कर्नाटक का वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य देख कर गुजरात के ‘हजूरिया’ और ‘खजूरिया’ कांड की याद आ जाना स्वाभाविक है. अक्तूबर 1995 के दौरान भाजपा के बागी शंकर सिंह वाघेला अपने जिन समर्थक विधायकों को टूट-फूट और मारपीट से बचाने के लिए खजुराहो उड़ा ले गए थे, उन्हें ‘खजूरिया’ कहा गया और मुख्यमंत्री पद गवां चुके केशुभाई पटेल की जी-हजूरी करने वाले विधायक ‘हजूरिया’ कहलाए.


केशुभाई पटेल की कुर्सी जाने के बाद इन खजूरियों और हजूरियों के बीच आपसी कटुता इस कदर बढ़ गई थी कि सुरेश मेहता के संक्षिप्त मुख्यमंत्रित्व काल में एक रैली के बाद हुई मारपीट के दौरान वाघेला गुट से मंत्री बने आत्माराम पटेल की धोती फाड़ डाली गई थी. खजुराहो कांड में वाघेला के साथ रहे और मेहता सरकार में गुजरात इंडस्ट्रियल इंवेस्टमेंट कॉरपोरेशन (जीआईआईसी) के चेयरमैन पद से पुरस्कृत किए गए दत्ता जी जान बचाने के लिए पैदल भागे थे और सामने से जा रही पब्लिक ट्रांसपोर्ट की एक बस में चढ़ गए थे. लेकिन केशुभाई के समर्थकों ने उनको नीचे उतार लिया और इस कदर पीटा कि उनकी पसलियां टूट गईं. गनीमत है कि कर्नाटक में अभी तक भाजपा और कांग्रेस-जेडीएस विधायकों का आमना-सामना नहीं हुआ है.


कांग्रेस और जेडी (एस) ने अपने विधायकों को घोड़ामंडी में बिकने से बचाने के लिए इन दिनों बंगलुरु-मैसूरु हाईवे पर स्थित ईगलटन रिजॉर्ट में ले जाकर लगभग नजरबंद कर रखा है. सुनते हैं कि वहां परिंदा भी पर न मार सके, इस इरादे से रिसॉर्ट की टीवी, मोबाइल और इंटरनेट की सुविधा ठप कर दी गई है. मुमकिन है शिकार होने से बचाने के लिए आगे इन विधायकों को बसों में भर कर केरल या आंध्र प्रदेश में कहीं छिपा दिया जाए! अलबत्ता इन विधायकों का फिलहाल कोई नामकरण नहीं किया गया है. आप चाहें तो इन्हें ‘ईगलटनवा’ कह सकते हैं!


बड़ा सवाल यह है कि आवश्यक संख्या बल की कमी के बावजूद सरकार बना लेने वालों से विपक्षी विधायकों की रक्षा करने की परिस्थिति क्यों उत्पन्न होती है? इसका एक पंक्ति में जवाब यही हो सकता है कि अब भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक शुचिता नाम की चीज नहीं बची. क्या पक्ष और क्या विपक्ष और क्या निर्दलीय; सत्ता की मंडी में अधिकतर लोग बिकने को तैयार बैठे हैं. सबकी अपनी-अपनी कीमत है, अपना-अपना कमीशन है. कर्नाटक की सच्चाई भी यही है कि विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए भाजपा कांग्रेस-जेडीएस-निर्दलीय विधायकों को तोड़ने में दिन-रात एक कर रही है और कांग्रेस-जेडीएस को अपने विधायकों पर पूरा भरोसा नहीं है कि वे एकजुट रह सकेंगे.


कांग्रेस-जेडीएस की चिंता की वजहें वे अफवाहें भी हैं, जिनमें कभी उड़ाया जाता है कि कांग्रेस के सात लिंगायत विधायक भाजपा के संपर्क में हैं, कभी कहा जाता है कि कांग्रेस के दो विधायक आनंद सिंह और प्रताप गौड़ा ईगलटन रिजॉर्ट से गायब हो गए हैं. जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी का दावा तो यहां तक है कि उनके कुछ विधायकों को भाजपा का समर्थन करने के लिए सौ-सौ करोड़ रुपयों तक का लालच दिया जा रहा है!


