जैसे ही खबर आई कि भारत के पूर्व राष्ट्रपति और कई दशकों तक कांग्रेस की विचारधारा के झंडाबरदार रहे प्रणब मुखर्जी आरएसएस के 7 जून को होने जा रहे वार्षिक दीक्षांत कार्यक्रम में शामिल होने को मंजूरी दे चुके हैं, राजनीतिक गलियारों में खलबली मच गई. कांग्रेस के भीतर बेचैनी बढ़ना तो स्वाभाविक ही था, लेकिन भाजपा विरोधी अन्य दल भी अब तक इस घटनाक्रम पर भारी आश्चर्य में डूबे हुए हैं कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष विचारधारा में पगे प्रणब दा का आरएसएस की हिंदुत्व वाली सांप्रदायिक विचारधारा के मंच पर समागम भला कैसे हो सकता है!


मीडिया में चहुंओर टिप्पणियां छाने लगीं कि आरएसएस का मंच साझा करने की स्वीकृति देकर प्रणब दा ने अच्छा नहीं किया. लोग यह भी भूल गए कि नैतिक और संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति अथवा पूर्व राष्ट्रपति पूरे देश का होता है, किसी दल विशेष का नेता नहीं. इसीलिए मैं उल्टा घुमाकर प्रश्न करता हूं कि भारत का सर्वोच्च संवैधानिक पद संभालने अर्थात पूर्व राष्ट्रपति होने के नाते अगर प्रणब दा आरएसएस के आमंत्रण को ठुकरा देते तो भारत की जनता, यहां की लोकतांत्रिक परंपरा और देश-विदेश के लिए क्या संदेश जाता? यही न कि भारत का पूर्व राष्ट्रपति भी आरएसएस को ‘अछूत’ समझता है!


तय हो चुका है कि प्रणब दा नागपुर के रेशीमबाग मैदान पर आयोजित होने जा रहे संघ के तृतीय वर्ष शिक्षा वर्ग समापन समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित होंगे. लेकिन कार्यक्रम से पूर्व प्रणब दा की चुप्पी यही संदेश दे रही है कि आरएसएस के साथ मंच साझा करना कोई अलोकतांत्रिक अथवा असंवैधानिक गतिविधि नहीं है. हालांकि यह भी स्पष्ट है कि कांग्रेस में रहते हुए प्रणब दा जिस तरह से संघ की तीखी आलोचना किया करते थे, वह उस मंच से संभव नहीं होगा. हां, सरसंघचालक मोहन भागवत समेत संघ के मौजूदा नेतृत्व के बीच संघ के सामाजिक कार्यों की सराहना करते हुए वहां से सामाजिक समरसता का गोलमोल पाठ जरूर पढ़ाया जा सकता है, जिसका पूर्णकालिक प्रचारक बनने की कगार पर खड़े स्वयंसेवकों पर उतना भी असर नहीं होगा, जितना कि किसी चिकने घड़े पर पानी पड़ने का होता है.


पूर्व राष्ट्रपति होने के नाते प्रणब दा का स्टैंड समझ में आता है, लेकिन संघ के सर्वसमावेशी होने का दावा करने वाले भाजपा नेता और स्वयंसेवक दलीलें दे रहे हैं कि उनके शिविरों में कभी महात्मा गांधी और बाबासाहेब आम्बेडकर जैसे महान लोग भी पहुंचे थे. पिछले कुछ वर्षों में दलित नेता रासु गवई, वामपंथी विचारक कृष्ण अय्यर और आप नेता आशुतोष के कार्यक्रमों में शिरकत करने को संघ की सहिष्णु छवि का सबूत बताया जा रहा है. लेकिन संविधान को अक्षुण्ण बनाए रखने में भरोसा करने वाले चिंतित हैं, क्योंकि आरएसएस की विचारधारा को मानने वाले संविधान का वर्तमान स्वरूप बदल देने को लेकर बयानबाजी करते रहते हैं. संविधान में उल्लिखित धर्मनिरपेक्षता शब्द से उन्हें विशेष चिढ़ है.


