कर्नाटक प्रसंग: बहुमत नहीं तो शपथ क्या लेना!
यह सत्ता की भूख ही है जो राजनीतिक दलों को यह जानते हुए भी सरकार बनाने के लिए उकसाती है कि उनके पास स्पष्ट बहुमत नहीं है.
आखिरकार कर्नाटक में बी.एस. येदियुरप्पा का हाल अटल बिहारी वाजपेयी जैसा हो ही गया. वाजपेयी जी ने 16 मई, 1996 को केंद्र में 13 दिन की सरकार बनाई थी और येदियुरप्पा कर्नाटक में 18 मई को एक दिन की ही सरकार बना सके. दोनों ने एक ही तर्ज पर भरोसा जताया था कि वे सदन में बहुमत साबित करके दिखाएंगे, लेकिन आखिरी वक्त तक बहुमत नहीं जुटा सके. वाजपेयी जी को मात्र एक मत जुटाना पहाड़ हो गया था और 29 मई, 1996 को उनकी सरकार गिर गई थी. अभी येदियुरप्पा को आठ मत की कमी कचोट गई और वह तमाम दावों और हुंकारों के बावजूद 19 मई, 2018 को विधानसौदा में बिना किसी जोर आजमाइश के इस्तीफा देने की घोषणा करके निकल लिए.
क्या ही संयोग है कि वाजपेयी जी के समय भाजपा के शीर्ष रणनीतिकारों ने सहानुभूति बटोरने के इरादे से विश्वास मत पर मतदान करवा कर हार का ठप्पा लगने की नौबत नहीं आने दी थी और उनसे इस्तीफा दिलवा दिया था और येदियुरप्पा के साथ भी यही रणनीति अपनाई गई. दोनों मामलों में भिन्नता यह है कि वाजपेयी जी के वक्त विश्वास प्रस्ताव पर लोकसभा में दो दिन तक लगातार तीखी बहस चली थी और बहस के केंद्र में भाजपा की हिंदू-मुस्लिम टकराव की नीति रही.
तब संसद में बहस को परवान चढ़ाते हुए भाकपा के वरिष्ठ नेता इंद्रजीत गुप्ता ने कहा था- “बहुलतावाद के बगैर भारत टुकड़ों में बंट जाएगा. यहां केवल हिंदू नहीं रहते और न केवल हिंदू यहां के नागरिक हैं.” लेकिन येदियुरप्पा के इस्तीफे से पहले उनके अलावा कोई नहीं बोला. उन्होंने भावुक होकर अपने ‘मन की बात’ की और संख्या बल की कमी भांपकर राजभवन की ओर चले गए. वाजपेयी जी के इस्तीफे के समय ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने लिखा था- ‘भारत की पहली हिंदू राष्ट्रवादी सरकार 13 दिन सत्ता में रहने के बाद ढही.’ येदियुरप्पा की सरकार गिरने पर कौन क्या लिख रहा है आप स्वयं पढ़ ही रहे होंगे!
यह सत्ता की भूख ही है जो राजनीतिक दलों को यह जानते हुए भी सरकार बनाने के लिए उकसाती है कि उनके पास स्पष्ट बहुमत नहीं है. वाजपेयी जी भी यह बात जानते थे कि कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों से उनको समर्थन मिलना नामुमकिन है, फिर भी उन्होंने सरकार बनाई. जबकि भाजपा के अंदर ही वाजपेयी जी की छवि किसी कट्टर राष्ट्रवादी की नहीं थी. उनकी छवि उदार और समावेशी राजनीतिज्ञ की थी. ऐसा भी नहीं है कि तब भाजपा हाथ पर हाथ धरे बैठी थी. टूट-फूट से बचाने के लिए संयुक्त मोर्चा ने तब अपने अधिकतर सांसद गेस्ट हाउसों में छिपा दिए थे और उनके बाहर आने-जाने के लिए चार्टर्ड बसों का इस्तेमाल किया जाता था. इसके बावजूद भाजपा दो हफ्तों के लंबे अरसे में संयुक्त मोर्चा (कांग्रेस+12 अन्य दल) का एक भी सदस्य अपने पाले में नहीं कर सकी थी.
