भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा प्रेस कांफ्रेंस करके घोषणा करने तक शायद ही किसी को अंदाजा था कि बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद एनडीए की तरफ से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बन रहे हैं. और सच कहें तो यह नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की राजनैतिक शैली है वरना यह एक ऐसा नाम है जिस पर भाजपा आसानी से सर्वसम्मति बना सकती थी.


रामनाथ कोविंद से किसी को कोई शिकायत हो सकती है यह सोचना मुश्किल है. अपनी सादगी, अपनी ईमानदारी, सिंसियरिटी और निष्ठा के लिये पहचाने जाने वाले इस आदमी को किसी पद की जोड़-तोड़ में भी कभी नहीं देखा गया है. शायद इसी का नतीजा है कि पहले राज्यपाल और अब राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी उन्हें मिली है जिसका व्यावहारिक मतलब यही है कि वे देश के अगले राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं. राजनीति का अगला दौर जितना महत्वपूर्ण बनने जा रहा है और जितने बडे कानूनों को पास कराने की तैयारी है उसमें नरेन्द्र मोदी के लिये अपने भरोसे का व्यक्ति चुनना और छोटी महत्वकांक्षा से ऊपर उठे व्यक्ति को चुनना जरूरी है. रामनाथ कोविंद इन कसौटियों पर खरे उतरते हैं. अब यह अलग बात है कि कहीं-कहीं मुल्क और मोदी की इच्छा/हितों में टकराव हो तो वे क्या करेंगे, यह साफ नहीं है.

उनका नाम सामने आने पर विपक्ष को भी आलोचना का एक ही मुद्दा मिला कि उसे पहले भरोसे में क्यों नहीं लिया गया. कई लोगों ने उनके अचर्चित रहने को लेकर मुद्दा बनाया कि उनके बारे में जानने के लिये विकीपीडिया की मदद लेनी पडी. कोविंद दलित समाज से आते हैं, सो बसपा नेता मायावती ने बहुत सावधानी से प्रतिक्रिया दी क्योंकि उनके लिये विरोध और समर्थन दोनों ही आसान न होगा.

कई छोटे दलों ने समर्थन की घोषणा की तो बाकी ने आपसी राय से फैसला करने की बात कही. सो भले ही भाजपा एक गैर-विवादास्पद व्यक्ति का नाम लेकर आई हो पर यह पद जितना बडा है और अगले पांच साल जितने महत्वपूर्ण होने वाले हैं, उसमें राष्ट्रपति पद पर लडाई न हो यह निष्कर्ष निकाल लेना गलत होगा. निश्चित रूप से अनुभव और कद के हिसाब से भाजपा के पास ही कई और बडे नाम थे, मुल्क की बात तो छोड ही दें. और अगर नरेन्द्र मोदी और अमित शाह सिर्फ अपनी राजनीति और सुविधा के लिये ही नाम चुनते हैं तो उन्हें चुनाव के लिये भी तैयार रहना चाहिये.

निश्चित रूप से कोविंद का नाम उनके दलित होने और पार्टी का अनुशासित सिपाही होने के चलते भी आया है. भाजपा की अगली राजनाति में सारा जोर दलित-आदिवासी पर जाना तय लग रहा है. यह कोई बुरी बात नहीं है. पर भाजपा या कोई पार्टी सिर्फ वोट के लिये ऐसा करे यह ठीक नहीं है. और इस चुनावी रणनीति में राष्ट्रपति जैसे पद को समेटा जाए यह तो और भी गलत है. पूर्व में कांग्रेस और अन्य दलों ने भी ऐसे खेल किये हैं और उस दफे का राष्ट्रपति कमजोर साबित हुआ है.

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इसलिये राष्ट्रपति चुनते समय अच्छा राष्ट्रपति चुनना प्राथमिकता होनी चाहिये. पर मोदी-शाह की जोड़ी की रणनीति में जाहिर तौर पर कई और चीजें शामिल हैं. इसी चलते सबसे ज्यादा चर्चा झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू के नाम की थी जो आदिवासी होने के साथ उस ओडिसा से भी आती हैं जहाँ चुनाव होने हैं और जिसे जीतने पर मोदी-शाह की जोडी सबसे ज्यादा जोर लगा रही है. पर जैसे ही यह चर्चा उड़ी कि उन्हें अंग्रेजी ही नहीं हिन्दी में भी मुश्किल आती है तब भाजपा ने उधर से ध्यान हटाया.


