2017 में भारतीय वायु सेना का एक एड आया था, जिसमें एक महिला पायलट केंद्र में थी. एड के वॉयस ओवर में वह कहती है, जो लड़की घर बनाती है, अब घर बचाएगी. लेकिन ताउम्र देश बचाने की जिम्मेदारी महिला सैन्य अधिकारियों को नहीं है, खासकर आर्मी में. वहां वे ज्यादातर कॉम्बैट पदों पर रखी ही नहीं जातीं. हां, जिन फील्ड्स में उन्हें रखा जाता है, उनमें भी वे कुछ ही सालों तक काम कर पाती हैं, जिन्हें शॉर्ट सर्विस कमीशन कहा जाता है. करीब एक साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने आर्मी से कहा था कि वह शॉर्ट सर्विस कमीशन वाली महिलाओं को परमानेंट कमीशन दे. लेकिन फिर भी यह मौका बहुत सी औरतों को नहीं मिला. परमानेंट कमीशन न पाने वाली 17 महिला अधिकारियों ने इस सिलसिले में एक याचिका अदालत में दाखिल की. अब सुप्रीम कोर्ट ने सेना को हिदायत दी है कि वह करीब 650 औरतों को दो महीने के अंदर-अंदर परमानेंट कमीशन दे.


पर यहां खबर सिर्फ इतनी भर नहीं. कोर्ट ने अपने फैसले में जो टिप्पणियां की हैं, वे बहुत खास हैं. कोर्ट ने कहा है कि हमारे समाज को मर्दों ने मर्दों के हिसाब से बनाया है. इसीलिए आर्मी में परमानेंट कमीशन के लिए फिटनेस का जो पैमाना तैयार किया गया है, वह एकदम मनमाना और तर्कहीन है. मर्दों को पांच साल की नौकरी के बाद परमानेंट कमीशन के लिए जिस पैमाने से गुजरना पड़ता है, उसी पैमाने से 15 साल नौकरी कर चुकी महिला अधिकारियों को गुजारना पड़ रहा है. ऐसे में औरतों के लिए उस पैमाने पर खरा उतरना संभव नहीं. नतीजतन बहुत सी औरतों को परमानेंट कमीशन नहीं मिल रहा. अदालत ने इस सिस्टम को दुरुस्त करने की निर्देश दिया है.


दुनिया मर्दों की... उन्होंने अपने हिसाब से ही डिजाइन की है
पुरुष सत्ता के गढ़ में घुसना वैसे भी औरतों के लिए मुश्किल है. जैसा कि अदालत ने भी कहा, यह मर्दों की दुनिया है, और मर्दों के बनाए नियम- पैमाने, मर्दों के हिसाब के ही हैं. वैसे सिर्फ सेना ही नहीं, पुरुष बहुल दूसरे कई क्षेत्रों में भी औरतें अपने वजूद को तलाशती रहती हैं. चूंकि उनकी संरचनाएं पुरुषों के मुताबिक तैयार की जाती हैं. यहां आर्मी के मामले में ऐसा ही हुआ है. फिटनेस का पैमाना पुरुषों को देखते हुए तैयार किया गया है. इस संबंध में 2019 की एक किताब की याद आती है. इस किताब का नाम है, इनविजिबल विमेन: एक्सपोजिंग डेटा बायस इन अ वर्ल्ड डिजाइंड फॉर मेन. इसे कैरोलिन क्रिएडो पेरेज नाम की एक मशहूर ब्रिटिश पत्रकार और एक्टिविस्ट ने लिखा है. इस किताब में बताया गया है कि कैसे औरतें उस दुनिया में अपना रास्ता तलाशती हैं, जिसे मर्दों के लिए ही डिजाइन किया गया है.


है ना हैरानी की बात. जैसे सेना की ही बात करें. सेना के एक्विपमेंट्स मर्दों को नजर में ही रखकर बनाए जाते हैं. उनकी बनावट, और उन्हें चलाने की शैली भी. इस किताब में कई बातों का खुलासा किया गया. जैसे, कार दुर्घटनाओं में औरतों के चोटिल होने की ज्यादा गुंजाइश होती है क्योंकि कार सेफ्टी की डिजाइनिंग औरतों के हिसाब से है ही नहीं. यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जिनिया सेंटर फॉर एप्लाइड बायोमैकेनिक्स स्टडी इस बात की पुष्टि करती है. आईफोन, स्पोर्ट्स के कपड़ों, स्पेससूट्स, इन सभी की डिजाइनिंग भी मर्दों के अनुसार की गई है. इसका एक और बड़ा उदाहरण पीपीई सूट्स में पिछले दिनों नजर आया. कोविड-19 जैसी महामारी से निपटने के लिए महिला हेल्थ प्रोफेशनल्स को जो पीपीई सूट्स दिए गए, वे भी पुरुषों के शरीर के हिसाब से बनाए गए हैं. इन्हें तैयार करते वक्त महिलाओं के शरीर और उनकी शारीरिक जरूरतों को ध्यान में नहीं रखा गया.