आज हिमालय की चोटी पर चढ़ कर नैतिकता की दुहाई देने वाली कांग्रेस की सत्ता लोलुपता के उदाहरणों से भी इतिहास भरा पड़ा है. पुराने लोगों को याद होगा कि मई 1982 में कांग्रेस की कठपुतली बने हरियाणा के राज्यपाल गणपतराव देवजी तपासे ने अधिक संख्या बल वाले चौधरी देवीलाल को धोखा देते हुए किसी रोमांचक फिल्मी घटनाक्रम की तरह कम संख्या बल वाले चौधरी भजनलाल को सीएम पद की शपथ दिलवा दी थी. बावजूद इसके कि देवीलाल ने कांग्रेस का शिकार होने से बचाने के लिए अपने समर्थक विधायकों को हिमाचल प्रदेश के परवाणू स्थित होटल शिवालिक में छिपा दिया था और उनके अकाली मित्र प्रकाश सिंह बादल के निहंग सिख तथा अन्य अंगरक्षक होटल के बाहर सुरक्षा में बिना पलक झपकाए डटे हुए थे. देवीलाल द्वारा विधायकों की परेड कराने से पहले ही सारा खेल दिल्ली और राजभवन में हो गया था!
अगर सत्ता लोलुपता न होती तो संख्या बल जुटाना असंभव जानते हुए भी येदियुरप्पा सीएम पद की शपथ क्यों लेते? और शपथ लेते ही बिना कोई मंत्रिमंडल गठित किए ही किसानों की कर्जमाफी जैसी बड़ी घोषणा क्यों करते? कांग्रेस+जेडीएस गठबंधन जब 115 विधायकों के समर्थन की सूची राज्यपाल को सौंप चुका था, तो भाजपा सिर्फ असंवैधानिक तरीकों से ही बहुमत का आंकड़ा जुटा सकती थी. पिछले तीन-चार दिनों से कर्नाटक में जारी टॉम एंड जेरी का खेल इसी जुगाड़-संस्कृति का नतीजा था.
यहां हम राज्यपाल की भूमिका का जिक्र नहीं कर रहे, क्योंकि विषयांतर हो जाएगा. लेकिन जिस तरह पिंजरे में बंद पशुओं की भांति कांग्रेस+जेडीएस विधायकों को विधानसौदा में प्रस्तुत करना पड़ा, उससे स्पष्ट हो जाता है कि यह अटल जी के दौर की भाजपा नहीं है, जिसे राज्यपाल ने एकल सबसे बड़ा दल होने के नाते पहले मौका दे दिया. अब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी खुले आम कह रहे हैं कि कर्नाटक में विधायकों की खरीद-फरोख्त को पीएम मोदी ने स्वीकृति दी थी और नया राज्यपाल आएगा भी तो मोदी-आरएसएस के दबाव में वह इसी लाइन पर काम करेगा!
भाजपा ने सिर्फ सत्तालोलुपता ही नहीं, बल्कि अधीरता प्रदर्शित करके मुफ्त की बदनामी भी मोल ले ली है. अगर वह कांग्रेस+जेडीएस के तथाकथित अपवित्र गठबंधन को पहले ही सरकार बना लेने देती तो हॉर्स ट्रेडिंग, विधायकों के अपहरण, उनके परिवारजनों को धमकियां और कई तरह के अन्य अनर्गल आरोपों से बच जाती. दूसरा लाभ यह होता कि कुछ समय बाद कांग्रेस और जेडीएस के बीच संभावित रस्साकशी तथा सरकार की विभिन्न मोर्चों पर विफलता को वह अपना हथियार बना सकती थी. लेकिन बहुमत के बगैर सरकार बनाकर वह खुद कटघरे में खड़ी हो गई है.
एक संयोग यह भी देखिए कि तब वाजपेयी जी की सरकार गिरने के बाद एच.डी. देवगौड़ा पीएम बने थे और अब येदियुरप्पा की सरकार गिरने के बाद उनके पुत्र एच.डी. कुमारस्वामी सीएम बनने जा रहे हैं. देवगौड़ा धर्मनिरपेक्षता के नाम पर गठित संयुक्त मोर्चे के मात्र 11 महीने पीएम रह पाए थे. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि कर्नाटक में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ही चुनाव बाद बने कांग्रेस+जेडीएस गठबंधन में उनके पुत्र कुमारस्वामी कितने दिन के सीएम रह पाते हैं.
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