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'अब भूख से तनी हुई मुट्ठी' का नाम नक्सलवाद नहीं रह गया

साठ और सत्तर के दशक में देश की दिशा और दशा तय करने वाले नक्सलवाड़ी आंदोलन के बारे में तीक्ष्ण तेवरों वाले कवि सुदामा प्रसाद ‘धूमिल’ ने कहा था- ‘भूख से तनी हुई मुट्ठी का नाम नक्सलवाड़ी है.’ लेकिन आज के नक्सलवादियों ने धूमिल के उस अकीदे को शर्मशार कर रखा है. चंद रोज़ पहले छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल सुकमा की धरती एक बार फिर ‘लाल आतंक’ द्वारा सीआरपीएफ की 74वीं बटालियन के 26 जवानों के रक्त से लाल कर दी गई. ज़िले के दोरनापाल और बुरकापाल गांवों के बीच ऊंची पहाड़ी वाले इलाके से करीब 300 नक्सलियों ने ‘सत्ता बंदूक की गोली से निकलती है’ के अपने उद्घोष वाक्य पर एक बार फिर अमल किया.

पिछली 11 मार्च को नक्सलियों ने इसी इलाके में 12 जवानों को शहीद कर दिया था और उनका दुस्साहस देखिए कि उस वक़्त केंद्रीय गृह-मंत्री राजनाथ सिंह ख़ुद उसी इलाके में मौजूद थे. तब सिंह ने रटीरटाई गर्जना की थी कि इसका मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा. ताज़ा हमले के बाद भी केंद्रीय नेताओं की गर्जनाओं में घोर निंदनीय, कीमत चुकानी पड़ेगी, शोकपूर्ण, कायराना हमला जैसे शब्द शामिल हैं, जबकि जवाबदेही और जिम्मेदारी का आलम यह है कि उनके गृह-मंत्रालय ने सीआरपीएफ को 28 फरवरी, 2017 के बाद से खाली पड़े रहने के बाद तब जाकर राजीव राय भटनागर के रूप में एक अदद महानिदेशक दिया, जब इतनी भीषण घटना घट गई. मनोहर परिक्कर के गोवा जाने के बाद देश में पूर्णकालिक रक्षा मंत्री तक नहीं है.

दूसरी तरफ पशुपति से तिरुपति तक ‘रेड कॉरीडोर’ बनाने का लक्ष्य लेकर बढ़ रहे नक्सलियों के हौसले देखिए कि इसी साल नक्सलबाड़ी आंदोलन के 50 साल पूरे होने के अवसर पर सिलीगुड़ी में उनका एक भव्य कार्यक्रम होने जा रहा है, जिसमें तमाम दिग्गज नक्सली नेता मौजूद रहेंगे. भाकपा-माले न्यू डेमोक्रेसी के संयोजक चंदन प्रमाणिक के मुताबिक 25 मई को सुबह 9 बजे नक्सलबाड़ी में शहीद बेदी पर माल्यार्पण किया जाएगा और उसके बाद सिलीगुड़ी के एक इंडोर स्टेडियम में आयोजित विशाल जनसभा में वरिष्ठ नक्सली नेता और कवि वरवर राव भविष्य की दिशा बताएंगे. इन तैयारियों से माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशन जी (अब मृत) की वह धमकी ताज़ा हो जाती है जिसमें कभी उन्होंने दावा किया था कि माओवादी गोली के दम पर अगले 50-60 वर्षों में लोकतांत्रिक सत्ता का तख़्तापलट कर देंगे.

25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गांव से चारु मजूमदार और कानू सान्याल के नेतृत्व में ज़मीदारी के ख़िलाफ़ सशस्त्र क्रांति का बिगुल फूंकने के साथ शुरू हुआ नक्सलवाद अब बिहार, छतीसगढ़ और आंध्र प्रदेश की सीमाओं तक महदूद नहीं रहा. गृह-मंत्रालय द्वारा तैयार की गई आंतरिक सुरक्षा की स्थिति को लेकर 2006 में तैयार करवाई एक रपट में स्वीकार कर लिया गया था कि देश का कोई भी हिस्सा नक्सलवादी गतिविधियों से अछूता नहीं है. इन दिनों देश के प्रमुख आर्थिक कॉरीडोरों- भिलाई, रांची, धनबाद, कोलकाता और मुंबई, पुणे, सूरत, अहमदाबाद में भी नक्सलियों की धमक महसूस की जा रही है. लेकिन इसकी काट निकालने के लिए केंद्र सरकार के पास ‘ग्रीन हंट’ जैसे ऑपरेशन चलाकर उन्हें सीधे ‘गोली से उड़ा देने’ और छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा ‘सलवा जुडूम’ बनाकर आदिवासियों के हाथों आदिवासियों का ही सफाया कराने के अलावा कोई न्यायपूर्ण ज़मीनी कार्ययोजना है क्या?

