"बंदे के गले ये जो ज़िबा करने चले हैं,
रुठे ख़ुदा को और खफ़ा करने चले हैं,
मज़हब के नाम पर भी गुनाह करने चले है,
नासूर हैं जो ख़ुद, वो दवा करने चले हैं।"


कश्मीर घाटी में दोबारा मासूमों के खून से होली खेल रहे आतंकियों को चुनौती देने वाली ये पंक्तियां तकरीबन साल भर पहले ज़ैनब खान ने लिखी थीं ,जिन्हें पढ़कर लगता है कि शायद उन्होंने इस दशहतगर्दी को और उसके अंज़ाम को भी नजदीक से देखा होगा.लेकिन आतंकियों की रणनीति पर अगर गहराई से गौर करें,तो जम्मू-कश्मीर को दिया गया विशेष दर्जा वापस लेने के करीब दो साल बाद उनकी रणनीति में एक बड़ा बदलाव आया है,जो हमारी सरकार के लिए निश्चित ही चिंता करने का ऐसा विषय बन गया है,जिसे जमीनी स्तर पर किसी जंग से कमतर नहीं लिया जा सकता.


जाहिर है कि पिछले तीन दशक से कश्मीर घाटी में आतंकियों का मुकाबला करने वाले हमारे सुरक्षा बल इतने नादान नहीं हैं कि उन्हें दहशत फैलाने के लिए पाकिस्तान की इस नई करतूत के बारे में कोई भनक ही न लगी हो.पाक की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने इसे एक नया नाम दिया है-अब सिर्फ अपने मकसद पर निशाना जिसे अंग्रेजी में हम टार्गेटेड टेररिज्म कहते हैं. पहले घाटी में रह रहे कश्मीरी पंडितों को और उसके बाद लगातार गैर कश्मीरियों यानी बिहार व यूपी से वहां रोजी-रोटी की तलाश में गए कमजोर तबके के लोगों को निशाना बनाने के बेहद गहरे मायने हैं.


दरअसल,आतंक को पालने-पोसने और अपने फायदे के लिए उसका इस्तेमाल करने वाला पाकिस्तान इन हमलों के जरिये हमें ये संदेश दे रहा है कि कश्मीर घाटी अब वहॉ रहने वाले बहुसंख्यकों यानी सिर्फ मुसलमानों की है और किसी हिंदू को वहां रहने दिया जाएगा,चाहे उसका नाता घाटी से हो या फिर वो किसी अन्य प्रदेश से रोजगार की तलाश में ही वहां क्यों न आया हो.यह स्थिति सिर्फ चिंताजनक नहीं, बल्कि भयावह भी है कि अपने ही देश के किसी हिस्से में एक खास धर्म के लोगों की हत्या करके ख़ौफ़ का ऐसा माहौल बना दिया जाए कि कोई दूसरा वहां पैर रखने की हिम्मत भी न कर पाये.


हालांकि इसमें शक करने की कोई गुंजाइश नहीं है कि जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने का साहसिक फैसला लेने वाली मोदी सरकार की नीति कश्मीर को लेकर शुरु से ही सख्त रही है क्योंकि वही पड़ोसी मुल्क से आने वाले आतंकियों का सबसे बड़ा पनाहगार भी रहा है.लेकिन पिछले करीब दो हफ्तों में आतंकियों ने घाटी में जिस टार्गेटेड तरीके से जो तबाही मचाई है,उससे लगता है कि पानी अब सिर तक आने लगा है,जिससे निपटने के लिये भारत की खुफिया व सुरक्षा एजेंसियों की रणनीति में बदलाव लाने के साथ ही हमें अपनी कूटनीति को भी कुछ ज्यादा तल्ख़ी के साथ दुनिया के मंच पर पेश करना होगा.


ठीक दो दिन बाद यानी 20 अक्टूबर को रुस की राजधानी मास्को में भारत का आमना-सामना पाकिस्तान से भी होने वाला है.बेशक रूस ने ये बहुदेशीय बैठक अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत के आने से इस क्षेत्र में बढ़ते आतंकवाद के खतरों व उससे निपटने के उपायों को लेकर ही बुलाई है.वहां तालिबानी नेता अपनी सरकार को अन्तराष्ट्रीय मान्यता देने-दिलाने का भी रोना रोयेंगे.लेकिन भारत के लिए ये एक ऐसा बेहतरीन मौका होगा,जब वो रुस, चीन और ईरान की मौजूदगी में तालिबान को दो टूक लहज़े में ये कह सकता है कि जब तक पाकिस्तान कश्मीर घाटी में अपनी करतूतों से बाज़ नहीं आता,तब तक मान्यता तो बहुत दूर की बात है,हम आपसे हाथ मिलाने वाले रिश्ते भी नहीं रख सकते.


