संसद के जारी मानसून सत्र में शुक्रवार की शाम अविश्वास प्रस्ताव के दौरान जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पीएम नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला बोलते हुए कहा कि देश में आए दिन हो रही भीड़ द्वारा हत्याओं (मॉब लिंचिंग) पर वह खामोश रहते हैं तो मोदी जी ने संसद में ही मुंह खोल दिया और अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देते हुए माना कि हाल के समय में हिंसा की घटनाएं हुई हैं, जो दुखद हैं और ऐसी घटनाओं को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. लेकिन पीएम के बयान की बेअसरी देखिए कि शुक्रवार की ही रात अलवर (राजस्थान) के रामगढ़ इलाके में अकबर नाम के एक शख्स को उन्मादी लोगों ने गो-तस्कर होने के शक में पीट-पीट कर हत्या कर दी.
इसका अर्थ यह हुआ कि वोटों की फसल काटने के चक्कर में राजनीतिक दलों ने जैसा समाज रच डाला है, उसमें कोई किसी की नहीं सुनने वाला है, पीएम की भी नहीं! इसका दूसरा अर्थ यह भी निकलता है, जैसा कि राज्यसभा में कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद गुलाम नबी आजाद ने कहा भी कि सरकार ने शायद ये सोच रखा है कि हम बयान देते रहेंगे, तुम अपना काम करते रहो! केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह कह रहे हैं कि ऐसी घटनाओं से निबटना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है और केंद्रीय गृह राज्य मंत्री हंसराज अहीर का कहना है कि देश में पीट-पीट कर हत्या की घटनाओं से संबंधित कोई विशिष्ट आंकड़ा सरकार के पास नहीं है. जाहिर है किसी को नहीं पता है कि ऐसे मामले न्यायालय में कहां तक बढ़ सके हैं.
जब संविधान और कानून के सख्त पालन का उदाहरण शीर्ष नेतृत्व द्वारा नहीं दिया जाता तब जमीनी स्तर पर पहले से बचा-खुचा मुलम्मा भी उतरने लगता है. लेकिन विडंबना देखिए कि भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी शून्यकाल के दौरान केरल, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल (तीनों जगह भाजपा सरकार नहीं है) में हुई हत्याओं का उदाहरण देते हुए मॉब लिंचिंग की वजह आर्थिक विषमता को बताती हैं और केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल 1984 के सिख दंगों को सबसे बड़ी मॉब लिंचिंग करार देते हुए हाल की घटनाओं को मोदी जी की बढ़ती लोकप्रियता से जोड़ रहे हैं! उनका कहना है- “मोदी जी की लोकप्रियता जितनी ज्यादा होगी, इस तरह की घटनाओं में इजाफा होगा. बिहार चुनाव के दौरान अवॉर्ड वापसी गैंग सक्रिय हो चुका था. अब 2019 का चुनाव सामने आ रहा है और मोदी जी ने जो योजनाएं दीं, उनका असर दिख रहा है तो ये सब कुछ उनकी योजनाओं के खिलाफ प्रतिक्रिया है.“
इन वरिष्ठ भाजपा नेताओं का विश्लेषण स्पष्ट करता है कि इनकी नजर में मॉब लिंचिंग कोई भयंकर सामाजिक विद्रूपता और भारतीय समाज के लिए जोखिम नहीं है बल्कि मोदी जी से जलन और आर्थिक समस्या है. प्रश्न उठता है कि जब उत्तर प्रदेश में अखलाक अहमद को घर में घुस कर भीड़ ने मार डाला था, हरियाणा के बल्लभगढ़ में ट्रेन के अंदर युवक ज़ुनैद की हत्या हुई थी, राजस्थान में पहलू खान मारा गया, दिल्ली में एक ई-रिक्शाचालक की भीड़ ने पीट-पीट कर हत्या कर दी, पश्चिम बंगाल में मानसिक रूप से कमज़ोर 42 साल की एक महिला लोगों के शक, अफ़वाह और ग़ुस्से का शिकार बनीं, जम्मू कश्मीर में एक पुलिस अधिकारी को भी भीड़ ने अपनी हिंसा की चपेट में ले लिया, महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार, कर्नाटक, असम, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि प्रदेशों से 2017 के पहले छह महीनों में ही भीड़ द्वारा की जाने वाली अराजक और सामूहिक हिंसा की 20 घटनाएं सामने आ गई थीं, कर्नाटक के बीदर में हैदराबाद के सॉफ्टवेयर इंजीनियर को भीड़ ने मार डाला और हाल ही में जब 80 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश पर कथित भाजयुमो कार्यकर्ताओं ने झारखंड के पाकुड़ जिले में सामूहिक हमला किया, तब कौन-सी मोदी जी से जलन और आर्थिक समस्या केंद्र में थी?
