बीजेपी ने मोदी-शाह की तूफानी रैलियों के बावजूद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे बड़े और तेलंगाना तथा मिजोरम जैसे अपेक्षाकृत छोटे राज्यों में मिली भारी चुनावी विफलता के साथ साल 2019 में प्रवेश किया था. राजनीतिक गलियारों में स्थापित यह मिथक भी मिथ्या साबित हो चला था कि पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अगुआई में बीजेपी ने हर जगह पारंपरिक समीकरणों को तोड़कर खेल के नियम और नतीजे बदल डालने वाली जो नई रणनीति विकसित की है, कांग्रेस के पास उसका कोई तोड़ नहीं है. लेकिन मई 2019 में हुए आम चुनावों ने एक बार फिर यह मिथक स्थापित कर दिया कि मोदी-शाह की जोड़ी अपराजेय है, उनके सामने विपक्ष की न तो कोई चाल कामयाब हो सकती और न ही विरोधी गठबंधनों की कोई दाल गल सकती. बीजीपी ने 2014 में लोकसभा की 543 सीटों में से 282 सीटें जीती थीं, जो मोदी-शाह की अगुवाई में 2019 में बढ़कर 303 हो गईं और यह कुल सीटों का करीब 56 फीसदी था.
2019 के दौरान बीजेपी नेताओं एवं मंत्रियों के विवादास्पद बयानों और सरकारी नीतियों को फिलहाल एक तरफ रख दें तो उपर्युक्त आकलन बताता है कि 2019 के दौरान बीजेपी केंद्र में जहां बेहद मजबूद हुई है, वहीं राज्यों में बहुत कमजोर पड़ती जा रही है. जहां 2017 में बीजेपी का शासन देश के 71 फीसदी भूभाग पर था वह दिसंबर 2019 में 35 फीसदी तक सिमट गया है. 2019 में अब तक 7 राज्यों में विधानसभा चुनाव हो चुके हैं, जिनमें से कर्नाटक (यहां चुनाव पहले ही हो गए थे लेकिन सियासी उठापटक के बाद अब जेडीएस के कुमारस्वामी के स्थान पर बीजेपी के येदुइरप्पा सीएम हैं) और हरियाणा में तो उसने जैसे-तैसे सरकार बना ली लेकिन ओडिशा उसके हाथ से निकल गया.
आंध्र प्रदेश और सिक्किम में तो बीजेपी का खाता ही नहीं खुल सका था और महाराष्ट्र में वह विपक्ष में बैठने को मजबूर है. हाल ही में झारखंड के मतदाताओं ने भी बीजेपी को राज्य की सत्ता से बेदखल कर दिया. स्थिति यह है कि कर्नाटक और राजस्थान के बाद अब छत्तीसगढ़ में भी बीजेपी स्थानीय निकायों के चुनाव बड़े पैमाने पर हारी है. राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो देश के 15 राज्यों में लोकसभा की 27 सीटों पर उप-चुनाव हो चुके हैं, जिनमें से बीजेपी मात्र पांच सीटों पर ही जीत पाई.
इस साल बीजेपी का अपने सबसे पुराने सहयोगी दलों के साथ आक्रामक रवैया भी पार्टी के उत्कर्ष में एक बड़ी बाधा बनता नजर आया. थोड़ा पहले नजर डालें तो वर्ष 2013 में जब भाजपा ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था तो 29 पार्टियां चुम्बक की तरह एनडीए से चिपक गई थीं. लेकिन 2019 के आम चुनाव से पहले तक शिवसेना के उद्धव ठाकरे, टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू और आरएलएसपी के उपेंद्र कुशवाहा समेत16 पार्टियां एनडीए छोड़ चुकी थीं. इसके साथ-साथ विधानसभा चुनावों से पहले हरियाणा में हरियाणा जनहित कांग्रेस (एचजेसी) और पंजाब में अकाली दल से पार्टी की अनबन सतह पर आ गई थी. इसे बीजेपी की सफलता का मद और सहयोगी दलों को उनका उचित हिस्सा न दिए जाने का परिणाम माना जा सकता है. हाल ही महाराष्ट्र और झारखंड में बीजेपी को मिली चौतरफा शिकस्त के पीछे सहयोगियों के रूठने का बड़ा हाथ रहा है.
अटल जी के जमाने में बीजेपी गठबंधन चलाने वाले कुशल इंजन के तौर पर स्थापित हुई थी लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी ने सख्त और दबंग रुख अपनाने की राह पकड़ ली है. महाराष्ट्र में शिवसेना को झुकाने के चक्कर में उनका पूरा दांव ही उलट गया. कहां तो यह जोड़ी असम, अरुणाचल प्रदेश (सितंबर 2016 में) और गोवा (जुलाई 2019) जैसे राज्यों में अपने पर्याप्त विधायक न होने पर भी सरकार बना लेती थी और कहां स्पष्ट बहुमत के बावजूद महाराष्ट्र में सत्ता गवां बैठी. इसी आक्रामक रवैए के चलते बीजेपी ने झारखंड में सबसे पुरानी सहयोगी आजसू को भाव न देकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली. मात्र छह माह पहले ही 2019 के लोकसभा चुनाव में 55.3% वोट खींच कर राज्य की 14 में से 13 सीटें बीजेपी ने आजसू के साथ मिलकर ही झटकी थीं और विधानसभा चुनाव में वह आजसू को 10-12 से ज्यादा सीटें देने को राजी नहीं हुई.