आज भी नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में बीएसएफ, सीआरपीएफ, एसटीएफ के साथ स्थानीय पुलिस हेलीकॉप्टरों तथा पूरे सैन्य तामझाम के साथ तैनात रहती है और नक्सली उन्हें मौत के घाट उतार कर बड़े आराम से जंगलों में विलीन हो जाते हैं. नक्सलियों द्वारा पश्चिम बंगाल में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को विस्फोट से उड़ाकर 200 से ज़्यादा निर्दोष यात्रियों की जान ले लेना, छतीसगढ़ के दंतेवाड़ा में 73 सुरक्षाकर्मियों को मार दिया जाना और बारूदी सुरंग लगाकर राज्य के लगभग पूरे कांग्रेस नेतृत्व का सफाया कर देना भला कौन भूल सकता है. विधायक झीना हकाका, सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन, मलकानगिरी (उड़ीसा) के कलेक्टर और इटली के पर्यटकों का अपहरण आज भी रीढ़ में सिहरन पैदा करता है. सुरक्षा बलों पर आए दिन हमले तो नक्सलियों के बाएं हाथ का काम है.

मगर प्रश्न यह है कि नक्सलवादियों को अपने घृणित मंसूबे अंजाम देने के लिए इतना खाद-पानी कहां से मिलता है? आदिवासियों को उनके जल-जंगल-ज़मीन का स्वाभाविक हक़ दिलाना तो अब एक पवित्र परदा मात्र रह गया है. असल मंसूबा है उन्हें खनिज-प्रचुर जंगलों से बेदख़ल करके प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट मचाना. सरकारों और नक्सलवादियों के बीच आज का संघर्ष इसी बंदरबांट को लेकर है. यह संयोग नहीं है कि नक्सलवादी उन्हीं केंद्रों में वर्षों से मजबूत हैं जहां खनिज एवं प्राकृतिक संपदा प्रचुर है और पूंजीपतियों द्वारा उसका अवैध खनन निर्बाध गति से जारी है. इन दो पाटों के बीच मासूम आदिवासी और उनकी संस्कृति पिस रही है. राज्य उन्हें नक्सलियों का जासूस मान कर चलता है और नक्सली उन्हें पुलिस का ख़बरी समझ कर मार डालते हैं.

स्पष्ट है कि उच्च वर्गों के न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को सशस्त्र क्रांति से समाप्त करने निकला नक्सलवाड़ी आंदोलन अपना रास्ता भटक कर खनन माफ़िया और पूंजीवादी कंपनियों से लेवी वसूल कर समानांतर सरकार चलाने के जंगलों में भटक चुका है. उसकी एकमात्र पूंजी अब जनता नहीं बल्कि आतंक और क्रूरता बन गई है.

वर्षों बाद निष्क्रियता की मांद से निकले नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रणेता कानू सान्याल ने अपने अतीत को गहरे दुख और अवसाद के साथ याद करते हुए 2004 में स्वीकार किया था- “बंदूक लेकर जब हम आतंक फैलाते चलते थे तो हमें भी लोग समर्थन देते थे लेकिन आतंकवाद के रास्ते में भटक जाना हमारे लिए घातक सिद्ध हुआ. आज ये बंदूक के बल पर जनता के साथ होने का दावा कर रहे हैं, कल कोई दूसरा बंदूकवाला भी यही दावा कर सकता है. अगर हथियारबंद गिरोहों के बल पर क्रांति का दावा किया जा रहा है, तो चंदन तस्कर और दूसरे डाकू सबसे बड़े क्रांतिकारी घोषित किए जाने चाहिए. भय और आतंक पर टिका हुआ संगठन ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकता. बंदूक के बल पर कुछ लोगों को डरा-धमका कर अपने साथ होने का दावा करना और बात है और सच्चाई कुछ और है. अगर जनता उनके साथ है तो फिर वो भू-सुधार जैसे आंदोलन क्यों नहीं करते?”

कानू सान्याल की विचारधारा के मूल में मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओत्सेतुंगवाद था. आज का नक्सलवाद विशुद्ध आतंकवाद का रूप ले चुका है. इसकी छत्रछाया में नेता, व्यापारी, ठेकेदार, कमीशनख़ोर अधिकारी आदि सुखी और संतुष्ट हैं. ये नक्सलियों की गोली से कभी नहीं मारे जाते. जान पर तो मैदानी इलाकों में पले-बढ़े उन मासूम सैनिकों की बन आती है जो यहां के घनघोर जंगलों और पेंचीदा पहाड़ियों में नक्सलियों से मुकाबला करने चले आते हैं और अक्सर तिरंगे में लिपट कर घर लौटते हैं. उन्हें न तो दुश्मन की भाषा समझ में आती न चाल. नक्सली दैत्यों का जंगली ख़ुफिया तंत्र सरकारी ख़ुफिया तंत्र पर बहुत भारी है. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि ‘माल-ए-ग़नीमत’ समझ कर लूट का रास्ता साफ करने और दक्षिणपंथ-मध्यमार्ग-वामपंथ की अपनी छद्म लड़ाई सैनिकों के सहारे लड़ने का यह सरकारी सिलसिला आख़िर कब थमेगा?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)

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