यूपी के स्थानीय निकाय चुनाव परिणामों का विश्लेषण जिस ढंग से किया जा रहा है, उसे देखकर एक बहुप्रचलित दार्शनिक मान्यता सहज ही कूद कर सामने खड़ी हो जाती है- गिलास आधा खाली है या गिलास आधा भरा हुआ है- यह देखने वाले के नजरिए पर निर्भर है. लेकिन हम इन परिणामों को जैनों के प्रसिद्ध अनेकांत दर्शन का उदाहरण बनाते हुए कहना चाहेंगे कि गिलास पूरा भरा हुआ भी है और पूरा खाली भी है.
गिलास आधा खाली है कहने वालों की दृष्टि में यूपी के नगर पंचायत अध्यक्ष, नगर पंचायत सदस्य, नगर पालिका परिषद् अध्यक्ष, नगर पालिका परिषद् सदस्य चुनावों के नतीजे नजीर बने हुए हैं, जबकि गिलास आधा भरा हुआ है का दावा करने वाले नगर निगम चुनाव के नतीजों से फूले नहीं समा रहे. हम कहना चाहेंगे कि नगर निगम चुनावों में भाजपा ने अन्य दलों का सूपड़ा साफ कर दिया है इसलिए गिलास पूरा भरा हुआ है और ऊपर गिनाए गए शेष सभी निकायों में भाजपा की करारी हार हुई है इसलिए गिलास पूरा खाली भी है. चूंकि नतीजों के आंकड़े हाथ में हैं इसलिए इसे समझने और विश्लेषित करने के लिए आंकड़ों की शरण लेना ही समीचीन होगा.
एक ओर जहां यूपी के 16 नगर निगमों में से 14 पर भाजपा के महापौर काबिज हो जाएंगे और वह सिर्फ 2 सीटें ही हारी है, जो छप्पर फाड़ सफलता ही कही जाएगी. इन पदों के लिए भाजपा की झोली में 45.85 प्रतिशत मतों की बारिश भी बहुत बड़ी सफलता है. वहीं दूसरी ओर नगर पंचायत अध्यक्ष पद की 439 सीटों में से भाजपा 100 सीटों पर जीती और 339 पदों पर हारी है. नगर पंचायत सदस्यों के लिए 5434 पद थे, जिनमें भाजपा 662 पर जीती और 4728 पर हारी है. नगर पालिका परिषद् अध्यक्ष के कुल पद 198 थे जिनमें से भाजपा को सिर्फ 70 मिले जबकि 128 सीटों पर पराजित हो गई. इसी तरह नगर पालिका परिषद् सदस्य चुनावों के कुल 5261 में से भाजपा के सिर्फ 914 प्रत्याशी ही जीत पाए. नगर पालिका परिषद् चुनावों में भाजपा को मात्र 17.51 प्रतिशत वोट मिले हैं. इससे स्पष्ट है कि शहरी क्षेत्रों में तो भाजपा का दबदबा कायम है लेकिन कस्बों और गांवों के स्तर पर पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले पार्टी की हालत खस्ता हो गई है.
एक ग्रामीण कहावत के अनुसार अपने मट्ठे को कोई पतला नहीं कहता, इसलिए सबको अपनी-अपनी सफलता ही नजर आती है. विभिन्न दलों के नेताओं को भी अपनी पीठ ठोकने और बयानबाजी करने का पूरा हक है लेकिन भाजपा को यह परिणाम अपने लिए खतरे की घंटी समझना चाहिए. पार्टी नेतृत्व को इसे इस दृष्टि से भी देखना होगा कि नगर पंचायत अध्यक्ष के चुनाव में अगर उसने 100 सीटें जीती हैं तो सपा ने भी अपने 83 और बसपा ने 45 अध्यक्ष बनाने में सफलता प्राप्त की है. मतलब वे धूल झाड़ कर पुनः धावक बन गए हैं और उसका पीछा कर रहे हैं. इसके पीछे सपा और बसपा के पक्ष में फिर से दलित+मुस्लिम गठजोड़ बनने का हाथ साफ नजर आ रहा है.
