सियासत में अहंकार जब हावी हो जाता है, तो वह सिर्फ एक व्यक्ति के नहीं, बल्कि समूची पार्टी के लिए पतन के दरवाजे खोल देता है. पंजाब में कांग्रेस के साथ भी कुछ ऐसा ही होता दिख रहा है. कैप्टन अमरिंदर सिंह को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने के बाद नवजोत सिंह सिद्धू का खेमा भले ही जश्न मना रहा हो, लेकिन विधानसभा चुनाव से महज छह महीने पहले आये इस तूफान में कांग्रेस के जहाज़ को डूबने से बचा पाना बेहद मुश्किल है. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि अब कैप्टन आगे क्या करेंगे. अपनी अलग पार्टी बनाएंगे या फिर किसी और का साथ देंगे? लेकिन इतना तय है कि वे जो भी करेंगे, उससे कांग्रेस का फायदा नहीं बल्कि नुकसान ही होगा.
वैसे दबाव की राजनीति खेलकर प्रदेश कांग्रेस के मुखिया बने सिद्धू ने जिस तरह से कैप्टन को आउट किया है, वह आने वाले दिनों में खुद उनके लिए कांटों का ताज साबित होने वाला है. हालांकि सिद्धू का कैप्टन से बगावत का पुराना इतिहास रहा है लेकिन अब कैप्टन के पलटवार की सिर्फ उन्हें ही नहीं बल्कि पूरी पार्टी को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है. सिद्धू खेमे के 60 विधायकों ने आलाकमान को चिट्ठी लिखकर मुख्यमंत्री कैप्टन को हटाने के लिए जिस तरह से मजबूर किया, वो एक तरह का ब्लैकमेल है जो ट्रिक राजनीति में एक बार तो हिट हो सकती है, लेकिन हर बार नहीं.
यह सही है कि कैप्टन की सरकार चलाने की कार्य शैली को लेकर पिछले डेढ़ साल से पार्टी के भीतर ही असहमति की आवाज उठ रही थीं जिसका फायदा उठाते हुए सिद्धू ने कैप्टन के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोल दिया था. इसमें वे कामयाब भी हुए और पार्टी ने प्रदेश अध्यक्ष बनाकर उनकी ताजपोशी भी कर दी. इसके बाद सिद्धू को अपनी जिस परिपक्व राजनीति का सबूत देना चाहिए था, उसमें वे पूरी तरह से फेल रहे. क्योंकि उनका इरादा कैप्टन से तालमेल रखते हुए आगे बढ़ने का नहीं था. उनकी महत्वाकांक्षा पार्टी व सत्ता पर एक साथ अपना कंट्रोल रखने की है. सिद्धू जानते थे कि आगामी चुनावों में टिकटों के बंटवारे में उनसे ज्यादा कैप्टन की ही चलेगी, लिहाजा अगर पार्टी जीत गई, तो दोबारा वही सीएम पद के दावेदार होंगे. इसलिये उन्होंने कैप्टन को आउट करने के लिए अपने समर्थक विधायकों के जरिये आलाकमान को धमकी दे डाली कि अगर अमरिंदर को नहीं हटाया गया, तो वे आम आदमी पार्टी में चले जायेंगे.
गौरतलब है कि 2017 में कांग्रेस जब पंजाब की सत्ता में आई, तो सिद्धू को कैबिनेट मंत्री बनाया गया था. कुछ ही महीनों के बाद उन्होंने अमृतसर के मेयर के चुनाव पर अपनी नाराज़गी जाहिर की. बस, यहीं से सिद्धू और कैप्टन के बीच छत्तीस का आंकड़ा शुरू हो गया. अमृतसर नगर निगम के सदस्यों की मेयर चुनने वाली मीटिंग में आमंत्रित नहीं किए जाने से सिद्धू नाराज़ हो गए थे. चूंकि नगर निगम उनके मंत्रालय के अधीन ही आता था, इसलिये अपनी उपेक्षा से नाराज़ सिद्धू को तभी ये समझ आ गया था कि कैप्टन उन्हें ज्यादा भाव देने के मूड में नहीं हैं.
उसके बाद सिद्धू ने केबल नेटवर्कों पर मनोरंजन कर लगाने और रेत के ख़नन के लिए अलग से एक कार्पोरेशन बनाने का प्रस्ताव दिया, जिसे मुख्यमंत्री अमरिंदर ने खारिज़ कर दिया. साल 2019 में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कैबिनेट में बदलाव करते हुए सिद्धू का मंत्रालय बदल दिया, इसके विरोध में सिद्धू ने पदभार ग्रहण किए बिना ही अपना इस्तीफ़ा दे दिया.
लेकिन इससे पहले 2018 में पाकिस्तान में हुए चुनाव में इमरान ख़ान जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने अपने पुराने दोस्त सिद्धू को अपने शपथ ग्रहण समारोह में आने का निमंत्रण दिया. चूंकि तब सिद्धू सरकार में मंत्री थे, लिहाज़ा कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सिद्धू को इस समारोह में न जाने की सलाह दी, लेकिन सिद्धू ने उसे नहीं माना और वे वाघा बॉर्डर के रास्ते पाकिस्तान गए. वहां करतारपुर कॉरिडोर खोलने की पेशकश पर वो पाकिस्तान सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा से गले भी मिले. अमरिंदर सिंह से लेकर समूचे विपक्ष ने इसके लिए सिद्धू की जमकर आलोचना भी की.
बेशक बगावती तेवर दिखाकर सिद्धू आज भले ही जीत गए हों लेकिन राजनीति में 52 साल के अनुभव की महारत हासिल कर चुके कैप्टन के बगैर कांग्रेस के लिए अब पंजाब का किला बचाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन दिख रहा है.
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