दबंगई के मामले में भी बीजेपी कांग्रेस को पीछे छोड़ने में जुटी नजर आई. किसी जमाने में इंदिरा गांधी अपने नाम पर माटी के पुतले को भी जिता देने का दम भरती थीं, उसी तर्ज पर मोदी-शाह ने जाट बहुल हरियाणा में खत्री मुख्यमंत्री दोहराया और मराठा प्रभुत्व वाले महाराष्ट्र में ब्राह्मण मुख्यमंत्री दोहराने जा रही थी. भूमि घोटाले और भ्रष्टाचार के मामलों में जेल काट चुके येदुइरप्पा को कर्नाटक का दोबारा मुख्यमंत्री बनाया. नामांकित न भी किया जाए, तो स्वछंदता इस सीमा तक पहुंच गई कि आलोचनाओं की परवाह किए बगैर पार्टी देशद्रोह, हत्या, बलात्कार, अपहरण, हेट स्पीच जैसे अपराधों के दागी उम्मीदवारों को जिताने में भी सभी दलों से आगे रही.
मोदी-शाह का चुनाव प्रचार मॉडल भी 2019 में बिलकुल नहीं बदला, जो लोकसभा चुनावों में तो कारगर साबित हुआ लेकिन राज्यों के स्तर पर काफी हद तक विफल होता नजर आया. आदिवासी बहुल झारखंड में इस जोड़ी ने जल, जंगल, जमीन, किसान-आदिवासियों के अधिकार, ऊर्जा संकट, खनिज-मानव-गोवंश तस्करी, मॉब लिंचिंग जैसे जमीनी मुद्दों को लगभग दरकिनार कर दिया और आम चुनाव के प्रचार की तरह ही अनुच्छेद 370 हटाने, ट्रिपल तलाक के खिलाफ कानून बनाने, देश भर में एनआरसी लागू करने, नक्सलवाद का खात्मा करने, आसमान से ऊंचा राम मंदिर बनाने, सारी समस्याओं का ठीकरा कांग्रेस के सिर पर फोड़ने को अपनी रैलियों का केंद्रीय विषय बना लिया. हिंदू-मुस्लिम का द्वेष उभारने की कोशिश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रचार का आलम यह था कि उन्होंने खुलेआम मंच से कहा, ‘ये जो आग लगा रहे हैं, ये जो तस्वीरें टीवी पर दिखाई जा रही हैं, उन्हें उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है.
बीजेपी की मुख्य कशमकश 2019 में यह रही कि हिंदी पट्टी के राज्यों में विफलता के बाद वह अपने ‘सबका साथ सबका विकास’ नारे के साथ आगे बढ़े या फिर अपने उसी पुराने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद वाली पटरी पर लौट जाए, जिसने उसे केंद्र और राज्यों में शिखर पर पहुंचाया था. पार्टी के सामने यह दुविधा तब और गहरा गई, जब हिंदुत्व के पोस्टर बॉय माने जाने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पिछले साल के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने सबसे बड़े स्टार प्रचारक के रूप में इस्तेमाल किया, मोदी-शाह से भी ज्यादा 74 रैलियों को उन्हीं से संबोधित करवाया, इसके बावजूद पार्टी को हर जगह सत्ताच्युत होना पड़ा. लेकिन संघ परिवार के विहिप जैसे उग्रवादी धड़ों का दबाव पार्टी को मात्र विकास और सर्वसमावेशी एजेंडे पर आगे बढ़ने से रोक रहा था. इसलिए बीजेपी ने विकास और हिंदुत्व व राष्ट्रवाद को आनुपातिक रूप से इस्तेमाल करने की रणनीति पर अमल किया. जाहिर है लोकसभा में जहां पार्टी को इस रणनीति ने बंपर सफलता दिलाई, वहीं राज्यों में यह बैकफायर कर गई.
एनडीए के सहयोगी घटक जेडीयू और एलजेपी बीजेपी के ट्रिपल तलाक, एनसीआर और राम मंदिर जैसे प्रधान मुद्दों पर एकदम उलट राय रखती हैं. झारखंड में तो इन्होंने बीजेपी के खिलाफ खुलकर चुनाव लड़ा है. इसके मद्देनजर नए साल में बीजेपी को हर स्तर पर अपने सहयोगी दलों को साधने, राज्यों में क्षेत्रीय गठबंधन को उचित सम्मान देने तथा राष्ट्रीय व स्थानीय मुद्दों के बीच संतुलन बिठाने की नई रणनीति बनानी होगी.
यह भी संभव है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के केंद्रीय गृह मंत्री बनने के बाद कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए अनुभवी संगठक जेपी नड्डा पूर्णकालिक अध्यक्ष बहाल हो जाएं और किसी नई रणनीति पर अमल करें. दिल्ली और बिहार विधानसभा के 2020 में होने जा रहे चुनाव बीजेपी के लिए सहयोगियों के दम पर राष्ट्रीय नक्शे पर छा जाने का सुनहरी मौका साबित हो सकते हैं.
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