67 दिनों तक सिर्फ अपने एक सिपहसालार महमूद अली के साथ मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव तेलंगाना का शासन संभालते रहे. अब तमाम आलोचनाओं के बाद उन्होंने अपनी कैबिनेट का विस्तार कर लिया है. उनके और उनके गृहमंत्री महमूद अली के अलावा अब उनकी कैबिनेट में दस सदस्य और हैं. छह नए चेहरे हैं. चार पुरानी सरकार में मंत्री रह चुके हैं. महिला सदस्य कोई नहीं है. बेटे के.टी.रामा राव और भतीजे टी. हरीश राव मंत्रिमंडल से गायब हैं. माना जा रहा है कि उन दोनों को लोकसभा चुनावों के लिए रिजर्व में रखा गया है. तेलंगाना विधानसभा में 22 फरवरी से बजट सत्र शुरू होना है. इसलिए ताबड़तोड़ में मंत्रिमंडल को शपथ दिलाई गई है.
आजाद भारत के इतिहास में यह पहला मौका था, जब किसी मुख्यमंत्री ने इतने लंबे समय तक बिना मंत्रिमंडल के अपनी सरकार चलाई. पिछले साल 13 दिसंबर को केसीआर, जैसा कि उन्हें आम तौर पर कहा जाता है, ने दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. इससे पहले 2014 में तेलंगाना बनने के बाद वह राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने थे. कार्यकाल पूरा होने से छह महीने पहले उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दिया और फिर जब दोबारा उनकी तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) को बंपर जीत मिली तो दूसरी बार मुख्यमंत्री बन गए.
इस बार शोहरत चरम पर है. तेलंगाना के आर्थिक और सामाजिक संकेतक उनके पक्ष में हैं. उसकी जीएसडीपी 2013-14 में 6.8% से बढ़कर 2017-18 में 10.4% हो गई है. राज्य ने पिछले पांच सालों में आर्थिक विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर पर सबसे अधिक खर्च किया है. सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण मंत्रालय के आंकड़े कहते हैं कि 2015-19 के दौरान राज्य ने दूसरे राज्यों की तुलना में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अति पिछड़ा वर्ग के कल्याण पर सबसे अधिक खर्च किया है. 2017-18 में राज्य की प्रति व्यक्ति आय पौने दो लाख रुपए औसत थी जोकि सवा लाख के राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है.
बाकी के आंकड़े भी हैं, इसीलिए जनता के बीच केसीआर का कद काफी ऊंचा है. लेकिन यही लोकप्रियता हमारे नेताओं को स्वेच्छाचारी बना देती है. इसी रवैये के कारण दो महीने तक केसीआर ने लगभग अकेले ही सरकार चलाई. 119 विधानसभा क्षेत्रों और लगभग साढ़े तीन करोड़ की आबादी के लिए सिर्फ दो मंत्रियों की जरूरत महसूस की- एक वह खुद थे, दूसरे थे उनके फेवरेट गृह मंत्री- महमूद अली. वह महमूद अली, जो सार्वजनिक मंच पर अक्सर केसीआर का हाथ चूमकर अपना स्नेह जताते रहते हैं. स्नेह ही परम पद पाने का रास्ता है. केसीआर ने यह समझा दिया है. बाकी वह वन मैन आर्मी की ही तरह काम करते हैं.
आंध्र प्रदेश से अलग तेलंगाना का सपना केसीआर की ही बदौलत जनता ने देखा था. अब केसीआर ही टीआरएस हैं और टीआरएस ही केसीआर. दोनों एक दूसरे में गड्डमड्ड है. यह चलन पूरे देश में चल निकला है. नेता और पार्टी एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं. तमिलनाडु में जयललिता पहले यह लकीर खींच चुकी हैं. पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी, उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल इसी लकीर को पीट रहे हैं. इनके नाम पर वोट डाले जाते हैं. प्रत्याशी जीतते हैं. जीतने के बाद मंत्रिमंडल बनते जरूर हैं, लेकिन मंत्रिगण मंच से अक्सर गायब रहते हैं. सूत्रधार ही सभी पात्रों की भूमिकाएं अदा करता रहता है.
संविधान के हिसाब से विधानसभा चुनावों में बहुमत हासिल करने वाले राजनीतिक दल के मुखिया को राज्यपाल द्वारा सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाता है. ऐसा करते हुए राज्यपाल किसी एक व्यक्ति को नहीं बुलाता, विजयी दल को बुलाता है. चूंकि हमारे यहां सरकार चलाने के लिए जितना मुख्यमंत्री जरूरी है, उतना ही उसके मंत्रिमंडल के सदस्य भी जरूरी हैं. संविधान का अनुच्छेद 163 भी यही कहता है. उसके अनुसार राज्यपाल के कार्यों में सहायता और सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा. अनुच्छेद 164 का कहना है कि मुख्यमंत्री को राज्यपाल नियुक्त करेगा और मुख्यमंत्री की सलाह से दूसरे मंत्रियों को नियुक्त किया जाएगा.
अनुच्छेद 164 (1ए) कुछ नियम भी बताता है. उसके अनुसार मंत्रिपरिषद में कम से कम 12 सदस्य तो होने ही चाहिए. सिर्फ गोवा, सिक्किम और मिजोरम की विधानसभाओं में सात सदस्य तक हो सकते हैं जिसे 2003 में 91वें संशोधन के साथ बदला गया था. चूंकि इन तीनों राज्यों की विधानसभाएं छोटी हैं. ऐसे में केसीआर ने भले ही एक लंबे समय बाद मंत्रिमंडल का विस्तार किया हो लेकिन पिछले दो महीने उन्होंने संविधान की अवहेलना ही की है.
नायकत्व की पराकाष्ठा ही किसी नेता को उसकी पार्टी का दूसरा नाम बना देती है. मुक्तिबोध की लंबी कविता ‘अंधेरे में’ में शायद ऐसे ही नेताओं के लिए कुक्कुट शब्द का इस्तेमाल किया गया जो दुनिया को कचरे का ढेर समझ उस पर बांग देने चढ़ गया है और सोच रहा है कि वह जनता को जगाने वाला मसीहा है. इसी से संविधान की ऐसी-तैसी भी की जाती है और मानवता के भविष्य के नक्शे खींचने का दावा किया जाता है. जबकि जनता ही नेता बनाती है और उसे अतीत में बुहारती भी है. बस, इसे याद रखना ही अहम है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)