कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए साल 2018 की इससे बड़ी उपलब्धि क्या होगी कि उनके द्वारा उछाला गया जुमला ‘चौकीदार ही चोर है’ आज पर्याप्त लोकप्रिय हो चुका है और कभी उनका मजाक उड़ाने वाली शिवसेना के प्रमुख उद्धव ठाकरे भी अपनी रैलियों में राहुल का यह डायलॉग हूबहू दोहराते फिर रहे हैं. लेकिन दूसरी तरफ 2018 में राहुल गांधी के पूजास्थलों पर मत्था टेकने, मानसरोवर यात्रा करने, हिंदू होने के सबूत के तौर पर जनेऊ दिखाने, पुष्कर में अपने खानदान का गोत्र बताने आदि को लेकर भी कुछ कम चुटकुले नहीं बने. राहुल ने संसद में पीएम मोदी से अप्रत्याशित गले मिल कर, किसान कर्जमाफी की प्रतिज्ञा लेकर, रफाएल सौदे पर तर्कपूर्ण प्रेस वार्ता करके तमाम चुटकुलों का जवाब देने की साल भर कोशिश की.


यह देखना दिलचस्प है कि 2018 के पहले शांत, सदाशय, शर्मीले और मृदुल दिखने वाले राहुल गांधी इस साल कैसे पूरी आक्रामक और उग्र मुद्रा में आ गए. जानकार बताते हैं कि यह बीच में उनके महीने भर कहीं अंतर्ध्यान हो जाने का कमाल है. लौटकर वह रैलियों में कुर्ते की बांहें चढ़ाते और कागज फाड़ते नजर नहीं आए बल्कि उनकी देहभाषा और बोलने की शैली ही बदल गई. संसद में किसी कवि की तरह उन्होंने मोदी जी और भाजपा को खुला संदेश दे डाला- ‘आप मुझे गाली दे सकते हैं, पप्पू कह सकते हैं, मगर मेरे भीतर किसी तरह की घृणा नहीं है. मैं आपके भीतर से घृणा को निकाल फेंकूंगा और प्यार भर दूंगा.’ राहुल अब कागज पर लिखा हुआ भाषण नहीं पढ़ते और मूल मुद्दों को लेकर तथ्यों के साथ सरकार के गण्डस्थल पर प्रहार करते हैं. पहले की तरह वह हिंदी में लटपटाते भी नहीं और खुद सड़क पर उतर कर सामने से नेतृत्व करने में भरोसा करने लगे हैं, जिसका सबूत उन्होंने सीबीआई वाले घटनाक्रम और किसान रैलियों में उपस्थित होकर दिया है.

वर्ष 2017 के आखिर में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव राहुल गांधी और उनकी छवि के लिए टर्निंग प्वाइंट माने जा सकते हैं. मई 2018 में कर्नाटक के चुनाव राहुल गांधी की सूझबूझ का परिचायक बन कर उभरे. इसमें न सिर्फ कांग्रेस को सर्वाधिक मत (38%, 78 सीटें) प्राप्त हुए बल्कि जेडीएस (18.3%, 37 सीटें) से चुनाव बाद गठबंधन संभव करते हुए एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बनाकर उन्होंने सबसे ज्यादा सीटें (36.2%, 104 सीटें) जीतने वाली भाजपा को सत्ता से वंचित कर दिखाया और भाजपा को गोवा काण्ड दोहराने नहीं दिया. इसके अलावा उन्होंने युवा नेताओं को ज्यादा तरजीह देने के चक्कर में बुजुर्ग और अनुभवी नेतृत्व को दरकिनार नहीं किया. 2018 में रफाएल और किसान को एक साथ साधने वाली राहुल की रणनीति और उत्तर से लेकर दक्षिण तक की सक्रियता ने यह मिथ भी तोड़ दिया कि वह पार्ट टाइम राजनीतिज्ञ हैं.

साल 2018 में एक बड़ी तब्दीली यह देखने को मिली है कि राहुल गांधी पीएम नरेंद्र मोदी और आरएसएस को आमने-सामने मुकाबला करने की चुनौती देने लगे हैं. राहुल ने ललकारते हुए कहा था- ‘सारी संस्थाओं में संघ की विचारधारा के लोगों को डाला जा रहा है. नरेंद्र मोदी जी पार्लियामेंट में खड़े होने से घबराते हैं. रफाएल घोटाले पर, नीरव मोदी पर 15 मिनट मेरी वहां बात करा दो, मोदी जी खड़े नहीं रह पाएंगे.’ स्पष्ट है कि अब राहुल और मोदी का मुकाबला डेविड और गोलिएथ वाला किस्सा नहीं रह गया है. राहुल गांधी के लिए राहत की बात यह है कि अब उन्हें देश के नौजवान गंभीरता से लेने लगे हैं और जनता उनके वादों पर कान देने लगी है.

लेकिन राजनीति में इस कदर उभर जाने से 2019 में राहुल को बड़ी जिम्मेदारियां उठानी पड़ेंगी. सबसे पहले तो उन्हें कांग्रेस के अजगरी संगठन को जागृत व प्रेरित करना होगा और आगामी आम चुनाव में अपना लोहा मनवाना होगा, जो समान विचारों वाले दलों का साथ लिए बिना संभव नहीं है. उन्हें राबर्ट वाड्रा, अगुस्ता वेस्टलैंड और नेशनल हेराल्ड जैसे विवादास्पद मामलों को भी झेलना पड़ेगा. एक तरफ उन्हें भाजपा की मुंहजोर शैली से कन्नी काटते हुए मोदी जी का प्रतिरूप बनने से बचना होगा, दूसरे देश में बढ़ती असहिष्णुता और विद्वेष वाली राजनीति की काट निकालनी पड़ेगी. संवैधानिक संस्थाओं का क्षरण और अवमूल्यन रोकने की दोहरी चुनौती उनके सामने होगी, क्योंकि इसकी नींव डालने का इल्जाम कांग्रेस के सर पर ही है. कांग्रेस को यह भरोसा भी दिलाना होगा कि राहुल जो लड़ाई लड़ रहे हैं, वह सिर्फ भाजपा और मोदी को अपदस्थ करने की नहीं बल्कि देश और जनता के हित की साझा लड़ाई है, नौकरीपेशा नागरिकों, किसान-मजदूरों, छोटे और मझोले उद्यमियों तथा हस्तशिल्पकारों को फिर से पैरों पर खड़ा करने की जद्दोजहद है.

राहुल गांधी के लिए 2018 समाप्त होते-होते वास्तविक मुद्दों पर राजनीति करने की जमीन तैयार हो गई है क्योंकि नोटबंदी, जीएसटी, स्टार्ट अप इंडिया, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, और मुद्रा लोन जैसे केंद्र सरकार के उपक्रम आशातीत सफलता नहीं पा सके. इसके बरक्स साल के आखिर में तीन राज्यों में कांग्रेस को मिली जीत ने भारत के मध्य वर्ग, अल्पसंख्यकों, दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को राहुल की परिपक्वता, दृढ़ता और भाषायी संस्कारों का नमूना पेश किया है और उनसे अपेक्षाएं बढ़ा दी हैं. अब यह राहुल गांधी पर निर्भर करता है कि भविष्य में वे भाजपा की नकल करते हुए खुद को बड़ा हिंदू दिखाने की मशक्कत करेंगे या देश को एक सूत्र में बांधे रखने वाले धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की राजनीति करेंगे.

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