मई 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की जीत के पहले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के घटक दल नरेंद्र मोदी की विदेश नीति की समझ को लेकर सर्वाधिक आशंकाएं दर्ज कर रहे थे. याद रहे कि सन 2002 के गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के आरोप में कांग्रेसी सांसद मोहम्मद अदीब के नेतृत्व में अमेरिकी प्रशासन को भारतीय सांसदों के एक दल ने पत्राचार कर नरेंद्र मोदी को अमेरिकी वीजा रुकवाने का काम किया था. सो, कांग्रेस समेत पूरे यूपीए का तर्क था कि मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर रहने के बावजूद जिसे अमेरिकी प्रशासन ने वीजा तक नहीं दिया, उसके प्रधानमंत्री बनने पर तो दोनों देशों के रिश्ते गर्त में चले जाएंगे. दूसरी आशंका व्यक्त की गई थी कि मुस्लिम विरोधी छवि होने के कारण मध्य एशिया की सशक्त लॉबी समेत अधिकांश मुस्लिम देश पाकिस्तान के पक्ष में ध्रुवीकृत हो जाएंगे. तीसरी आशंका थी कि विदेशी मामलात में उनकी अनुभवहीनता वैश्विक प्रभावृद्धि में आड़े आएगी. आज जब नरेंद्र मोदी सरकार अपने कार्यकाल के तीन वर्ष पूरे कर चुकी है, तब तीनों आशंकाएं खर-पतवार की तरह वक्त के झोंके में उड़ चुकी हैं.
आज कहाँ हैं मोहम्मद अदीब और मोदी के प्रधानमत्री बनने पर अमेरिकी-भारत रिश्तों में गिरावट की आशंका प्रकट करने वाले! प्रधानमंत्री बनने के बाद 27-30 सितंबर 2014 की उनकी अमेरिका यात्रा, न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली में शानदार वक्तव्य, वॉशिंगटन पहुँचने के पहले मैडिसन स्क्वेयर में हजारों की संख्या वाले जनसमुदाय के सामने किसी ‘रॉक स्टार’ की तरह उनके वक्तव्य पर मिलने वाला प्रतिसाद किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री के लिए अभूतपूर्व और अविस्मरणीय क्षण था. खुद अमेरिकी राष्ट्रपति ने नरेंद्र मोदी को अपने प्रीतिभोज के समय ‘मैन ऑफ एक्शन’ की उपाधि से नवाजा.
भारत-अमेरिकी रिश्तों में नव अध्याय के संकेत के रूप में ओबामा प्रशासन ने भारतीय मूल के रिचर्ड वर्मा को भारत में अमेरिकी राजदूत के रूप में नियुक्त किया और जब बराक ओाबामा ने 66वें गणतंत्र दिवस के परेड पर मुख्य अतिथि बने, तब तो भारत-अमेरिका के रिश्ते शीर्षक पर पहुँच गए. अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तो अमेरिका में मोदी कल्ट के ही नेता माने जाते हैं. ट्रंप प्रशासन ने जिस तरह इस्लामी आतंकवाद के मुखौटे हाफिज सईद को प्रशय देने के चलते प्रतिबंधित किए जाने वाले वाले देशों में पाकिस्तान को शामिल किए जाने की घुड़की दी, उससे पाकिस्तान सईद पर कार्रवाई करने को मजबूर होना पड़ा. आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान की घेराबंदी में मोदी सरकार की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल और विदेश सचिव एस. जयशंकर के रणनीतिक अभियान की प्रमुख भूमिका रही है.
भारत की विदेश नीति को पंचाध्यायी के रूप में विश्लेषित करना चाहिए. इस नीति का प्रथम अध्याय है हमारे पड़ोसी देशों से संबंध. जब मोदी सरकार को सत्ता सूत्र मिले तब पाकिस्तान और चीन जैसे पारंपरिक शत्रुओं के अलावा श्रीलंका, नेपाल और मालदीव जैसे भारतीय छाते में रहने वाले देश भी भारत को आँखें दिखा रहे थे. म्यांमार और बांग्लादेश भारत विरोधी आतंकी संगठनों की आश्रय स्थली बना हुआ था. शपथ ग्रहण के दौरान ‘सार्क’ देशों के प्रमुखों को निमंत्रण के साथ शुरू हुई सौहार्द्र की नीति आज ‘सार्क’ सैटेलाइट के प्रक्षेपण के मुकाम पर है. जिस अंदाज में भारत के विरोध के चलते पाकिस्तान में आयोजित ‘सार्क’ सम्मेलन को रद्द होने की बारी आई, उसने दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को हाशिये पर धकेल दिया. म्यांमार में घुस कर आतंकी संठगन के बेस को नेस्तनाबूद करना और बांदलादेश ने जिस अंदाज में कट्टरपंथी इस्लामी तंजीमों के खिलाफ कार्रवाई की, उससे भारतीय सुरक्षाबलों के मनोबल को बढ़ावा मिला है.
तीस्ता समझौता और सीमावर्ती गांवों की सफल अदला-बदली ने बांग्लादेश को दशकों बाद पाकिस्तान के खिलाफ खड़ा किया और चीन के प्रभाव को कमतर किया है. दशकों बाद भारतीय प्रधानमंत्री की नेपाल यात्रा ने हमारे पर्वतीय कवचप्राय पड़ोसी देश को चीनी ड्रैगन का ग्रास बनने से रोका. श्रीलंका अब चीन-पाकिस्तान का दक्षिणी त्रिकोण बनने से दूर हो रहा है. पहली बार अरुणाचल में दलाई लामा की जनसभाओं ने चीन को सोचने को मजबूर किया है कि वह भारतीय हितों पर खुला प्रहार कर भारत को दुबका नहीं सकता.
