पीएम नरेंद्र मोदी ने केरल के कोझीकोड में जब पाकिस्तान की अवाम का आवाहन किया कि भारत और पाक लड़ने के लिए तैयार हैं लेकिन अपने-अपने मुल्क की ग़रीबी के खिलाफ़, बेरोज़गारी के खिलाफ़, अशिक्षा के खिलाफ़, नवजात शिशुओं की अकाल-मृत्यु के खिलाफ़, तो यह सुनकर दिल बाग़-बाग़ हो गया. पीएम मोदी का चुनाव मोड से बाहर निकलना और देश के शीर्ष नेतृत्व का मार-काट की भाषा से किनारा करना सुखद है. एनडीए सरकार के आंकड़े ही इस बात की गवाही देते हैं कि गुज़रे 2 सालों में जितनी बेरोज़गारी बढ़ी है, उतनी आज़ादी के बाद इतने अल्पकाल में कभी नहीं बढ़ी! जाहिर है गोरक्षा, पिंक रिवोल्यूशन, एक के बदले दर सिर और लव-जिहाद जैसी जुमलेबाज़ी का त्याग करके अशिक्षा, बेरोज़गारी और ग़रीबी के खिलाफ़ जंग छेड़ने की ज़रूरत पाकिस्तान से कहीं ज़्यादा अपने देश में है. अदम गोंडवी का शेर याद आता है- ‘छेड़िए इक जंग मिल-जुल कर ग़रीबी के खिलाफ़, दोस्त मेरे मजहबी नग़्मात को मत छेड़िए.’

लेबर ब्यूरो सर्वे की रपट कहती है कि अप्रैल-जून 2016 के दौरान रोज़गार में काफी कमी आई है. चमड़ा उद्योग में वृद्धि शून्य है. हैंडलूम/पॉवरलूम में 12% नौकरियां कम हुई हैं, ट्रांसपोर्ट में 4%, ऑटोमोबाइल में 18% तथा आभूषण उद्योग में 16% काम घटा है. आठ मुख्य रोज़गार देने वाले उद्योगों में पिछले कुछ सालों में सबसे कम रोज़गार सृजित हुए हैं. सीएमआईई की रपट के मुताबिक जनवरी में बेरोज़गारी की दर 8.72% थी जो अगस्त में बढकर 9.8% पर जा पहुंची है. कुपोषण के आंकड़े तो और भी भयावह हैं.

आबादी का अनुपात देखते हुए बेरोज़गारी के मामले में पाकिस्तान के हालात भारत से भी बदतर हैं. इसके चलते पाकिस्तान के दूसरे रोज़गार सेक्टरों से ज़्यादा रोज़गार तो आतंकवादी सेक्टर सृजित कर ले रहा है जिसकी मजदूरी-बोनस-ग्रेच्युटी कुल मिलाकर मौत है! आल पाकिस्तान टेक्सटाइल मिल्स एसोसिएशन के कार्यकारी महासचिव सलीम सालेह का कहना है कि गुज़रे दो सालों में एसोसिएशन से जुड़ी सौ से ज़्यादा कपड़ा फैक्ट्रियां बंद हो चुकी हैं जिसके नतीजे में करीब 5 लाख लोगों की रोजी-रोटी छिन गई है. इस स्थिति को लेकर लाहौर विश्वविद्यालय के प्रबंधन विज्ञान प्रभाग में अर्थशास्त्र विभाग के मुखिया तूराब हुसैन का आकलन है कि आंतरिक तौर पर बिजली की किल्लत और बाह्य तौर पर घटता निर्यात इसके लिए जिम्मेदार है.

भारत में हुई 2011 की जनगणना के हाल ही में जारी आंकड़े कहते हैं कि करीब 8.4 करोड़ बच्चे स्कूल ही नहीं जाते और 78 लाख बच्चे स्कूल जाने के साथ-साथ मजदूरी करने के लिए मजबूर हैं. राजेश जोशी ने अपनी एक कविता में मासूमों के काम पर जाने की भयावहता को उजागर किया था- ‘बच्चे काम पर जा रहे हैं/ हमारे समय की सबसे भयावह पंक्ति है यह/ भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना/ लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह/ काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?’ लेकिन हम जानते हैं कवि और शासक-वर्ग में ज़मीन-आसमान का फर्क़ होता है.

स्थिति की भयावहता तब और बढ़ जाती है जब हम देखते हैं कि इन बाल श्रमिकों में 6 साल के मासूम भी हैं. 6 से 17 वर्ष की उम्र के काम करने वाले छात्र-छात्राओं में 43 फीसद लड़कियां और 57 फीसद लड़के हैं. चौंकाने वाली बात यह भी है कि जो 8.4 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जाते वे उस श्रेणी का करीब 20 फ़ीसदी हिस्सा हैं जो शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत आता है. अर्थात यहां क़ानून और उसका पालन करने वाली संस्थाएं भी अपना कर्तव्य निभाने में अक्षम साबित हो रही हैं. भारत में बच्चों के कुपोषण का आलम यह है कि इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने पिछले साल अपनी ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट में इसे ‘राष्ट्रीय शर्म’ करार दिया था. यूएन की जनरल असेम्बली में पिछले बुधवार को जारी एक नए हेल्थ इंडेक्स में कहा गया कि 188 देशों की सूची में भारत 143वें स्थान पर है, जो युद्ध से तबाह ईराक और सीरिया से भी काफी नीचे है. भारत इस बात से ज़रूर संतोष कर सकता है कि इस इंडेक्स में वह पाकिस्तान से 6 स्थान ऊपर है.

मौजूदा हालात देखते हुए बिना किसी नुक़्ताचीनी के मोदी जी की राय से इत्तेफाक़ रखा जा सकता है कि दोनों देशों को सचमुच अपनी-अपनी अवाम के केंद्रीय मसले हल करने की लड़ाई लड़नी चाहिए. लेकिन दोनों देशों का शासक-वर्ग क्या सचमुच इसको लेकर गंभीर है? शासक-वर्ग तो अपने यहां की बेरोज़गारी, अशिक्षा, कुपोषण, महंगाई, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, भोजन-बिजली-पानी की किल्लत तथा सामाजिक अस्थिरता के चलते जनता में लगातार बढ़ता असंतोष देख रहा है और इस असंतोष का निशाना बदलने के लिए एक-दूसरे के खिलाफ़ नफ़रत पैदा कर रहा है, हथियार ख़रीद रहा है. यह शासक-वर्ग मात्र अपना हित देखता है. जनता के दुख पर उसका ध्यान तभी जाता है जब उसके ख़ुद के सुख पर चोट पहुंचती है. उन्हें युद्धोन्माद एवं जनाक्रोश शांत करने के लिए सारे नकारात्मक आंकड़ों को सकारात्मक करने के फलदायी क़दम उठाने ही पड़ेंगे.

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