कामयाबी की मर्दवादी परिभाषा
न सिर्फ डिजाइनिंग, बल्कि परिवेश भी अपने हिसाब से ही तैयार किए गए हैं. इसीलिए महिलाओं को उन जगहों पर दोहरे भेदभाव का शिकार होना पड़ता है. आर्मी वाले फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को मान्यता दी थी कि बच्चों की देखभाल और घरेलू जिम्मेदारियां औरतों के लिए परिस्थितियों को मुश्किल बनाती हैं. दरअसल यह भी उसी पैमाने का हिस्सा है, जो औरतों के लिए किसी क्षेत्र में अड़चन बनकर उभरता है. कामयाबी की मर्दवादी परिभाषा. अक्सर इन जिम्मेदारियों के साथ किसी क्षेत्र में घुसना भी मुश्किल होता है. प्रवेश के चरण में ही सवालों की झड़ियां इन जिम्मेदारियों को बोझ महसूस कराने लगती हैं. जैसे नौकरियों के इंटरव्यू के दौरान औरतों को अक्सर कई अप्रिय सवालों के जवाब देने पड़ते हैं.


उनकी वैवाहिक स्थिति और गर्भावस्था से संबंधित सवाल पूछे जाते हैं. 2014 में केनरा बैंक की चेन्नई स्थित शाखा के रिक्रूटमेंट फॉर्म में औरतों से उनके आखिरी पीरियड की तारीख के बारे में भी पूछा गया था. इसका तर्क यह दिया गया था कि बैंक महिला की सेहत की सारी जानकारी हासिल करना चाहता है. बाद में मानवाधिकार हनन का मुद्दा उठा, तो बैंक को आनन-फानन में उस फॉर्म को वापस लेना पड़ा. लेकिन यह जरूर है कि नौकरियों से पहले अक्सर कंपनी मालिक आश्वस्त होना चाहते हैं कि महिला भविष्य में अपने जीवन से जुड़ा कोई अहम फैसला नहीं लेने वाली.


यह हर क्षेत्र का हाल है. ऑस्ट्रेलिया के दो स्कॉलर्स नतालिया गैलिया और लुइस चैपल का एक पेपर है- मेल डॉमिनेटेड वर्कप्लेसेज़ एंड द पावर ऑफ मैस्कुलिन प्रिवेलेज. यह पेपर राजनीति और कंस्ट्रक्शन सेक्टर्स में जेंडर्स के बीच तुलना की गई है. पेपर कहता है कि जब पुरुष के प्रभुत्व वाले सेक्टर्स में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी तो जेंडर्स नियमों ने मसले पैदा करने शुरू कर दिए. यह तीन तरह से हुआ. पहले औरतों को नजरंदाज किया गया. फिर, यह बात फैलाई गई कि हमने निष्पक्ष नियम बनाए हैं और सभी को एक से पैमानों से गुजरना होगा. तीसरा, जेंडर के स्टेटस को ज्यों का त्यों रखने के लिए विरोध प्रकट किया गया. दरअसल मर्दों का प्रिविलेज हर क्षेत्र में मर्दों को प्रबल बनाए रखता है, और इसके लिए जरूरी होता है कि औरतों को उन्हीं पैमानों पर तौला जाए.


 वर्कप्लेस का नॉन सेक्सुअल हैरसमेंट
कई साल पहले अपर्णा जैन की किताब ओन इट में कॉरपोरेट वर्ल्ड में औरतों की मौजूदगी को 200 आपबीतियों के जरिए टटोला गया था. इसमें कहा गया था कि वर्कप्लेस में नॉन सेक्सुअल हैरसमेंट बहुत अजीब है. इसमें आपको शारीरिक रूप से नुकसान नहीं पहुंचाया जाता. आपका मनोबल तोड़ा जाता है. इसे माइक्रोएग्रेशन कहा जाता है. यानी जब रोजाना के व्यवहार से किसी की अस्मिता के परखच्चे उड़ाए जाएं.


सुप्रीम कोर्ट ने जो सुझाव दिए हैं, वे ऐसे ही रवैये की तरफ इशारा करता है. दरअसल अब औरतें आजाद हवा में सांस लेने के लिए चारदीवारी से बाहर निकल रही हैं. और उनके आजाद होने के फैसले से ग़ुलाम -संस्कृति के हिमायती घबराए हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने विचाराधारात्मक फितरत पर चोट की है. इसे हम सबको समझना होगा, और इसे बदलना भी होगा.