हो सकता है कि पूर्व राष्ट्रपति भारत की धर्मनिरपेक्ष परंपरा पर वहां कुछ बोलें, राष्ट्रवाद और देशभक्ति का फर्क समझाएं. संविधान की महानता पर कुछ प्रकाश डालें. आखिरकार इंदिरा गांधी का युग समाप्त होने के बाद यह प्रणब दा ही थे जो संसदीय नियमों और परंपराओं की बारीक जानकारी रखते थे और नए-पुराने सांसदों को सिखाने के लिए उनके लेक्चर भी हुआ करते थे. प्रणब दा भले ही किसी जन-आंदोलन से निकले नेता न रहे हों, पर एक बेहतरीन सांसद तो वह थे ही. लेकिन बंगाली कार्ड खेलने के इरादे से भाजपा इधर यह प्रचारित करती फिरती है कि कांग्रेस ने प्रणब दा के साथ न्याय नहीं किया क्योंकि वह पीएम मटेरियल थे और कांग्रेस ने उन्हें अवसर नहीं दिया, वरना वह पीवी नरसिम्हा राव या डॉ. मनमोहन सिंह से बेहतर पीएम होते.


इसके पहले गुजराती कार्ड खेलने के लिए आरएसएस की प्रचार मशीनरी यह फैलाती रही है कि कांग्रेस ने सरदार पटेल के साथ न्याय नहीं किया, वरना सरदार पटेल पंडित नेहरू से बेहतर पीएम होते. पहले यही काम उसने बंगालियों की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस को लेकर किया था. जबकि पूरा देश जानता है कि सरदार पटेल तहेदिल से कांग्रेसी थे और देश के पहले उप-प्रधानमंत्री बनाए गए थे. सुभाष बाबू ने तो आजाद हिंद फौज की दो वाहिनियों का नाम ही गांधी और नेहरू वाहिनी रखा था और हिंदू महासभा के नेता तथा भाजपा के आराध्य डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पश्चिम बंगाल में होने वाली सभाओं का तीखा विरोध किया करते थे. प्रणब दा को हमेशा भारी-भरकम मंत्रालय देने के बाद कांग्रेस ने उन्हें राष्ट्रपति तक बना दिया. लेकिन आरएसएस और भाजपा आज भी यही प्रचारित कर रही है कि इन सबके साथ अन्याय हुआ है. इसलिए भी प्रणब दा को मिले इस आमंत्रण को लेकर शंकाएं व्यक्त की जा रही हैं.


दरअसल संघ अपने धुरविरोधी प्रतिष्ठित व्यक्तियों को निमंत्रित करके अपनी विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा बढ़ाने की हमेशा कोशिश करता रहा है. गांधी जी, सरदार पटेल, नेहरू जी और इंदिरा जी ने संघ के बारे में क्या कहा, इसे छुपाकर वह खुद पर बार-बार लगे प्रतिबंध हटाए जाने, भारतीय सेना की मदद करने, अनुशासन और सादगी तथा अपनी समाजसेवा की तारीफ किए जाने, गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होने का न्यौता मिलने आदि को हाईलाइट करता रहता है. तेज-तर्रार पत्रकार अरुण शौरी जब भाजपा के सदस्य और केंद्रीय मंत्री नहीं बने थे तब विजयादशमी के अवसर पर आरएसएस ने उनका नागपुर में भाषण कराया था और उसका इस्तेमाल अपनी छवि चमकाने में किया था. आशंका यही है कि प्रणब दा के संबोधन को भी कहीं इसी काम में न इस्तेमाल कर लिया जाए. हालांकि यह इस बात पर पूरी तरह निर्भर करेगा कि पूर्व राष्ट्रपति वहां बोलते क्या हैं.


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