भाजपा इसे भले ही अपवित्र गठबंधन करार दे रही है, लेकिन लोग अभी भूले नहीं है कि उसने सबसे बड़ी एकल पार्टी न होने के बावजूद गोवा, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में कैसा ‘पवित्र गठबंधन’ करके सरकारें बनाई थीं. इस कारनामे को तब भाजपाध्यक्ष अमित शाह की चाणक्य नीति का परिणाम बताया गया था और अब कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन को ‘लोकतंत्र के साथ खिलवाड़’ बताया जा रहा है.


लोग यह भी नहीं भूले हैं कि वरिष्ठ कांग्रेसी और सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव रहे अहमद पटेल की राज्यसभा सीट बचाने के लिए पिछले वर्ष अगस्त में कांग्रेस के 44 विधायकों को गुजरात से ले जाकर कर्नाटक के इसी रिजॉर्ट में छिपाना पड़ा था. तब गुजरात कांग्रेस के नेता शक्ति सिंह गोहिल ने दावा किया था कि भाजपा उनके विधायकों को 15-15 करोड़ रुपये तक का लालच दे रही है. इतना ही नहीं उस वक्त आयकर विभाग ने उस रिजॉर्ट पर छापा भी मारा था.


स्पष्ट था कि अहमद पटेल की हार सुनिश्चित करने के लिए भाजपा साम-दाम-दंड-भेद का सहारा ले रही थी. कर्नाटक में भी चिंता राजनीतिक शुचिता की नहीं बल्कि सत्ता पर कब्जा करने की है. इसीलिए दोनों पक्ष टॉम एंड जेरी वाला खेल खेल रहे हैं. कांग्रेस-जेडीएस के साथ आने को आज भाजपा भले ही एक अवसरवादी गठजोड़ बता रही हो, लेकिन वह खुद 90 के दशक से ही ऐसे-ऐसे गठबंधन करती रही है, जिनकी तब कल्पना तक नहीं की जा सकती थी.


वर्ष 1993 में मिलकर चुनाव लड़े सपा-बसपा गठबंधन के टूटते ही भाजपा ने वर्ष 1995 में बसपा से हाथ मिला लिया था. वह भी तब, जब बसपा सुप्रीमो कांशीराम भाजपा और कांग्रेस को नागनाथ और सांपनाथ बताया करते थे! पिछले वर्ष ही मिलकर चुनाव जीतने वाले आरजेडी-जेडीयू गठबंधन को तोड़कर भाजपा ने बिहार में नीतीश कुमार के साथ सरकार बना ली. जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की पीडीपी का हुर्रियत कांफ्रेंस से लगाव जगजाहिर है, लेकिन भाजपा वहां भी सरकार में शामिल है. अभी त्रिपुरा में जिस अलगाववादी धड़े आईपीएफटी के साथ भाजपा ने सरकार कायम की है, वह अपने जन्म से ही त्रिपुरा को भारत से अलग करने की मांग करता रहा है. नागालैंड में भी एनडीपीपी ऐसा ही एक धड़ा है, जिसके साथ भाजपा ने गठबंधन कर रखा है.


त्रिशंकु स्थिति में ऐसे अपवित्र गठबंधन करने या बाहर से समर्थन लेने-देने का रिवाज पुराना है. 1989 में कांग्रेस के सबसे बड़ा दल होने के बावजूद राजीव गांधी ने सरकार नहीं बनाई थी और 1993 में पीवी नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार को अविश्वास प्रस्तावों के दौरान भाजपा और वामपंथी धड़े बारी-बारी से अपने कंधों पर थामे रहे. यूपीए-वन की मनमोहन सिंह सरकार वाम दलों के बूते पर ही चली. यानी सत्ता-समीकरण साधने हों तो पवित्र-अपवित्र का भेद समाप्त हो जाता है. सामने वाले का धुरविरोधी होना, भ्रष्टाचारी, अलगाववादी या सांप्रदायिक होना कोई बाधा नहीं रह जाता. चुने हुए प्रतिनिधि मात्र एक अंक में तब्दील हो जाते हैं. शायद इसीलिए सरकार बनाने का दावा पेश करते समय विपक्षी दलों को अपने-अपने शेर पिंजरे में बंद करने पड़ते हैं.


कर्नाटक में बहुमत कौन साबित करेगा, कोई नहीं बता सकता. गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में है क्योंकि उसने राज्य में शपथ ले चुकी येदुयिरप्पा सरकार से समर्थक विधायकों की पूरी सूची तलब की है. अगर जरूरी संख्या बल पूरा न हुआ तो शायद कांग्रेस-जेडीएस के छिपे विधायक खुले में विचरण करते देखे जाएं और फौरन से पेश्तर विधानसौदा पर अपना दावा ठोक दें!


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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)