कूटनीति व सामरिक विषयों के जानकारों के मुताबिक कश्मीर के ताजा हालात को लेकर भारत के लिए ये एक ऐसा अहम मौका है,जहां वो तीन देशों के साथ ही तालिबान के सामने भी पाकिस्तान को उसकी औकात दिखा सकता है.चूंकि तालिबानी सरकार में बैठे लोगों को भी ये अहसास है कि इस वक़्त पाकिस्तान के मुकाबले भारत दुनिया में एक बड़ी ताकत है,जिसने अफगानिस्तान में हजारों करोड़ रुपये का निवेश करके मुल्क की तस्वीर बदली है.लिहाज़ा,मज़हब के धरातल पर तालिबान भले ही पाकिस्तान के नज़दीक दिखाई देता हो लेकिन उसकी पहली व बुनियादी जरुरत है कि उसे अन्तराष्ट्रीय बिरादरी में मान्यता मिले.


जानकारों के मुताबिक तालिबान सरकार में अहम पदों पर बैठे कुछ लोग ऐसे भी हैं,जो पाकिस्तान को जरुरत से ज्यादा भाव देने के मूड में नहीं हैं.वे अगर रुस व चीन को अपना हमदर्द समझ रहे हैं,तो वे भारत से भी उतनी हो गर्मजोशी का रिश्ता बनाने के लिए तरस रहे हैं,जो अफगानिस्तान की पिछली सरकारों के साथ भारत के रहे हैं.वैसे भी तालिबान के हुकूमत में आते ही उनके प्रवक्ता ने आधिकारिक तौर पर साफ कर दिया था कि कश्मीर को लेकर भारत-पाकिस्तान के बीच जो भी विवाद है,उससे हमारा कोई मतलब नहीं है और न ही हम इसमें कोई दखल देंगे.


दुनिया के कई देशों के न्यूज़ चैनलों ने जब उस प्रेस कॉन्फ्रेन्स को दिखाया था,तब पाकिस्तान के हुक्मरानों और आतंक की फैक्ट्री कही जाने वाली आईएसआई के आकाओं के होश फाख्ता हो गए थे कि तालिबान ने ये क्या कह दिया.इसलिये कूटनीति के माहिर लोग मानते हैं कि मास्को में भारत को न सिर्फ बेहद तल्खी के साथ अपना पक्ष रखना चाहिए बल्कि साफतौर पर ये संदेश भी देना चाहिए कि आने वाले वक़्त में तालिबान के साथ हमारे रिश्ते कैसे होंगे, ये तय करने में पाकिस्तान की भूमिका रत्ती भर भी नहीं होगी.


विदेश मंत्री रहते हुए सुषमा स्वराज ने संयुक्त राष्ट्र के मंच से कहा था कि आतंक और बातचीत,दोनों एक साथ कभी नहीं हो सकते और भारत तब तक पाकिस्तान से संवाद की भाषा में बात नहीं कर सकता,जब तक कि वो अपनी धरती का इस्तेमाल आतंकवाद को पालने पोसने के लिए बंद नहीं करता. लेकिन पाक ऐसा नापाक मुल्क है,जो प्रेम-सद्भाव की भाषा न तो समझना चाहता है और न ही उस पर यकीन रखता है.


दो साल पहले जब मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाने का फैसला लिया,तो उसके बाद पाक के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कोई ऐसा इस्लामिक मुल्क नहीं छोड़ा था,जहां उन्होंने ये मिन्नतें न की हों कि आप कश्मीर का मसला अन्तराष्ट्रीय मंच पर उठाइये.लेकिन सिवाय तुर्की के उनकी बात को किसी ने भी वजन नहीं दिया और जब तुर्की ने भी ये मसला यूएन की महासभा में उठाया,तो उसे भी भारत से मिले करारे जवाब के कारण मुंह की खानी पड़ी.इसलिये,पाकिस्तान बौखलाया हुआ है औऱ अब वो कश्मीर घाटी को आतंक की एक नई प्रयोगशाला के रूप में इस्तेमाल करने के लिए बावला हो चुका है.


भारत-तालिबान के संभावित संबंधों को लेकर जेएनयू में इंटरनेशनल स्टडीज के प्रोफेसर गुलशन सचदेव कहते हैं कि तालिबान के साथ पाकिस्तान का होना भारत के लिए बड़ी चुनौती बना रहेगा.लेकिन इस बार अपनी सुरक्षा और संप्रभुता को देखते हुए भारत के लिए तालिबान से 'डील' करना बेहद ज़रूरी हो जाएगा.''सचदेव कहते हैं कि भारत को देर नहीं करनी चाहिए क्योंकि जितनी देर भारत तालिबान के साथ 'एंगेज' करने में करेगा, उसका सीधे तौर पर पाकिस्तान फ़ायदा उठाने की कोशिश करेगा.



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