केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष पद से बर्ख़ास्त किए गए पहलाज निहलानी का हमें तहे दिल से शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्होंने अपनी ‘संस्कारी’ सक्रियता से दर्शकों एवं निर्माता-निर्देशकों को यह सोचने के लिए विवश कर दिया कि इक्कीसवीं सदी में बाबा आदम के ज़माने के दिशा-निर्देश बेमानी हैं. निहलानी फिल्मों पर आए दिन कैंची चलाते थे और बात-बात पर सिनेमैटोग्राफ एक्ट 1952 की नियमावली से बंधे होने की दुहाई देते थे. जबकि हकीकत यह है कि 19 जनवरी, 2015 को हुई अपनी नियुक्ति के पहले दिन से ही वह ऐसे सैकड़ों शब्दों की पिटारी तैयार करके बैठ गए थे जिन्हें बड़े परदे के लिए वह ‘अश्लील’ समझते थे.
चुम्बन, अंतरंग व शराब का उपयोग दिखाने वाले दृश्य तो उनका ‘संस्कार’ इस हद तक भड़का देते थे कि निर्माता-निर्देशकों से उनका पंगा हो जाता था. यह पंगेबाज़ी इस कदर बढ़ी कि आखिरकार केंद्र सरकार को उन्हें कुर्सी से हटाना पड़ गया. जबकि माना यही जाता है कि यह पद उन्हें ‘शोला और शबनम’, ‘आंखें’, ‘दिल तेरा दीवाना’ तथा ‘अंदाज़’ जैसी हिट फिल्में बनाने के लिए नहीं बल्कि मोदीभक्ति के प्रसादस्वरूप प्राप्त हुआ था क्योंकि 2014 के आम चुनाव में उन्होंने भाजपा के प्रचार के लिए ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ वाला बेहद कामयाब और कैची वीडियो बनाया था.
सीबीएफसी में राजनीतिक दखलंदाज़ी कोई नई चीज नहीं है. 80 के दशक में इसके सदस्य रह चुके प्रसिद्ध गीतकार अमित खन्ना का कहना है- “पैनल सदस्यों की नियुक्ति पंडित नेहरू के ज़माने से ही पॉलिटिकल रही है. मैंने तो 3-4 महीने में ही इस्तीफा दे दिया था क्योंकि पैनल रूढ़िवादी था और सरकारी दखलंदाजी अधिक थी. इंदिरा गांधी के शासनकाल में तो सीबीएफसी आज से भी बदतर हालत में था.”
फिल्मों को उनकी विषयवस्तु, फिल्मांकन और संवादों के मद्देनजर ‘ए’, ‘यू’, ‘ए/यू’ अथवा ‘एस’ प्रमाण-पत्र देने के लिए सीबीएफसी का गठन किया गया था. इसने 1959 में ‘नील आकाशेर नीचे’ फिल्म से शुरू करके किस्सा कुर्सी का, गरम हवा, सिक्किम, बैंडिट क्वीन, कामसूत्र, उर्फ प्रोफेसर और फायर जैसी दर्ज़नों बोल्ड फिल्मों को प्रतिबंधित भी किया. लेकिन पहलाज निहलानी मान कर चल रहे थे फिल्मों को समाज के देखने योग्य बनाना सीबीएफसी की ही जिम्मेदारी है. अपनी इसी समझ के चलते उन्होंने अलीगढ़, उड़ता पंजाब, अनफ्रीडम, बॉडीस्केप, लिपिस्टिक अंडर माय बुरका, इंदु सरकार, बाबूमोशाय बंदूक़बाज़ जैसी बीसियों फिल्मों की राह में चीन की दीवार खड़ी कर दी. उन्होंने स्पेक्टर, एटॉमिक ब्लॉण्ड, डेडपूल, ट्रिपल एक्स: रिटर्न ऑफ ज़ेंडर केज, द हेटफुल एट जैसी कई हॉलीवुड ब्लॉकबस्टर्स को भी नहीं बख़्शा! उड़ता पंजाब को तो अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा जिसके हक़ में फैसला सुनाते हुए बाम्बे हाई कोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि सीबीएफसी फिल्मों को सेंसर नहीं कर सकता.
सीबीएफसी को समझना चाहिए कि तकनीक और ज़माने के साथ हर माध्यम का फलक विस्तृत होता चला जाता है. फिल्म निर्माताओं का दृष्टिकोण, विषय-वस्तु और कंटेंट के साथ उनका बर्ताव भी बदलता है. लेकिन सेंसर बोर्ड की सुई 1952 में ही अटकी हुई है. इसके दिशा-निर्देश भी बहुत अस्पष्ट हैं जिनकी व्याख्या सदस्यगण अपनी-अपनी समझ और श्रद्धानुसार करते आए हैं. जैसे एक दिशा-निर्देश है- ‘अगर फिल्म का कोई भी हिस्सा भारत की सम्प्रभुता एवं अखंडता के हितों के विरुद्ध है, भारतीय राज्य की सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा करता है, विदेशी मुल्कों से दोस्ती में दरार डालता है, क़ानून-व्यवस्था अथवा शिष्टता का उल्लंघन करता है, न्यायालय की अवमानना करता है, या फिर लोगों की भावनाएं भड़काने में मुब्तिला होता है, तो उस फिल्म को प्रमाणित नहीं किया जाएगा.’ इसके अलावा सीबीएफसी के अध्यक्ष को इतनी शक्ति प्राप्त है कि वह फिल्मकार के सौंदर्य बोध पर अकेले ही झाड़ू फिरा सकता है.
