'समाजवादी पार्टी प्राइवेट लिमिटेड' में पॉवर पॉलिटिक्स की पूरी फिल्मी कहानी आजकल सबका मनोरंजन कर रही है. सियासत का इतना घटिया रूप मैंने अपने छोटे से जीवन में कभी नहीं देखा था. हां.. छोटा ही सही लेकिन ऐसे फिल्मी प्रोमो हम दक्षिण में डीएमके और चंद्रबाबू नायडू के परिवार में भी देख चुके हैं. वंशवाद की अजगरी बेल ने पूरे लोकतंत्र को अपने जबड़े में जकड़ रखा है. मुझे यह कहने में अब थोड़ी भी हिचक नहीं है.


भारतीय लोकतंत्र में सड़ांध फैलाने वाले वंशवाद की एक झलक आपको दिखाता हूं. पूरब में पटनायक परिवार, पश्चिम में..ठाकरे परिवार, शरद पवार परिवार..उत्तर में..मुलायम परिवार, लालू परिवार...दक्षिण में करूणानिधि.. देश की सियासत में सबसे मजबूत गांधी परिवार. बताने के लिए तो लिस्ट बहुत बड़ी है. ये वैसे उदाहरण हैं जिनकी पार्टी ही परिवार है और परिवार ही पार्टी है.

जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने राजनीति में परिवारवाद की शुरूआत की थी और अपने जीवन काल में ही अपनी बेटी इंदिरा गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनवा दिया तब राम मनोहर लोहिया ने मर्माहत होकर कहा था कि देश की आजादी का मूख्य उद्देश्य अब शायद ही पूरा हो. अब कांग्रेस नेहरू परिवार की जागीर बन जाएगी. उनकी भविष्यवाणी सत्य हुई. आज कांग्रेस, नेहरू परिवार जो कि अब 'गांधी परिवार' के रूप में बदल गया है, उसकी जागीर बन कर रह गयी है. यही आलम आज दूसरी कई क्षेत्रीय पार्टियों का भी है. उत्तर प्रदेश में जो पारिवारिक लड़ाई पार्टी की लड़ाई बन कर चल रही है. वह अपवाद नहीं है. परिवार में विरासत की लड़ाई स्वभाविक है. दुखद यहां यह है कि कुछ 'निरा मूर्ख' इन दलों में सेक्यूलरिज्म और समाजवाद देखते हैं.

ऐसे मौकों पर मेरा दुखद दिल चित्कार कर कहता है कि परिवारवाद ने लोकतंत्र को सामंती बना दिया है. आलम ये है कि कई परिवारिक पार्टियों में पहली, दूसरी और अब तीसरी पीढ़ी राजनीति में उतर आयी है. आम जनता जब विचारधारा से परे होकर ऐसे सामंती परिवारों को ताज पहनाती है तो मेरा पूरा हक है कि इस लोकतंत्र को भीड़तंत्र की मुहर पर चलने से रोकने की कोशिश करूं. आज लोहिया की आत्मा रो रही होगी. इस फैमली ड्रामे पर ही नहीं..अपने चेलों को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी चलाते देखकर. लोहिया के चेले मुलायम सिंह यादव, राम विलास पासवान और लालू प्रसाद लोहिया के रास्ते पर चलते हुए परिवारवाद के विरोध की राजनीति से ही पनपे. लेकिन आज ये परिवारवाद के सबसे बड़े उदाहरण हैं. यह सोचकर भविष्य को इतिहास के इस घटना से घिन आएगी कि लोहिया के रास्ते बिहार पर सालों तक राज करने वाले लालू जब जेल गये तो अपने पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिये.

यूपी में अब ‘सेवक’ से ‘स्वामी’ की मुद्रा में आने के लिए बेटे ने अपने पिता की 'संपत्ति' पर दमदारी से दावा ठोक दिया है. यूं समझिए 'संपत्ति' हड़प चुका है, कुछ सियासी दांवपेंच के माहिर लोगों की मानें तो सब मुलायम का सियासी शतरंज पर बिछी चाल है अपने बेटे को विरासत परिवार में निर्विवाद सौंपने की. जम्हूरियत की आंखें उम्मीदबर हैं और दिल बेचैन. जुबां खामोश है, पर जेहन में सवालों का शोर है. क्या यही समाजवाद है?

आज तमाम आरोप और विवाद का ढिंढोरा आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ पीटें लेकिन वंशवादी बेल से अपनी खुद की पार्टी को भी मुक्त रखने के लिए उनकी व्यक्तिगत तारीफ तो करनी ही होगी. एक पत्रिका में मैंने उनके पूरे परिवार के विषय में पढ़ा. आप चौंक जाएंगे ये जानकर कि सभी अनजान सी जिंदगी जी रहे हैं. जहां तक मुझे याद है या जैसा कि मैंने अभी तक देखा सुना या पढ़ा है. पीएम मोदी इकलौते प्रधानमंत्री हैं जिनके परिवार का कोई भी सदस्य प्रधानमंत्री आवास में नहीं रहता है. शायद पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम साहब के भी परिवार का कोई सदस्य राष्ट्रपति भवन में नहीं रहता था. मैं तो उस परिवार की भी तारीफ करता हूं जो इतनी समझ रखता है कि वे मोदी के परिजन हैं किसी प्रधानमंत्री के नहीं. वर्तमान सियासत में ऐसा संतुलन दर्शनीय है, अकल्पनीय है, अद्भुत है. ऐसा नहीं है कि बीजेपी में परिवारवाद को बढ़ावा देने वाले नेताओं की कमी है. लेकिन पीएम मोदी की इस बात के लिए आप तारीफ करेंगे कि वह यहां भी वंशवाद को पनपने नहीं दिये. काफी अंकुश लगाये हुए हैं.

मुझे सिर्फ यूपी के समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं से एक सवाल करना है. क्या समाजवादी पार्टी के इस चेहरे में आपको किसी राजवंश में राजगद्दी की लड़ाई नहीं दिख रही है? अब यूपी के आम लोगों से मुझे कुछ कहना है. दस रुपए का बल्ब भी खरीदते हैं तो दुकानदार से आप पूछते हैं कि दो तीन महीने चलने की गारंटी तो है ना? तो क्या पांच साल के लिए जिसे आप अपना विधायक चुनने वाले हैं, क्या उससे कभी पूछा है कि मेरे बेटे को रोजगार मिलेगा कि नहीं, गली मोहल्ले की सड़कें बनेंगी कि नहीं ? क्या वोट मांगने आए नेता से आप पूछते हैं कि हमारी मां, बहन, बेटी की सुरक्षा की गारंटी वो देगा ?

प्रत्याशी अपना हलफनामा चुनाव आयोग को देते हैं. क्यों नहीं इस बार आप अपने प्रत्याशी से पूछते कि वादों का एक हलफनामा हमको भी दो. क्यों नहीं देश में ऐसा नियम बनता जिसके आधार पर ये तय रहे कि अगर कोई प्रत्याशी या पार्टी जीतने के बाद जनता से किए गए वादों को पचास फीसदी पूरा ना कर पाए तो उसे दोबारा चुनाव लड़ने का अधिकार ना हो. एक बार सोचिएगा जरूर.. सोचने में ना कोई खर्च है ना ही कोई पाबंदी. बस सोचते समय अपने चश्मे को उतार कर रख दीजिएगा.

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