भाजपा का उम्मीदवार एनडीए को मान्य होगा और बहुमत से थोड़ा ही कम वोट हाथ में रहने के चलते अपने उम्मीदवार के लिये बाहर से समर्थन जुटाने की सुविधा ने भाजपा नेताओं को आराम की स्थिति में ला दिया है. और जिसके पास ताकत हो वह क्यों दूसरों की परवाह करेगा. इसलिये भाजपा नेता अगर सर्वसम्मति कहते हुए विपक्ष से मिले तब भी कोई नाम बताना उन्हे अच्छा नहीं लगा. पर द्रौपदी मुर्मू जैसा नाम सामने न लाने का मतलब यह भी है कि उन्हें भी डर था कि कहीं कमजोर उम्मीदवार देखकर उनके साथी और विपक्ष कुछ और न कर दें.

आखिर इस चुनाव में व्हिप तो चलता नहीं. दूसरे विपक्ष तो हारने की मानसिक स्थिति में है ही, भाजपा का मौजूदा नेतृत्व राष्ट्रपति चुनाव में अपने उम्मीदवार के हारने का जोखिम नहीं उठा सकता. अगर ऐसा हुआ तब तो सारी राजनीति ही बदल जाएगी. रामनाथ कोविंद का नाम मुर्मू से बड़ा जरूर है, पर पूरी तरह निश्चिंत होने लायक भी नहीं है. अगर विपक्ष ने कोई दमदार उम्मीदवार उतार दिया और सारा जोर लगाया तो मुकाबला बहुत रोचक तो होगा ही, किसी भी तरफ जा सकता है.

और पहले की तैयारी के हिसाब से लोक सभा की पूर्व अध्यक्ष और बाबू जगजीवन राम की सुपुत्री मीरा कुमार विपक्ष का उम्मीदवार बन सकती हैं. अपनी पर्सनैलिटी और अनुभव से वे कोविंद से कमजोर नहीं हैं. और एनडीए का सहयोगी शिव सेना अभी के तेवर से भी अलग गया तो मुकाबला बहुत रोचक बन जाएगा. पर हम अभी सिर्फ एनडीए की तरफ की सोच रहे हैं. उसकी तरफ एकता बनाए रखना जितना मुश्किल है उससे हजार गुना मुश्किल काम विपक्ष में एकता और एकमत बनाना है. विपक्ष की तरफ से सबसे अच्छा नाम तो गांधी के पौत्र गोपाल गांधी का है. वे सबसे अच्छे राष्ट्रपति साबित होंगे. पर यह अच्छा होना ही उनके लिये मुश्किल बन गया है क्योंकि मोदी अपनी मर्जी से अलग चलने वाला राष्ट्रपति पसन्द नहीं करेंगे.


एक नाम राष्ट्रवादी कांग्रेस के प्रमुख शरद पंवार का भी चला है जिन्होंने खुद से इंकार किया है. पर इंकार के स्वीकार में बदलने में कितना वक्त लगता है. और उनके आने का मतलब एनडीए में दरार होगा ही. लेकिन ये दोनों आखिरी नाम एक ऐसे दलित के खिलाफ मैदान में आएंगे जिसके खिलाफ ज्यादा कुछ कहने को नहीं है, यह मुश्किल ही लगता है. सो यही लगता है कि अगर विपक्ष सामने आएगा भी तो मीरा कुमार को ही उतारेगा. और तब भी नजदीकी मुकाबला होगा.

विपक्ष तैयारी तो काफी समय से कर रहा है और सरकारी पक्ष ने अपना दांव चल दिया है. सो अब देखना होगा कि विपक्ष अपना उम्मीदवार लाता भी है या नहीं. रामनाथ कोविंद भले ही बहुत बडा नाम न हो पर उनके खिलाफ भी बहुत कुछ नहीं है. और मोदी-शाह के उनके पक्ष में आ जाने के बाद उनका पलड़ा निश्चित रूप से भारी हो गया है.

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