मामला हाथ से निकलता जा रहा है लेकिन सत्ता पक्ष इसे राजनीतिक हानि-लाभ के तराजू में तोल कर देख रहा है! वह यह नहीं देख रहा है कि पीड़ित के बच्चा चोर होने या गोकशी में शामिल होने के शक अकेले कारण नहीं हैं, बल्कि उकसावे के अन्य कारण भी हैं, जिनमें साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा खोदी गई खाई भी शामिल है. मान लिया जाए कि इसके आर्थिक कारण भी हैं, तो क्या यह आर्थिक विषमता बीते चार वर्षों में ही पैदा हुई है जो देश मॉब लिंचिंग कंट्री बनता जा रहा है? दरअसल भीड़तंत्र की आड़ में धार्मिक विद्वेष का स्कोर सेटल किया जा रहा है. मतदाताओं के मन में डर भी बिठाया जा रहा है कि एक खास रास्ते पर चलो वरना मार दिए जाओगे. चूंकि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता, इसलिए पुलिस और कानून भी कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा. अगर कानून कुछ बिगाड़ सकता तो अब तक हत्यारों की पहचान हो चुकी होती और सामने आ जाता कि भीड़ की आड़ में बेचेहरा बने रहने वाले चेहरे किन संगठनों और दलों से जुड़े हैं.
अब इसे क्या कहा जाए! मॉब लिंचिंग या भीड़ की मनोदशा के धीर-गंभीर, पारंपरिक और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण यहां काम नहीं करते. अगर ऐसा होता तो जनता जिससे सबसे ज्यादा नाराज होती, उसकी मॉब लिंचिंग कर डालती. सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि भीड़तंत्र की ये घिनौनी हरकतें कानून के राज की धारणा को ही खारिज करती हैं. यह भी कि समाज में शांति कायम रखना केंद्र सरकार का दायित्व है. लेकिन मॉब लिंचिंग रोकने के लिए जिस दृढ़ इच्छा शक्ति और ईमानदारी की जरूरत है, उसका सरकार में चिह्न भी नहीं दिखता. यूपी
में तो एक मामले को पुलिस ने खुद सड़क दुर्घटना से संबंधित विवाद बताकर रफा-दफा करने की कोशिश की थी. कुछ सत्तासीन राजनेताओं ने हमले के आरोपियों और दोषियों से जेल में मुलाकात करके और उनको सम्मानित कर इन घटनाओं के जरिए सियासी स्वार्थ साधने की बेशर्मी दिखाई. ऐसे में क्या वॉट्सऐप या अन्य मंचों पर अफवाह फैला कर मॉब लिंचिंग कराने वालों के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई होने दी जाएगी?
हो सकता है कि संसद के वर्तमान सत्र में ही गंभीर बहस-मुबाहिसे के बाद मॉब लिंचिंग के खिलाफ कोई कड़ा कानून बन जाए, लेकिन जिन एजेंसियों और अधिकारियों को कानून का पालन करना है, क्या उनके हाथ खुले रखे जाएंगे? आज जो भीड़ द्वारा चुन-चुन कर मासूम लोगों को मार दिए जाने पर अट्टहास कर रहे हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए कि पुरुष बली नहिं होत है, समय होत बलवान और भीड़ किसी की सगी नहीं होती!
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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)
BLOG: मॉब लिंचिंग-समय होत बलवान और भीड़ किसी की सगी नहीं होती!
विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार
Updated at:
22 Jul 2018 07:40 PM (IST)
वोटों की फसल काटने के चक्कर में राजनीतिक दलों ने जैसा समाज रच डाला है, उसमें कोई किसी की नहीं सुनने वाला है, पीएम की भी नहीं! इसका
दूसरा अर्थ यह भी निकलता है, जैसा कि राज्यसभा में कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद गुलाम नबी आजाद ने कहा भी कि सरकार ने शायद ये सोच रखा है कि हम बयान देते रहेंगे, तुम अपना काम करते रहो!
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