क्या कुटिल व्यंग्य! दीनता वेदना से अधीर
आशा से जिन का नाम रात–दिन जपती है,
दिल्ली के वे देवता रोज कहते जाते,
कुछ और धरो धीरज, किस्मत अब छपती है.... दिनकर याद आ रहे हैं आज आप.. दर्द से भरा गांव, आंसुओं से गीला गांव, विपत्ति के घेरे में व्याकुल गांव.. रेशमी कलम से तकदीर संवारने वालों के लिए सिर्फ सियासी व्यंग्य बन गया है. आज प्रधान मंत्री जी ने अपने विपक्षी पर जोरदार हमला करने के लिए मुस्कुराते हुए असली गांव का खाका खींचा. बस सियासत इतनी भारी थी कि वह उदाहरण देते वक्त असली दर्द को समझने की कोशिश भी नहीं की.


प्रधानमंत्री ने कहा, ''जिस गांव में पानी की किल्लत होती है और गांव को पता चलता है कि मंगलवार को तीन बजे पानी का टैंकर आने वाला है, तो गांव के भोले-भाले लोग सुबह से अपनी बाल्टी रख देते हैं. सारे गांव वाले एक कतार में अपनी बाल्टी लगा देते हैं. तीन बजे टैंकर आएगा, इसका इंतजार करते हैं. लोग इतने ईमानदार होते हैं कि अपने घर चले जाते हैं. कोई बाल्टी को नहीं छूता. गांव का जो दबंग और सिरफिरा होता है. कानून और लोकतंत्र और नियमों को नहीं मानता है. वह तीन बजे ठीक पहुंच जाता है. यू यूं छाती करके निकलकर आता है. बाकियों की बाल्टी को दूर करके अपनी बाल्टी रख देता है.''


अच्छा सियासी हमला है..होना भी चाहिए.. लेकिन यह उदाहरण दर्दनाक है. सियासत इतनी भारी थी कि इसमें आप रोज पानी की किल्लत से जूझ रहे उन जिन्दगियों के दर्द को नजरअंदाज कर बैठे. अच्छा उदाहरण दिया है तो बताइए प्रधानमंत्री जी पीने के पानी के लिए कब तक लाइन में लगना होगा? रेशमी कालीन पर चहलकदमी करने वाले नये शासक अट्टालिका में अट्टहास करने वाले अफसरों से पूछेंगे, कि भैया.. ये गांव वाले इतने मजबूर क्यों हैं? महज पीने के पानी के लिए कब तक तरसते रहेंगे?


इस भारत का भाग्य-लेख लिखने वाले हमारे भाग्य विधाता हों चाहे चौथा खंभा.. यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान 'देवरिया में खटिया लूट गई'...यह खबर थी.. सियासी उपहास था... मेरे जिले के गरीब लोग इस कदर क्यों मजबूर हैं..बस यह संवेदना गायब थी. आज जब आपने छेड़ दिया तो आपको पिछले चार साल के आंकड़ों की जुबानी हालात बताता हूं. हालांकि.. तेरा मेरा मनुवां कैसे एक होइ रे, मै कहता हौं आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखी.. आंकड़ों की जुबानी बात करना कभी-कभी लूट की मानिंद लगता है जब कोट पैंट वाले अधिकारी रोज शासकों के मुताबिक मनमोहक रूप से इसे जबर्दस्ती हमारे कानों में ठूंस रहे होते हैं..फिर भी आंकड़ें पढ़िए..


ग्रामीण भारत में पानी की कमी के आंकड़े देखें तो गांवों की करीब 24 करोड़ जनसंख्या पीने के पानी की कमी झेल रही है जो कुल ग्रामीण आबादी का 29.09 फीसदी है. कुल गांवों की आबादी का 23.44 फीसदी या करीब 18 करोड़ लोगों को रोजाना 40 लीटर से भी कम पानी मिल पा रहा है. इससे भी भयावह बात ये है कि 5.65 फीसदी या 4.67 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी मुहैया नहीं हो पा रहा है. ये सारे आंकड़े पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय की तरफ से जारी किए हैं.


ग्रामीण इलाकों में घर से बाहर जाकर पानी लाने में जितना समय लगता है उसे जोड़ा जाए तो ये प्रतिव्यक्ति औसतन 20 मिनट के करीब बैठता है. अपने गांव के परिसर से दूर स्थित पानी के स्त्रोत से जाकर पानी लाने के लिए औसतन करीब आधा किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है और देश के 50.2 प्रतिशत लोगों को ये दूरी तय करनी पड़ती है.


एनएसएसओ की 2014 की रिपोर्ट के मुताबिक एक महीने में एक ग्रामीण महिला को घर पानी लाने के लिए औसतन 15 किलोमीटर तक का सफर तय करना पड़ता है. वहीं साल भर में गांव की महिला को घर से पानी लाने के लिए करीब 180 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है.


पानी के मूल स्त्रोत से लेकर पीने के पानी के मिलने के समय को देखा जाए तो गांव के इलाकों में इसके इंतजार का समय 15 मिनट है और शहरी इलाकों में इसका समय 16 मिनट है. ये उस स्थिति में है जब पीने के पानी का स्त्रोत घर से बाहर स्थित हो. हरेक दूसरी ग्रामीण महिला को पानी लाने के लिए साल में 210 घंटे बिताने पड़ते हैं जो साल भर के 27 दिनों के बराबर हैं.और डरावना सच ये है कि प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता लगातार घट रही है.


साल 2001 में सालाना औसत प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता देखें तो ये 1820 क्यूबिक मीटर थी. साल 2011 में सालाना औसत प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता देखें तो ये 1545 क्यूबिक मीटर थी. साल 2025 में सालाना औसत प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता का पूर्वानुमान देखें तो ये घटकर 1341 क्यूबिक मीटर रहने का अनुमान है. साल 2050 में सालाना औसत प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता का पूर्वानुमान देखें तो ये घटकर 1140 क्यूबिक मीटर रहने का अनुमान है. 2012 से 2016 के दौरान जमीन के नीचे कुओं से पानी के जलस्तर में 61 फीसदी की कमी आई है और ये सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड की रिपोर्ट है. भारत इस वक्त पानी के घटते जलस्तर की समस्या से जूझ रहा है. सालाना औसत के तौर पर प्रति व्यक्ति 1000 क्यूबिक मीटर से कम पानी की उपलब्धता पानी की कमी की दशा को दिखाता है. जानकारों की माने तो अभी तक जो आंकड़े सामने आ रहे हैं हालात उससे भी कहीं ज्यादा खराब हैं.


वैसे मुझे कोई शिकायत नहीं है.. आप पर योजनाओं का भार, प्रचार का भार, चुनाव जीतने का भार, फंडिंग का भार, उपलब्धि बताने का भार, विदेशी छवि चमकाने का भार, इकोनॉमी सुधारने का भार, नई योजना के एलान का भार, विपक्ष को खारिज करने का भार, हर मुद्दे के केन्द्र में रहने का भार है.


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(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)