ब्लॉग: प्रेम पुजारी नीरज को सदियां भी भुला नहीं पाएंगी
मुझे बरसों पहले के लाल किले के अन्दर होने वाले वे कवि सम्मलेन आज भी अच्छे से याद हैं जब कवि नीरज को सुनने के लिए हम रात 3 बजे तक बैठे रहते थे. गणतंत्र दिवस के मौके पर होने वाले लाल किले के उन ऐतिहासिक कवि सम्मलेन में एक से एक कवि मौजूद रहते थे. लेकिन जनवरी की सर्दी की ठिठुरती रातों में यदि कोई देर रात या तड़के तक रोके रखता था तो वह थे नीरज. आयोजक यह बात भलीभांति जानते थे कि यदि कवि सम्मलेन के मध्य में नीरज का कविता पाठ करा दिया तो उसके बाद कवि सम्मलेन उखड़ जाएगा और वहां बैठे श्रोता धीरे धीरे वहां से खिसक लेंगे. इसलिए नीरज का नंबर अंत में आता था और उन्हें सुनने के लिए लोग घंटों बैठे रहते थे. नीरज जब झूम कर अपने चिरपरिचित अंदाज़ में अपनी कवितायें, अपने गीत सुनाते थे तो समां कुछ पल के लिए ठहर सा जाता था. उनकी हर दूसरी पंक्ति पर वाह वाह, बहुत खूब, वाह क्या बात है, ओह हो से लेकर इरशाद और वन्स मोर तक न जाने कितने ही शब्द गूंजने लगते थे. और करीब करीब यही हाल उनके अन्य सभी कवि सम्मलेन में भी रहता था.
लाल किले के इस ख़ास कवि सम्मलेन की ख़ास बात यह थी कि इसमें अधिकतर कवि अपनी नयी रचनाएं पहली बार यहां ही पढ़ते थे. फिर देश भक्ति और देश के हालात आदि पर भी कुछ कवितायें यहां प्रस्तुत की जाती थीं. लेकिन नीरज के साथ यह होता था कि उनकी नयी रचना के साथ उनसे उनकी पुरानी रचनाओं को सुनाने का भी अनुरोध बराबर होता था. ‘कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे’ जैसे उनके गीत की मांग तो उनके लगभग हर कवि सम्मलेन में रहती थी. लेकिन अब नीरज के निधन के बाद उनकी कविताओं और उनके गीतों का कारवाँ थम गया है. उनके कवि सम्मेलनों की ऐसी अनूठी यादें अब इतिहास बन गयी हैं.
हालांकि उनके अमर गीत हमेशा पढ़े जाते रहेंगे, गाये- गुनगुनाये जाते रहेंगे, उन्हें हम यूँ ही याद करते रहेंगे, वीडियो में उन्हें देखते-सुनते रहेंगे. लेकिन नयी पीढ़ी जब भी नीरज के बारे में जानेगी, उन्हें सुनेगी तो निश्चय ही उन सौभाग्यशाली लोगों पर गर्व करेगी, ईर्ष्या करेगी जिन्होंने नीरज को रूबरू सुना, देखा और उनसे बात की.
