्मीदों को दफना दिया है. बिहार चुनाव में गाय, डीएनए से शुरु हुआ यूपी में श्मशान और कब्रिस्तान तक सिमट गया. सत्ता के मंच पर बैठे लोगों ने ऐसे हथियार बना लिए हैं जो जनता को उसके वास्तविक मुद्दों से अलग रखते हैं.
किसान के लिए उसकी फसल के उचित मूल्य, युवाओं के लिए रोजगार, भूखे पेट को 'भात', महिला के लिए सुरक्षा और फेफड़े के लिए 'ऑक्सीजन'. यह सारे मुद्दे घोषणापत्र के पन्नों में दबे-दबे पीले पड़ जाते हैं. जनता को उसकी जरूरतों से अलग रखने के लिए ही जनेऊ, हिन्दू हितैषी कौन...जैसे तमाम मुद्दे उछाले जाते हैं. भय, भूख और भ्रष्टाचार को दफनाने के लिए ही जनता अपना हुक्मरान बनाती है, सिर आंखों पर बिठाती है. अपनी समस्याओं का समाधान बनाने की उम्मीद पाले जनता के हिस्से आते हैं उत्पीड़ित अस्मिताओं के निर्मम शोषण का उपकरण बन गए सियासी मालिक. जनता से चूक कहां हो रही है, यह अभी तक समझ नहीं आया है. फिलहाल 'द्वारकाधीष' की सियासत कठघरे में है. विकास के मुद्दे पीछे छूट गए. धर्म और 'गुजराती अस्मिता के हुंकार' का कॉकटेल बनाया जा रहा है.
जनता को बस इतनी भर इल्तिजा करनी है कि चुनावी शोर के बीच कुछ आवाजें कहीं सहमी और दुबकी हुई हैं. बस उस बेआवाज की आवाज सुन लीजिए. बेशक जनता के होंठ सिले नहीं गए हैं लेकिन टूटती उम्मीदों से लरज जरूर रहे हैं. ‘हम भारत के लोग’ पता नहीं कब जाति, धर्म और ‘हुंकार’ पर समझदार होंगे. हम कब भूख, भय और भ्रष्टाचार पर सही समय पर सही निर्णय लेंगे? हम कब वोट की चोट को व्यवस्था के कोढ़ पर मारेंगे? हम कब सच्चे अर्थों में ‘लोकतंत्र का राजा’ बनेंगे?
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