हिंदी के महान लेखक मुंशी प्रेमचंद ने कभी लिखा था- "न्याय वह है जो कि दूध का दूध,  पानी का पानी कर दे,  यह नहीं कि खुद ही कागजों के धोखे में आ जाए,  खुद ही पाखंडियों के जाल में फँस जाए. " हमें अपने देश की सर्वोच्च अदालत पर फख्र होना चाहिए कि वो अभी तक न तो डरी है,  न हुक्मरानों के आगे झुकी है और न ही उसने इंसाफ़ की जलती हुई लौ को ताकत व लालच के रंगीन पानी से बुझने ही दिया है.  ये सिर्फ और सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एन वी रमन्ना का यूपी सरकार से पूछा गया वो एक सवाल ही था,  जिसने ताकतवर सियासतदानों को होश में लाने के साथ ही 135 करोड़ देशवासियों को भरोसा करने का ये अहसास दिलाया है कि इंसाफ़ अभी जिंदा है और उसे इतनी जल्द खत्म भी नहीं होने दिया जाएगा.


जो लोग ये सोच रहे हैं कि विपक्षी दलों के दबाव में आकर केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र के बेटे आशीष मिश्र को यूपी पुलिस ने गिरफ्तार किया है,  तो फिर उनकी सोच बिल्कुल गलत है. यूपी सरकार की तरफ से पेश हुए देश के सबसे चर्चित व मुखर वकील हरीश साल्वे के पास न्यायाधीशों द्वारा किये गए किसी एक भी सवाल का अगर कोई माकूल जवाब होता,  तो शायद न तो सुप्रीम कोर्ट इतनी करारी फटकार लगाती और न ही पुलिस की इतनी हिम्मत हो पाती कि वह गृह मंत्री के बेटे को गिरफ्तार कर सके.  लिहाज़ा हत्या के मामले को लेकर दर्ज हुई एफआईआर में नामज़द मुख्य आरोपी की गिरफ्तारी का सारा श्रेय एकमात्र सर्वोच्च अदालत को ही जाता है.


दरअसल, लखीमपुर खीरी हत्याकांड की जो स्टेटस रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के सामने शुक्रवार को पेश की गई थी,  उसे पढ़कर चीफ जस्टिस और उनके सहयोगी न्यायाधीश भी हैरान रह गए थे कि आखिर मुख्य आरोपी को बचाने का क्या अनूठा तरीका सरकार ने निकाला है, इसीलिये अदालत ने इस पर अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए साल्वे से जो तीखे सवाल पूछे थे, उससे कानून के जानकारों समेत सरकार में बैठे लोगों को साफ संकेत मिल गया था कि अब चाहने के बावजूद आशीष मिश्र को गिरफ्तार होने से ज्यादा देर तक बचा पाना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन है.


चूंकि हरीश साल्वे तो सरकार की तरफ से पेश हुए थे, लिहाज़ा उनकी पेशेवर जिम्मेदारी बनती थी कि वे मुख्य आरोपी का बचाव करते हुए सरकार की निष्पक्ष कार्रवाई के बारे में कोर्ट को बतायें.  लेकिन उन्होंने जो दलील दी और उसके जवाब में चीफ जस्टिस ने जो सवाल किये,  वही इस देश के आम नागरिक में सर्वोच्च अदालत के प्रति सम्मान भी पैदा करता है और उसे इंसाफ मिलने की आखिरी उम्मीद भी जगाता है. साल्वे ने आशीष मिश्र का जिक्र करते हुए व तमाम दलीलें देते हुए ये भी कहा था कि "आरोपी को धारा 160 का नोटिस देकर पूछताछ के लिए बुलाया गया है. "


इस मामले में यही वो सबसे अहम बात थी जो न्यायाधीशों को चुभने के साथ ही उन्हें ये अहसास कराने के लिए भी पर्याप्त थी कि सरकार एक आम इंसान और एक रसूखदार व्यक्ति के बीच कितना बड़ा भेदभाव करने का जिगरा भी रखती है.  साल्वे की दलील के जवाब में चीफ जस्टिस रमन्ना ने जो सवाल किया, वही सवाल शनिवार की रात तक देश के हर शहर के नुक्कड़-चौराहों पर एक आम आदमी,  दूसरे से पूछ रहा था. चीफ जस्टिस का सवाल था-" देश में अन्य किसी जगह पर मर्डर केस होता है, तो आरोपी के साथ कैसे पेश आया जाता है? क्या नोटिस भेजा जाता है कि प्लीज, आ जाएं. प्लीज हमें बतायें? साधारण स्थिति में अगर हत्या का मामला होता, तो पुलिस क्या काम करती है? वह आरोपी को गिरफ्तार करती है कि नहीं?