फिल्मों में भी आते ही छा गए
नीरज ने एक कवि होते हुए अपनी रचनाओं से तो जन जन पर प्रभाव छोड़ा ही. उनकी कवितायें पुस्तकों या पत्रिकाओं में प्रकाशित हुयीं या नीरज ने मंच पर उन्हें स्वयं प्रस्तुत किया, सभी जगह उनके शब्दों, उनकी भाषा का जादू ऐसे चला कि वरिष्ठ से वरिष्ठ कवि भी दंग रह गए. साथ ही जब उनकी कवितायें गीत बनकर सिनेमा के रुपहले परदे पर आयीं तो वहां भी उन्होंने सफलता-लोकप्रियता का नया इतिहास लिख दिया. नीरज के गीतों में यूँ हिंदी के बहुत से ऐसे शब्द थे जिन्हें उनसे पहले फिल्म गीतों में प्रयोग करने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था. लेकिन वे मुश्किल और कठिन माने वाले शब्द नीरज ने अपने गीतों में ऐसे पिरोये की वे गीत लोगों के दिल-ओ-दिमाग में सीधे ही घर कर गए. इससे हिंदी और हिंदी सिनेमा दोनों को एक नया शिखर मिला. उनके ज्यादातर गीत आज भी काफी लोकप्रिय हैं. जिनमें कन्या दान, प्रेम पुजारी, शर्मीली, गेम्बलर, तेरे मेरे सपने जैसी फिल्मों के गीत- “लिखे जो ख़त तुझे, रंगीला रे, शोखियों में घोला जाए, जीवन की बगिया महकेगी, खिलते है गुल यहाँ, ताकत वतन की हमसे है, मेधा छाये आधी रात, दिल आज शायर और आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन,” जैसे गीत भारतीय सिनेमा के संगीत की आत्मा बन चुके हैं. हालांकि नीरज का बतौर फिल्म गीतकार का सफ़र काफी छोटा रहा. लेकिन अपने करीब 7 वर्ष के छोटे से सफ़र में अपने करीब 100 गीतों से ही वह इतना बड़ा काम कर गए कि कुछ गीतकार तो हजारों गीतों में वह नहीं कर सकते. बतौर गीतकार उनकी लोकप्रियता कैसी थी इस बात की मिसाल इससे भी मिलती है कि नीरज को उनके लिखे गीतों के लिए लगातार तीन वर्ष तक सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फिल्मफेयर पुरस्कार मिलता रहा. ये गीत थे, फिल्म ‘चंदा और बिजली’ का गीत- काल का पहिया (1970),फिल्म ‘पहचान’ का गीत – बस यही अपराध में हर बार करता हूँ (1971) और फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ का गीत- ए भाई ज़रा देखके चलो’(1972). यह अपने आप में एक अद्दभुत कीर्तिमान है कि मात्र सात साल की फिल्म यात्रा में, तीन बरस तक लगातार फिल्मफेयर जैसा शिखर सम्मान.
नीरज को सम्मानित करने का सपना रह गया अधूरा
नीरज जी अपनी 93 बरस की उम्र में भी काफी सक्रिय थे. इन दिनों वह कभी अपने पुराने घर अलीगढ में रहते थे तो कभी अपने बेटे शशांक प्रभाकर के पास आगरा या कभी अपने बेटे मृगांक प्रभाकर के पास दिल्ली भी आ जाते थे. पिछले वर्ष अखिलेश यादव की सरकार के समय तक वह लखनऊ के गोमती नगर के अपने उस सरकारी आवास में भी वह कभी कभी रहते थे, जो आवास अखिलेश सरकार ने उन्हें उत्तर प्रदेश में मंत्री का दर्ज़ा देकर आवंटित किया था. पिछले वर्ष मेरी उनसे उन्हीं दिनों में फ़ोन पर बात