दूसरा फैक्टर नोटबंदी और जीएसटी का भी है. यूपी विधानसभा चुनावों के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में भी मोदी लहर चल रही थी जिसके चलते जनता पर नोटबंदी का दुष्प्रभाव तथा उसके बाद कस्बाई इलाकों में छोटे व्यापारियों पर जीएसटी की दोहरी मार महसूस नहीं की जा सकी थी. हाथ कंगन को आरसी क्या वाला मुहावरा जब इन लोगों को खरा लगने लगा तभी निकाय चुनाव हुए और नतीजे सामने हैं. भाजपा को यह चिंता भी करनी होगी कि नगर निगमों की जिस प्रचंड जीत को वह सीएम योगी का करिश्मा बता रही है, उन्हीं योगी जी के मतदान केंद्र वाले गोरखपुर के वार्ड क्रमांक 68 में भाजपा का प्रत्याशी धोबी पछाड़ खा गया. इतना ही नहीं कुल मिलाकर देखा जाए तो नगर पंचायत चुनाव में भाजपा से ज्यादा वार्ड तो निर्दलीयों ने जीत लिए हैं!
स्थानीय निकाय चुनावों ने ईवीएम के प्रयोग पर भी प्रश्न चिह्न खड़े कर दिए हैं. बसपा ने ईवीएम पर फिर से ठीकरा फोड़ा है, जिससे मतदाताओं के मन में उठने वाली आशंकाओं को बल मिला है. निकाय चुनावों के दौरान ईवीएम की गड़बड़ी से संबंधित कई घटनाएं पेश आई थीं जिसका विरोध कर रहे लोगों पर पुलिस को बल प्रयोग भी करना पड़ा. 2014 के आम चुनावों और पिछले विधानसभा चुनावों के बाद भी कुछ दलों ने दबी जबान से भाजपा की प्रचंड जीत को ईवीएम की जीत बताया था. बसपा की सर्वेसर्वा मायावती तो खुल कर केंद्र सरकार को ईवीएम की जगह बैलेट पेपर से चुनाव कराने की चुनौती देती रही हैं.
मायावती की इस आशंका को इसलिए भी बल मिल रहा है कि नगर निगम के चुनाव ईवीएम से कराए गए जबकि शेष सभी चुनाव बैलेट पेपर के माध्यम से हुए. हमने ऊपर जो आंकड़े दिए हैं उनसे जाहिर है कि मात्र ईवीएम वाले नगर निगम चुनावों में भाजपा की भारी जीत हुई है लेकिन बैलेट पेपर से कराए गए नगर पंचायत अध्यक्ष, नगर पंचायत सदस्य, नगर पालिका परिषद् अध्यक्ष, नगर पालिका परिषद् सदस्य के चुनाव भाजपा के लिए घोर निराशाजनक साबित हुए हैं. ईवीएम में छेड़छाड़ होती है/हो सकती है या हरगिज नहीं हो सकती, इसको लेकर पक्ष-विपक्ष के अपने-अपने तर्क हो सकते हैं लेकिन मतदाताओं की इस आशंका को यदि समय रहते दूर नहीं किया गया और इस तरह के नतीजे मतदाताओं के मन में प्रबल हो रही आशंकाओं की पुष्टि करते रहे तो भारतीय लोकतंत्र अराजकता के भंवर में फंस सकता है!
जिन लोगों को लगता है कि यूपी के स्थानीय निकायों में भाजपा को मिली अभूतपूर्व विजय का सकारात्मक असर गुजरात विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा, उन्हें सिक्के का यह पहलू भी देख लेना चाहिए कि यूपी की ही तरह गुजरात में भी सिर्फ चमकदमक वाले शहर ही नहीं हैं; वहां भी अधिकांश जनता गांवों में वास करती है. उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि गुजरात में जब योगी जी प्रचार करने गए थे तो जनता ने उनकी रैलियों को ज्यादा भाव नहीं दिया. इस लिहाज से यूपी स्थानीय निकाय के चुनाव नतीजे ‘गिलास आधा खाली है’ और ‘गिलास आधा भरा हुआ है’- दोनों प्रकार की मान्यता वालों के लिए अर्धसत्य ही कहे जाएंगे.
-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
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