हालांकि साल्वे के पास इसका कोई माकूल जवाब नहीं था और साथ ही अदालत ने ये भी इशारा कर दिया था कि वो इस केस को सीबीआई को सौंपने के मूड में कतई नहीं है. इस बारे में मुख्य न्यायाधीश की ये टिप्पणी भी गहरे मायने रखती है कि " सीबीआई जांच भी इस मामले का समाधान नहीं है. इसका कारण आप भलीभांति जानते हैं कि कौन इसमें है. "


जाहिर-सी बात है कि कांग्रेस से लेकर अन्य तमाम विपक्षी दलों में इस गिरफ्तारी का श्रेय लेने और उसका सियासी फायदा लउठाने की होड़ मचेगी लेकिन जिसने कानून की कोई किताब न भी पढ़ी हो, वो भी चीफ जस्टिस के तीखे सवालों को पढ़ने के बाद खुद तय कर सकता है कि पुलिस को इस गिरफ्तारी के लिए आखिर क्यों मजबूर होना पड़ा. पर, सियासत और इंसाफ में यही बुनियादी फर्क है कि राजनीति ज्यादातर  स्वार्थ के लिए की जाती है, जबकि न्याय का पहला सिद्धान्त ही ये है कि वह सिर्फ होना ही नहीं चाहिए बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए. इसीलिये इंसाफ की कुर्सी पर बैठने वालों को पहला पाठ ही ये पढ़ाया जाता है कि सबूतों के अभाव में भले ही सौ गुनहगार छूट जाएं लेकिन किसी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिये.


चूंकि अगले पांच महीने में ही यूपी विधानसभा के चुनाव हैं, लिहाज़ा विपक्ष को तो अपनी सियासत चमकाने का कारगर हथियार मिल गया है लेकिन बड़ा सवाल ये है कि इससे बीजेपी के मजबूत वोट बैंक समझे जाने वाले ब्राह्मण वर्ग पर क्या असर पड़ेगा. चूंकि अजय मिश्र खुद इस समुदाय के एक कद्दावर नेता माने जाते हैं और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से इस वर्ग की जो नाराज़गी चली आ रही थी, उसे शांत करने के लिए ही उन्हें मोदी सरकार में राज्य मंत्री बनाकर गृह जैसा वजनदार मंत्रालय दिया गया था. लिहाज़ा, इस गिरफ्तारी के बाद ब्राह्मण वर्ग की नाराजगी को दूर करने के लिए बीजेपी उन्हें कौन-सा मंत्र पढ़ाएगी, ये देखने वाली बात होगी क्योंकि दोबारा सत्ता में वापसी का रास्ता इनकी नाराजगी दूर किये बगैर उतना भी आसान नहीं दिखता.


इस पूरे मामले में एक और गौर करने वाली बड़ी बात ये भी है कि तीन अक्टूबर की घटना के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सिर्फ एक ही बयान दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि लखिमपुर की घटना के किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जायेगा, भले ही वह कितना ही ताकतवर क्यों न हो. जबकि उनकी सरकार के कई मंत्री लगातार न्यूज़ चैंनलों पर मुख्य आरोपी का बचाव करने वाले बयान देते रहे. पुलिस ने आशीष की गिरफ्तारी की मुख्य वजह जांच में सहयोग न करना बताई है और साथ ही ये भी कहा है कि घटना वाले दिन दोपहर 2 बजकर 36 मिनट से लेकर साढ़े तीन बजे तक वे कहां थे, इसका कोई सबूत पेश नहीं कर पाये. लिहाज़ा सवाल उठता है कि सीएम योगी को उनकी पुलिस ने क्या उन 54 मिनटों का रहस्य बता दिया था, इसलिये वे खामोश रहे?


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)