हुयी तो वह काफी प्रसन्न थे. मेरी लम्बे समय से इच्छा थी कि नीरज जी को उनकी असाधारण उपलब्धियों और अविस्मर्णीय योगदान के लिए दिल्ली में अपनी लेखकों, पत्रकारों और कलाकारों की संस्था ‘आधारशिला’ की ओर से सम्मानित किया जाए. मैंने उनसे पूछा आपका स्वास्थ्य कैसा है, हम आपको दिल्ली बुलाकर ‘आधारशिला शिखर सम्मान’ से सम्मानित करना चाहते हैं. यूँ मुझे लगा था कि पदमश्री, पदमभूषण और यशभारती जैसे सम्मान पा चुके नीरज कहीं इस उम्र और खराब सेहत के कारण वह मना तो नहीं कर देंगे. लेकिन वह मुझसे बोले - “आप जब यह कार्यक्रम करना चाहें, बता दें. मैं उस हिसाब से कार्यक्रम बनाकर दिल्ली आ जाऊँगा. मेरे लिए गाड़ी भेजने की भी जरुरत नहीं है, यूपी सरकार ने मुझे गाड़ी भी दी हुयी है.” उनसे तब और भी बातें होती रहीं, उनकी जुबान बोलते हुए जरुर कुछ लड़खड़ा जाती थी, जिससे कुछ शब्द कभी समझ नहीं आते थे. अन्यथा उनकी सोच समझ में कोई कमी नहीं लगती थी. हालांकि उन्हें सम्मानित करने का हमारा सपना अधूरा रह गया. इस सम्बन्ध में उनके पुत्र मृगांक के साथ भी पिछले काफी समय से योजना बन रही थी, लेकिन बीच बीच में उनके स्वास्थ्य की चिंता और अनिश्चतता के चलते यह संभव नहीं हो सका. जारी था पढने-लिखने, मिलने-जुलने का सिलसिला, सुबह 6 बजे उठ जाते थे
इस युग के महान कवि और गीतकार की दुनिया सिर्फ अपने काव्य संसार तक सीमित नहीं थी. बरसों से उन्हें पढने लिखने या लोगों से मिलने जुलने की जो आदत थी, वह अभी तक बरकरार थी. उनके पुत्र मृगांक प्रभाकर बताते हैं –“ बाबूजी अभी भी सुबह 6 से 7 बजे के बीच उठ जाते थे. सुबह उठकर पहले चाय पीने के साथ वह करीब 2 घंटे तक अख़बार आदि पढ़ते थे. फिर 9 बजे कुछ फल या हल्का नाश्ता करने के बाद, एक बजे के करीब एक रोटी खाते थे. फिर टीवी देखते थे, जिसमें समाचार ही ज्यादा देखते थे. यहाँ तक वह घर के सभी बच्चों को न्यूज़ चैनल देखने के लिए जरुर कहते थे कि समाचार जरुर देखा करो. टीवी देखने के बाद उनका मन कुछ लिखने का होता था. तब वह कुछ लिखते थे. यहाँ तक जब कभी वह खुद लिखने में कुछ तकलीफ महसूस करते थे तो हमको बोलते थे ये लाइन लिखो. हमारे पास न होने पर वह कभी तो हमको फ़ोन पर भी अपने मन में आई पंक्तियों को नोट करा देते थे.”
नीरज जी का अपने जीवन में यूं तो देश के कई शहरों से ख़ास नाता रहा जिनमें इटावा, एटा, दिल्ली, कानपुर, अलीगढ़, आगरा, लखनऊ, इंदौर और मुंबई प्रमुख हैं. लेकिन उनका अधिकतर निवास अलीगढ़ ही रहा. यहां तक अलीगढ़ को नीरज के शहर के रूप में भी जाना जाता है. अलीगढ़ के डीएस कॉलेज में वह हिदी के प्राध्यापक भी रहे. इसलिए यहां उनके दोस्त बहुत थे और अक्सर शाम को उनके कुछ दोस्त उनके घर आकर महफ़िल जमाते थे, जहां ताश के पत्ते भी खूब खेले जाते थे. उसके बाद करीब 10 बजे नीरज जी सोने चले जाते थे.
