‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ नाम की फिल्म को बैन करने पर ट्विटर पर एक यंग लड़की ने गुस्सा जताया. कहा- अगर ‘लेडी’ ओरिएंटेड चीजों पर बैन लगाना है तो आप मुझ पर ही बैन लगा दीजिए. क्योंकि लड़की होने के नाते मेरा पूरा एटीट्यूड ‘लेडी’ ओरिएंटेड है. पर सिर्फ इस लड़की को ही क्यों, सीबीएफसी को हम सभी औरतों पर भी बैन लगा देना चाहिए. हम सब औरतों की सोच महिला प्रधान ही तो है. ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ पर सीबीएफसी यानी केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने यही कहते हुए तो बैन लगाया है कि इस ‘लेडी’ ओरिएंटेड फिल्म में ऐसी कई बातें हैं जिन्हें समाज को देखना ही नहीं चाहिए. एडल्ट समाज को भी नहीं. तभी ए सर्टिफिकेट के साथ भी उसे रिलीज करने की इजाजत नहीं दी जा सकती.

एडल्ट समाज को क्या नहीं देखना चाहिए. सीबीएफसी के हिसाब से उसे ‘लेडी ओरिएंटेड’ फिल्म नहीं देखनी चाहिए. पर बॉलीवुड में कितनी ही फिल्में औरत प्रधान होती हैं. हां, यह बात और है कि ज्यादातर फिल्मों में औरत नहीं, आदमी ही प्रधान होता है. यहां औरतें भली औरते होती हैं- एक प्रेमी को समर्पित- लजीली सी- बकौल साहिर लुधियानवी, जब नायक घूंघट उठाए तो वह सिमट रही है तू शर्मा के अपनी बाहों में- वाली टाइप. ऐसी लाल दुपट्टे और काली कुर्ते वाली हीरो की चुहलबाजी पर पहले गुस्साए, फिर मान जाए.

‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ ऐसी औरतों की कहानी नहीं लगती. ट्रेलर से ही पता चलता है कि उसकी औरतें लजाई-शर्माई हुई नहीं हैं. ऐसे समाज को बिलॉन्ग जरूर करती हैं जहां शर्माना-लजाना सिर्फ औरतों के जिम्मे होता है. लेकिन उस बिलॉन्गिगनेस को वे छोड़ने के लिए छटपटा रही हैं. पचपन साल की विधवा, तीन बच्चों की मां, टू टाइमिंग ब्यूटीशियन और एक रॉक स्टार बनने की ख्वाहिशमंद यंगस्टर- अपनी-अपनी दुनिया से स्ट्रगल करती हुई. अपनी-अपनी हसरतों के साथ, उन्हें उढेलने को बेताब. पर ऐसी औरतें भली कहां होती हैं- आप सेक्सुअल डिजायर्स रखने और उसे दिखाने वाली औरतों को समाज में भली कहां मानते है?

ऐसी औरतें भली औरतें नहीं होती हैं. अमेरिकन इतिहासकार लॉरेल थैचर उलरिच ने चालीस साल पहले कहा था कि वेल बिहेव्ड औरतें इतिहास नहीं रचती हैं. दरअसल इतिहास रचने का काम तो मिसबिहेव्ड औरतें ही करती हैं. हम ऐसी औरतों को सिनेमा में नहीं देख सकते... क्योकि औरतों को हसरतें पालने का हक नहीं है. औरतें हसरत पालेंगी तो हम बैन कर देंगे- हर उस मीडियम को जहां वे अपनी ख्वाहिशों की नुमाइश कर सकती हैं.


इसकी इजाजत सिर्फ मर्दों को है. ब्रिटेन की फेमिनिस्ट फिल्म क्रिटिक लॉरा मालवी ने जब सिनेमा में मेल गेज यानी मर्दों के घूरने का कॉन्सेप्ट उठाया था, तो इसका मतलब यही था. सिनेमा में विजुअल प्लेजर पर लॉरा ने एक एसे में कहा था कि मेनस्ट्रीम सिनेमा को दरअसल मर्दों के घूरने के लिए ही बनाया जाता है. ऐसे सिनेमा में कैमरा सब कुछ हेट्रोसेक्सुअल मर्द के एंगल से शूट करता है. आपका जेंडर कोई भी हो, आपको सिनेमा का आनंद उठाने के लिए मर्द बनना पड़ता है. इसीलिए ‘क्या कूल हैं हम’, ‘नो इंट्री’ और ‘ग्रैंड मस्ती’ जैसी फिल्मों का मजा उठाने के लिए हम सभी को मेल ऑडिएंस बनना पड़ता है. पैसे वसूल करने के लिए अपनी एजेंसी खोनी पड़ती है. औरत बनकर हम हंस नहीं पाते. फ्रेंच साइकोएनालिस्ट जैक लकां ने कहा था कि मेल गेज का ऑब्जेक्ट यानी औरतें अक्सर अपनी एजेंसी खो देती हैं. कॉन्शियस होकर. यहां हमें इंटरटेन होने के लिए अपनी एजेंसी, अपना अस्तित्व खोना पड़ता है.

