इस कहानी में फिल्मों का सारा मसाला है. अभी इसी कहानी पर ‘सैराट’ जैसी मराठी फिल्म बनाकर निर्देशक नागराज मंजुले बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा चुके हैं. परदे पर परिवर्तन देखना हमें बहुत पसंद है लेकिन जैसा कि मशहूर नाटककार-कवि बर्टोल्ड ब्रेख्त कह गए हैं- कोई भी क्रांति परदे पर नहीं होती. उसे घटित होने के लिए असलियत की जमीन चाहिए. साक्षी मिश्रा ने असल जिंदगी में ‘सैराट’ को उतारा है. ‘आर्ची’ की तरह दलित अजितेश से प्रेम करके, उससे शादी की और अब लगातार सोशल मीडिया के जरिए अपने पिता से लोहा ले रही है. वह ‘सैराट’ के क्लाइमेक्स को दोहराना नहीं चाहती. डरती है कि क्लाइमेक्स दोहराया जा सकता है. पिता प्रभुत्वशाली है. उनके दोस्त भी. साक्षी का डरना जायज है.
ऑनर किलिंग हमारे यहां शौर्य माना जाता है. ऑनर किलिंग मतलब, अपने ऑनर, सम्मान के लिए किसी को मार डालना. अभी अहमदाबाद में जिस अपरकास्ट साले ने अपने दलित जीजा की गला रेतकर हत्या की, उसे एक दूसरे शख्स ने दस हजार ईनाम में देने का ऐलान किया है. चूंकि यह मर्डर जातीय आन-बान-शान के लिए किया गया था. एनसीआरबी डेटा कहता है कि 2014 से 2015 के दौरान ऑनर किलिंग के मामलों में 796 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है. अकेले 2015 में ऐसे 251 मामले हुए थे. 2018 तक ऐसे 300 से ज्यादा मामले दर्ज हो चुके हैं. आप गूगल पर ऑनर किलिंग टाइप कीजिए और देखिए कि हर हफ्ते ऐसे कितने ही मामले सामने आते हैं. साक्षी नहीं चाहती कि उसका और उसके पति का नाम भी ऐसे किसी सर्च इंजन पर तलाशा जाए.
साक्षी के दो वीडियो देखकर कोई भी उसकी पुकार समझ सकता है. यह पुकार एक बालिग औरत की है. उसका कुसूर सिर्फ यह है कि वह अपनी मर्जी से अपनी जिंदगी जीना चाहती है. यूं अपनी मर्जी से शादी करने वाले जोड़े जानते हैं कि इश्क आग का दरिया ही है. साक्षी के पिता का कहना कुछ और है. वह कहानी मे दलित एंगल से साफ इनकार करते हैं. पिता सत्तारूढ़ राजनीतिक दल के विधायक हैं. दलितों को नाराज करने की हिमाकत अब भारत का राजनीतिक वर्ग नहीं कर सकता. इसीलिए एक वास्तविक मुद्दे को खारिज करने की कोशिश की जा रही है.
दरअसल हम साक्षी या उसकी जैसी लड़कियों के विवेक पर भरोसा नहीं करते. उसकी सोचने-समझने की ताकत पर यकीन नहीं करते. यकीन करते तो देश में 27 फीसदी लड़कियों को 18 साल पूरे होने से पहले ब्याह नही देते. यकीन करते तो हर औरतों के लेबर पार्टिसिपेशन की दर 36 फीसदी से गिरकर 28 फीसदी नहीं होती. यकीन करते तो औरतों को आदमियों से 19 फीसदी कम सैलरी नहीं मिलती. औरतों के हर फैसले पर हम सवालिया निशान लगाते हैं. इसीलिए सरकारी अफसरान हों या मुंसिफ या पंडित-पुरोहित. सब ख़ुद को मां बाप का प्रतिनिधि और सामाजिक नैतिकता का प्रहरी मान बैठते हैं.
साक्षी ने तो कास्ट हेरारकी को चुनौती देने वाला एक टेढ़ा रास्ता चुना है. इस रास्ते की वकालत सालों पहले बाबा साहेब अंबेडकर ने 'एनिहेलेशन ऑफ कास्ट' में की थी. उन्होंने कहा था कि जाति व्यवस्था की बेड़ियों को तोड़ने का सबसे अच्छा तरीका इंटर कास्ट शादियां हैं. उन्होंने साफ कहा था कि अगर अपरकास्ट और दलित साथ-साथ बैठकर खाना खाएंगे तो इससे बहुत फर्क नहीं पड़ेगा. आप एक बार साथ बैठकर खाना खाकर मुक्त हो जाते हैं. यह आयोजन तो सिर्फ एकाध घंटे का होता है. हां, शादी-ब्याह एक लंबा संबंध होता है. इससे आपसी बंधन टूटते हैं और जाति व्यवस्था का नाश हो सकता है. दिलचस्प बात यह है कि 2013 में केंद्र सरकार ने दलित के साथ शादी करने पर ढाई लाख रुपए की नकद राशि ईनाम में देने की बात कही थी. डॉ. अंबेडकर स्कीम फॉर सोशल इंटिग्रेशन थ्रू इंटरकास्ट मैरिज नाम की यह योजना अब भी जारी है. हां, इसके लिए आवेदन के साथ स्थानीय विधायक या सांसद की सिफारिश की जरूरत होती है- भला साक्षी और अजितेश के मामले में ऐसा कैसे संभव है!!
फिलहाल साक्षी-अजितेश की शादी को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने वैध बताया है. खुद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस मामले में जांच के आदेश दिए हैं. इस मामले के कई अनसुलझे तार हैं जो यहां-वहां जुड़ रहे हैं. लेकिन सभी तारों को सुलझाने के बावजूद एक सच हमेशा मौजूद रहने वाला है. वह सच है, लड़की की अपनी एजेंसी. उसके मौलिक अधिकार. देश में हर व्यक्ति को मौलिक अधिकार प्राप्त हैं. उनका स्रोत राज्य नहीं, संविधान भी नहीं. व्यक्ति के अधिकारों का स्रोत वह खुद है और उनकी वैधता के लिए किसी की दरकार नहीं है. साक्षी को यह मौलिक अधिकार है कि वह जिसे चाहे चुन सकती है. और यह हमारे सामाजिक मन की तड़प की अभिव्यक्ति है कि हम साक्षी के साथ हो जाना चाहते हैं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)