नहाते हुए गिरने के बाद हालत हुयी नाज़ुक
सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था. कुछ न कुछ स्वास्थ्य की समस्याएं नीरज जी को किशोरावस्था के दिनों से थीं. इसलिए अब उनकी खराब सेहत कभी ज्यादा चिंता का सबब नहीं बनती थी और लगता था कि वह अपना जीवन शतक पूरा करेंगे. लेकिन कुछ दिन पहले ही वह अपने घर आगरा गए थे. कुछ दिन पहले अपनी यशभारती पेंशन रोके जाने के सिलसिले में वह लखनऊ जाकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित कुछ अन्य लोगों से भी मिले थे. पिछले एक वर्ष से अपनी 50 हज़ार रूपये मासिक की पेंशन रुकने के कारण वह दुखी थे. आगरा के बाद वह अब जल्द अलीगढ लौटकर 2 अगस्त को एक कवि सम्मलेन के लिए दिल्ली आने वाले थे. लेकिन 17 जुलाई को आगरा के अपने घर में वह नहाते हुए गिर गए. उनके पुत्र मृगांक प्रभाकर उस समय आगरा में ही घर पर थे. प्रभाकर बताते हैं- मैं तभी बाबूजी को बाथरूम से उठाकर बाहर ले आया. तब पास के एक अस्पताल ले गया तो उन्होंने देखा बाबूजी का ब्लडप्रेशर काफी नीचे जा रहा है. उन्होंने मुझे बड़े अस्पताल ले जाने की सलाह दी तो मैं उन्हें लोटस अस्पताल ले गया. वहां उनका ब्लडप्रेशर सामान्य भी हो गया. लेकिन पिछले कुछ दिनों में ब्लडप्रेशर की यह समस्या जल्दी जल्दी दो चार बार हो गयी थी. साथ ही उनके सीने में संक्रमण का अंदेशा था. तब दिल्ली में एम्स में बात की तो उन्हें दिल्ली लाने का कार्यक्रम बना. हम और हमारी बहन कुंदनिका शर्मा, आगरा से आधुनिक एम्बुलेंस में वेंटिलेटर पर उन्हें लेकर 18 जुलाई रात को करीब साढ़े 9 बजे दिल्ली एम्स पहुंचे. यहां सभी डॉक्टर्स ने भरसक परिश्रम किया लेकिन उनका ब्लडप्रेशर नीचे 20 तक पहुँच गया और 19 जुलाई को शाम 7 बजकर 22 मिनट पर नीरज जी ने यह शरीर छोड़ दिया.
बहुत कुछ लिखा जीवन-मरण पर भी
उत्तर प्रदेश इटावा के पुरावली में 4 जनवरी 1925 में जन्मे गोपालदास सक्सेना का जीवन बचपन से ही इतना संघर्षपूर्ण और कष्टमय रहा कि उन्होंने बहुत छोटी उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था. जब गोपालदास 6 वर्ष के थे तभी इनके पिता ब्रिज किशोर का निधन हो गया. तब इनकी बुआ और फूफा वकील हरदयाल प्रसाद इन्हें अपने साथ एटा ले गए और उन्होंने ही इन्हें और इनके पूरे परिवार का पोषण व्यय उठाया. हालांकि एटा जाने पर गोपाल अपनी मां से भी करीब 11 वर्ष तक दूर रहने को मजबूर हुए. इस सबके वावजूद सन 1942 में गोपालदास हाई स्कूल में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए. इससे पहले अपनी हाई स्कूल की पढाई के दौरान ही गोपाल का एक युवती से प्रेम और फिर जल्द ही उससे सम्बन्ध विच्छेद हो गया. इस घटना से गोपालदास के भीतर का कवि अंकुरित हुआ और मई 1942 में उन्होंने पूरी तरह कविता लिखना शुरू कर दिया. उसके बाद नवम्बर 1942 में अपने जीवन के 18 वर्ष पूरे करने से दो महीने पहले ही इनकी दिल्ली में आपूर्ति विभाग में टाईपिस्ट की नौकरी भी मिल गयी. उसके बाद धीरे धीरे गोपालदास, कवि नीरज बन गए. अपने व्यवस्थित और श्रेष्ठ काव्य का श्रेय नीरज उस दौर के महाकवि डॉ हरिवंश राय बच्चन को देते थे. नीरज बताते थे- कविता क्या होती है यह मुझे तब पता लगा जब मैंने एक दिन बच्चन जी की काव्य रचना ‘निशा निमंत्रण’ पढ़ी. तब मुझे कविता के साथ भाषा का भी ज्ञान हुआ.” नीरज जी ने बच्चन जी से प्रभावित होकर सन 1944 में अपनी पहली पुस्तक ‘संघर्ष’ लिखी और इसे बच्चन जी को ही समर्पित किया. उसके बाद नीरज जी का काव्य कारवां चल निकला. कुछ वर्ष बाद जब नीरज का ‘कारवां गुजर गया’ गीत आया तो इनकी ख्याति काफी बढ़ गयी. बाद में उनके इसी गीत को केंद्र में रखकर फिल्मकार आर चंद्रा ने अपनी फिल्म ‘नयी उम्र की नयी फसल’ बनायीं तो संगीतकार रोशन ने ‘कारवां गुजर गया’ को रफ़ी के सुर दिलाये तो यह एक अमर गीत बन गया. इस गीत में भी कवि नीरज की जिंदगी और मौत को लेकर जो दार्शनिकता अपने काव्य में उतारी है वह अनुपम है, बेमिसाल है- स्वपन झरे फूल से, मीत चुभे शूल से, लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से, और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे, कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे.