फिल्मफेयर और कई नेशनल अवॉर्ड जीत चुके फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल ने सीबीएफसी की कार्यप्रणाली में बदलाव को लेकर 2016 में केंद्र को सौंपी अपनी रपटों की प्रगति जानने के लिए बीती जुलाई में दिल्ली की दौड़ लगाई लगाई थी, लेकिन पता चला कि सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय कान में तेल डालकर बैठा हुआ है. बेनेगल की अध्यक्षता वाली समिति ने कुछ ऐसे सुझाव दिए हैं कि सीबीएफसी को फिल्में सेंसर करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, सिर्फ उचित श्रेणी में उनका प्रमाणन करना पड़ेगा. समिति ने ‘एडल्ट विथ कॉशन’ जैसी नई श्रेणी अपनी तरफ से जोड़ी है और मौजूदा श्रेणियों के बीच में यूए 12+ तथा यूए 15+ जैसी उप-श्रेणियां जोड़ने की सिफारिश की है. दादासाहेब फाल्के अवॉर्ड विजेता पद्मभूषण श्याम बेनेगल आग्रह करते हैं- “आप मंत्रालय के संयुक्त सचिव या सचिव यहां तक कि केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी से पूछिए कि रपट का क्या हुआ और अभी तक मेरे सुझावों पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई?”
बेनगल के सुझाव भले ही फिलहाल ठंडे बस्ते में पड़े हों लेकिन इस बीच सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने पहलाज निहलानी की जगह गीतकार प्रसून जोशी की नियुक्ति कर दी है. हालांकि प्रसून जोशी से लोगों को संतुलित एवं विवेकपूर्ण रवैया अपनाने की उम्मीद जगी है. प्रसून न सिर्फ एक प्रोफेशनल व्यक्ति हैं अपितु वह विज्ञापन एवं फिल्म माध्यम को करीब से समझने वाले एड गुरु भी हैं. उनकी छवि किसी मसाला फिल्म के निर्माता-निर्देशक की नहीं, बल्कि ‘रंग दे बसंती’ और ‘तारे ज़मीन पर’ जैसी सार्थक फिल्मों के मानीख़ेज गीत लिखने वाले सहृदय कवि की है. फिल्म एंड टेलीविजन प्रोड्यूसर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष अमित खन्ना कहते हैं- “मुझे पूरी उम्मीद है कि प्रसून, जो फिल्म लेखक और गीतकार हैं तथा एडवरटाइजिंग व लिटरेचर से जुड़े हैं, सीबीएफसी के एटीट्यूड में अच्छा बदलाव लाएंगे.”
प्रसून जोशी से पूरी फिल्म इंडस्ट्री ने बड़ी उम्मीद लगा रखी है क्योंकि वह पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यक्ति नहीं हैं. कुछ वर्ष पहले बॉलीवुड हंगामा को दिए अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था- ‘हमें ऐसा समाज गढ़ने की आवश्यकता है जहां किसी प्रकार की सेंसरशिप की जरूरत ही न रहे.’ एक अखबार द्वारा आयोजित पैनल डिस्कसन में प्रसून ने सरकार के सेंसर करने के अधिकार पर ही सवाल उठा दिए थे. लेकिन वह तब की बात थी जब वह सिस्टम का हिस्सा नहीं थे. उनकी नियुक्ति को राजनीतिक नियुक्ति मानने से भी इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि वह अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर नरेंद्र मोदी तक से सीधे जुड़े रहे हैं. प्रसून की कविता ‘इरादे नए भारत के’ वाजपेयी जी अपने भाषणों में इस्तेमाल करते थे और 2014 के चुनाव अभियान में मोदी जी ने प्रसून की ‘सौगंध’ शीर्षक कविता को अपनी आवाज़ दी थी.
जाहिर है नए चेयरमैन प्रसून जोशी के हाथ भी अप्रत्यक्ष तौर पर बंधे हुए होंगे. लेकिन देखना दिलचस्प होगा कि वह नए-नए प्रयोग करने वाले फिल्मकारों के लिए रचनात्मक स्वतंत्रता देने के मामले में फिल्मों का प्रमाणन करने वाले सेंसर बोर्ड को कितना प्रामाणिक बना पाते हैं!
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