फिल्में ही नहीं, टेलीविजन पर कॉमेडी शोज देखने के लिए भी औरतों को आदमी का चोला पहनना पड़ता है. सीरियल में अपनी पड़ोसिनों पर लट्टू होने वाले मर्दों की कारस्तानियों को देखकर खींसे निपोरनी पड़ती है. स्टैंड अप कॉमेडी एंड टॉक सीरिज में एंकर के हर मर्दवादी चुटकुले पर खिलखिलाना पड़ता है. विलेन से पूछे गए उसके इस सवाल पर दांत चमकाने पड़ते हैं कि पाजी, आपने कितनी हीरोइनों की साड़ियां खींची हैं. मर्दों का चोला पहने औरतें खिसियानी हंसी के साथ भली औरतें बनी रहती हैं. भली औरतों से किसी को कोई शिकायत नहीं- भली औरतें किसी को सींग नहीं मारतीं. उन्हें चुपचाप जीने दिया जाता है- उन्हें बैन नहीं किया जाता.

जो औरतें भली नहीं हैं, उन्हें आप बैन कर सकते हैं. कलकत्ता की सेक्स वर्कर्स के ग्रुप्स सालों सें अपने काम को लीगल करने का आंदोलन चला रहे हैं. वेश्यावृत्ति हमारे यहां बैन है. हम उसकी तरफ से आंखें मूंदे बैठे हैं. उसे एक्सेप्ट करेंगे तो हमारी अपनी पवित्रता खतरे में पड़ जाएगी. सेक्स वर्कर्स के एक ग्रुप दरबार महिला समन्वय समिति ने जब 1997 में अपना मेनिफेस्टो निकाला तो उसमें यही कहा था. उसमें कहा गया था कि अपनी सेक्सुएलिटी को कंट्रोल करने वाली औरतें सोसायटी को कबूल नहीं- हम सिर्फ मजबूरी में नहीं, अपनी इच्छा से भी यह काम करते हैं. हमारी मांग है कि सोसायटी और कानून हमें और हमारे काम को कबूल करे. हमें वर्कर माने.

अपनी सेक्सुएलिटी को कंट्रोल करने वाली औरतें भली औरतें नहीं हो सकतीं- ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ ऐसी ही औरतों की कहानी लगती है. इसकी औरतें अपनी आकांक्षाओं पर अपना नियंत्रण चाहती हैं. ऐसे सिनेमा में मेल गेज गायब हो जाता है- मेल गेज की पूरी की पूरी थ्योरी ही शीर्षासन की मुद्रा में जाती है. मर्दों का प्रिवलेज छिन जाता है. उनके फ्रेम ऑफ रिफरेंस गायब हो जाते हैं. अब उन्हें औरतों के फ्रेम ऑफ रिफरेंस से फिल्म को देखना पड़ता है. यह उन्हें मंजूर नहीं है. वे मर्द ही बने रहना चाहते हैं.

ऐसे मर्द हर जगह मौजूद हैं. एक मशहूर मैट्रिमोनियल साइट के सर्वे में 76 परसेंट लड़कों ने कहा था कि उन्हें ऐसी लड़कियां शादी के लिए पसंद नहीं जो ऑफिस के काम से टूर पर जाती हैं. इसके कारण अलग-अलग थे. फैमिली डिस्टर्ब होने के साथ-साथ यह भी तर्क दिया गया था कि ऐसी औरतें सिगरेट, शराब पीती हैं.

84 परसेंट लड़कों ने कहा था कि वे फैमिली में रहने वाली लड़कियों से शादी करना पसंद करेंगे क्योंकि शहरों में अकेली रहने वाली लड़कियां फ्री सेक्स में भरोसा करती हैं. इस सर्वे में लड़कों से यह भी पूछा गया था कि वे शादी के लिए किसी लड़की से मिलने के समय क्या-क्या सवाल करेंगे? जिस एक सवाल पर 69 परसेंट लड़कों की सुई अटकी थी, वह यह था कि क्या लड़की वर्जिन है? अगर इस सवाल का जवाब न हो तो 69 परसेंट में से 99 परसेंट ने लड़की को न कहने का मन बनाया था. 55 परसेंट लड़कों ने भावी दुल्हनों से यह जानना चाहा था कि क्या उनके पहले भी अफेयर रह चुके हैं? इसका जवाब हां मिलने पर इनमें से 89 परसेंट ने कहा था कि ऐसी लड़की को हम हां नहीं कह सकते.

वर्जिनिटी खोने या अफेयर करने वाली लड़कियों को हम हामी नहीं भर सकते. असल जिंदगी में भी नहीं और सिनेमा में भी नहीं. इधर एक उजबक से दूसरा उजबक टकराया है. भोपाल में ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ की टीम के आने पर पाबंदी लगाई गई है. बुर्के का मेटाफर उन्हें रास नहीं आ रहा. पूरी की पूरी फिल्म को डिब्बे में डाल दोगे तो भी हसरतें दबने वाली नहीं हैं. लड़कियां अपनी बात कहने की जगह तलाश ही लेती हैं. तलाश ही रही हैं- आपके रोके से क्या होगा...

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