इसके अलावा नीरज ने बरसों पहले एक मृत्यु गीत भी लिखा था. जो इतना मशहूर हुआ कि नीरज जब उसे सुनाते थे तो लोग और खासकर महिलायें बिलख बिलख कर रो पड़ती थीं. उनकी मौत पर एक और रचना है -“कफ़न बढ़ा तो किस लिए नज़र तू डबडबा गयी,सिंगार क्यों सहम गया बहार क्यों लजा गयी,न जन्म कुछ न मृत्यु कुछ बस इतनी सिर्फ बात है, किसी की आंख खुल गयी, किसी को नींद आ गयी.”
देह दान कर गए, नहीं होगा अंतिम संस्कार
नीरज जी को भी अब नींद आ गयी है. वह चिर निंद्रा में चले गए हैं. दुनिया से रुखसत लेते हुए वह एक और नेक काम कर गए हैं. उनके पुत्र मृगांक प्रभाकर बताते हैं कि कुछ समय पहले ही नीरज जी ने स्वयं अपने देह को एक सामजिक संस्था ‘कर्त्तव्य’ के माध्यम से अलीगढ के जे एल एन मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया था. इससे उनकी पूरी देह और सभी अंगों को चिकित्सा और जरुरतमंदों के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा. इस कारण डॉक्टर्स 20 जुलाई को इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए उचित कार्यवाही करेंगे. उसके बाद 21 जुलाई सुबह नीरज जी के पार्थिव शरीर को लेकर हम आगरा जायेंगे. जहां दोपहर तक उनका पार्थिव शरीर लोगों के दर्शनार्थ रखा जाएगा. उसके पश्चात उनकी शव यात्रा अलीगढ़ के लिए रवाना होगी और वहां भी हमारे घर में शाम तक उन्हें दर्शनार्थ रखा जाएगा. उसके बाद उनकी देह को ‘कर्तव्य’ संस्था को सुपुर्द कर दिया जाएगा. इसलिए उनका अंतिम संस्कार आदि नहीं होगा. लेकिन उनकी स्मृति में अलीगढ और आगरा दोनों स्थान पर जल्द ही एक सभा अवश्य रखी जायेगी.
सदियां भी नहीं भुला पाएंगी इस प्रेम पुजारी को
नीरज जी ने देह दान करते समय कहा था- “देह से बढ़कर कोई दान नहीं. देह मिटटी है मिटटी में मिल जाती है, इससे मोह नहीं करना चाहिए. यह देह दान करने से बहुतों के काम तो आएगी ही साथ ही मरने के बाद भी आप किसी की स्मृतियों में जीवित रह सकते हैं.”
हालांकि यहाँ नीरज के गीत और उनकी कवितायें आदि ही इतनी सशक्त और लोकप्रिय हैं कि उनकी स्मृति सदियों तक बनी रहेगी. नीरज ने काव्य जगत के साथ फिल्म संसार को भी अपनी रचनाओं के माध्यम से प्रेम और श्रृंगार को जो नए रूप और जो नए शिखर दिए हैं, उससे ‘प्रेम पुजारी’ नीरज सदा के लिए अमर हो गए. नीरज जी ने एक बार लिखा था – “कहानी बनके जिए हम तो इस जमाने में, लगेंगी आपको सदियां हमें भूलाने में.” लेकिन नीरज जी मुझे तो लगता है कि सदियां भी आपको भुला नहीं पाएंगी.
लेखक से ट्विटर पर जुड़ने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/pradeepsardana और फेसबुक पर जुड़ने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/pradeep.sardana.1 नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.