पाकिस्तान बीते 70 वर्षों से भारत के खिलाफ छद्म और खुली कार्रवाइयां करने के बाद भी भारत को वार्ता की टेबल पर लाकर दुनिया को यह संदेश देने में सफल रहा करता था कि भारत भले ही आतंकवाद पर चिंता जताता हो पर यह जिसे प्रायोजक मानता है, उसी के साथ शांतिवार्ता करता है. तीन वर्षों तक सरकार जिस अंदाज में आतंक बंद करने के बाद ही वार्ता पर अड़ी, उससे आज ट्रंप प्रशासन का इंटेलिजेंस चीफ भी सीनेट के समक्ष कहता है कि हमला हुआ तो हिंदुस्तान अपारंपरिक प्रत्युत्तर दे सकता है.
विदेश नीति का दूसरा अध्याय है, ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’, जिसकी बुनियाद पी. वी. नरसिंहराव ने रखी थी, उसे मोदी सरकार ने ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ में तब्दील कर दिया. ‘एशियान’ और ‘शंघाई कोऑपरेशन आर्गेनाइजेशन’ में भारत की बढ़ती हिस्सेदारी इसका प्रमाण है. चीन के ‘वन रोड वन बेल्ट’ के समानांतर अमेरिकी सहयोग से ‘न्यू सिल्क रूट’ की तैयारी, साथ ही चीन के तेवर कड़े करने पर जापान, दक्षिण कोरिया और ताईवान से रणनीतिक संबंधों में विकास ने ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ के साथ भारत के नए तेवर का भी अध्याय प्रारंभ किया है.
विदेश नीति का तीसरा अध्याय है खाड़ी देशों के साथ मधुर संबंधों का व्यापारिक और रणनीतिक सदुपयोग. मई 2014 तक हर किसी को आशंका थी कि क्या नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मुस्लिम उम्मा के शक्ति केंद्र खड़ी देशों से भारत के संबंधों में असंतुलन नहीं आ जाएगा? खाड़ी देशों के समूह जीसीसी में पारंपरिक तौर पर पाकिस्तान का प्रभाव भारत की तुलना में बेहतर था. 1950 के दशक के ‘बगदाद पैक्ट’ के बाद बारंबार मुस्लिम देश कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान के पक्ष में खड़े हो जाते थे. भारतीय रणनीतिकार जीसीसी से संबंधों में ऊर्जा सुरक्षा, व्यापार, रोजगार और विदेशी मुद्रा के आगे की सोच ही नहीं पाते थे. नरेंद्र मोदी ने सऊदी अरेबिया और संयुक्त अरब अमीरात को जिस तरह से नागरिक सुरक्षा के मुद्दों पर अपना साझीदार बनाने में कामयाबी पाई है. उससे अब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अरब समूह की बैठक में भी अपमानित होना पड़ रहा है. इराक, लीबिया और यमन में फंसे भारतीयों को सुरक्षित निकाल कर लाना भारतीय राजनय का उम्दा कौशल रहा है. ईरान ने जिस तरह पाकिस्तानी सीमा में घुस कर बीते सप्ताह कार्रवाई की, उसमें भारतीय राजनय की भूमिका भी महत्वपूर्ण है.
विदेश नीति का चौथा अध्याय है पॉवरफुल-5 (पी-5) देशों से संबंध. अमेरिकी संबंधों में सुधार का हम विश्लेषण कर चुके हैं. ब्रिटेन और फ्रांस हमारे साथ आतंकवाद के मुद्दे पर खुल कर खड़े हैं. चीन के अलावा शेष सारे देश भारत को महशक्ति के रूप में उभरकर अपने अनुकूल पाते हैं. ग्रुप-7 और ग्रुप-20 में भी भारत का आर्थिक-रणनीतिक दबदबा रहा है. जर्मनी, इटली, जापान के साथ-साथ यूरेशिया के देश भी भारतीय महत्ता के पक्षधर हैं.
विदेश नीति का पंचम अध्याय है अफ्रीका समेत दुनिया के तीसरे दर्जे के देशों के साथ संबंधों में सुधार. वैश्विक मंचों मसलन संयुक्त राष्ट्र, विश्व व्यापार संठगन, जी-20 लीडर समिट, ईस्ट एशिया समिट, ब्रिक्स समिट और कॉमनवेल्थ ऑफ नेशंस जैसे मंचों पर भारत अब तीसरे देशों का स्वर बन चुका है. अफ्रीका में भी बीते दो दशकों के बढ़ते चीनी प्रभाव को भी अब अंकुश लगाने में कामयाब हुआ है. गरीबी उन्मूलन, संसाधन विकास और स्वास्थ्य परियोजनाओं के माध्यम से भारत तीसरे देशों के कल्याण की कामना वाले बड़े बंधु के रूप में उभरा है. नरेंद्र मोदी के पहले दो वर्षों के कार्यकाल को भारत के विपक्षी दल उनकी सतत विदेश यात्राओं को लेकर टीका-टिप्पणी करते रहे. आज जब प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर्यटन और भू-रणनीतिक मामलों में उन्हें सफलता मिली है, तो विरोधियों को चुप्पी साधने के लिए मजबूर होना पड़ा है. सतत संवाद, पर जरूरत पड़ने पर हठ की तैयारी ने भारतीय विदेश नीति में आमूलाग्र परिवर्तन देखा है. सिर्फ ‘पंचशील’ के ‘त्रिपटिक निकाय’ पर निरभर नहीं, अब उसमें सिंहनाद का योग बल भी प्रकट है.
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