Blog: वर्षा ऋतु का आनंद उठाइए, कहीं लाखों का सावन न चला जाए!
मदमाता सावन बरखा की रिमझिम फुहारों से धरती-धन सिंचित करता हुआ भारतीयों के तन-मन पर दस्तक दे चुका है. किसानों और जवानों का मन मयूर नाच उठा है. जहां-जहां मेघराज की अच्छी कृपा हुई है- तिल, अमारी, उड़द, धान, कपास, मक्का, सोयाबीन जैसी सियारी (खरीफ) फसलों की बुआई-रोपाई-निंदाई-गुड़ाई जोरों पर है. भाई अपनी बहनों को ससुराल से लिवाने निकल पड़े हैं. जो माताएं-बहनें पहले ही पीहर आ चुकी हैं वे अपनी सखी-सहेलियों और ननद-भौजाइयों से परंपरागत कजरी गीतों के माध्यम से चुहल कर रही हैं.
भौजाई चुनौती देती हैं- “कइसे खेले जाइबि सावन में कजरिया बदरिया घेरि आइल ननदी ।।
तू त चललू अकेली, केहू संगे ना सहेली; गुंडा घेरि लीहें तोहरी डगरिया ।। बदरिया घेरि आइल ननदी ।।“
ननद दबंगई से जवाब देती है- “केतने जना खइहें गोली, केतने जइहें फंसिया डोरी; केतने जना पीसिहें जेहल में चकरिया ।। बदरिया घेरि आइल ननदी ।।“
भोजपुरी और बुंदेलखंड के कजरी गीतों में खेती-किसानी, देशभक्ति, तीज-त्यौहार से लेकर प्रेम की चंचलता, ननद-भौजाई की छेड़छाड़, सास-बहू की नोकझोंक, राधा-कृष्ण का प्रेम, श्री रामचंद्र जी से जुड़े प्रसंग, पीहर की याद, प्रियतम का परदेस जाना आदि प्रसंगों के संयोग-वियोग की ऐसी रसधारा बहती है, जो बड़े से बड़े कठकरेजियों को मोम बना देती है. सुराजी कजरी तो वैवाहिक प्रसंग, जैसे कि बारात आगमन, द्वारचार, जेवनार आदि को भी देशभक्ति से जोड़ देती है. भगवान कुंवर की एक गारी-कजरी देखिए- “बाजत आवेला रुनझुन बाजन, फहरात देसी पताका रे! नाचत आवै सुदेसिया समधी रामा, बिहंसत दुलरू दामाद रे! चरखा मैं दैहौं सुदेसी समधिया रामा, धिया दैहौं दुलरू दमाद रे!” लेकिन इन दिनों भीगे मौसम वाले गीतों की बहार है- 'अबकी सावन में झूला झुलाइ द, पिया मेंहदी मंगाइ द ना.'
फिल्मी गीत तो वर्षा ऋतु के सावन महीने का चहुं ओर विविधवर्णी उत्सव मना ही रहे हैं. कहीं ‘सावन का महीना पवन करे शोर’ बज रहा है और टूटी छतरी की मरम्मत करने वाले जुम्मन मियां को मगन किए हुए है, कहीं ‘लगी आज सावन की फिर वो झड़ी है, बुझी आग सीने में फिर जल पड़ी है’ गीत बिछड़े प्रेमियों के हृदय में टीस उभार रहा है, कहीं ‘आया सावन झूम के’ की धुन पर पांव थिरक रहे हैं तो कहीं ‘बरसात में हमसे मिले तुम सजन तुमसे मिले हम’ पुराने जोड़ों को भूली-बिसरी प्रेम कहानियां याद करवा रहा है. ‘रिमझिम गिरे सावन’ और ‘चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाए’ के क्या कहने! ‘अबके सावन ऐसे बरसे’ और ‘सावन में लग गई आग कि दिल मेरा हाय!’ हाई वोल्टेज प्रेमियों के लिए है. कहीं ‘हाय-हाय ये मजबूरी’ है तो कहीं ‘टिप-टिप बरसा पानी’ है, कहीं नायक कह रहा है कि ‘आज रपट जाएं तो हमें न उठइयो’ तो कहीं सावन राजा को ‘घोड़े जैसी चाल, हाथी जैसी दुम’ वाला बताया जा रहा है!
वर्षा ऋतु भारतीय भू-भाग में सदैव ऋतुओं की रानी बनी रही है. यह मन में संयोग भी उत्पन्न करती है और वियोग भी. आसमान में छाए मेघ देखकर मस्त हाथी चिंघाड़ते हैं, मेघों की ध्वनि मोरों के लिए तो मृदंग का काम करती हैं और वे मनोहारी ढंग से नाच उठते हैं. पपीहे की पीकहां-पीकहां, चिड़ियों का कलरव और दादुर की पुकार सुनकर प्रियतम अपनी प्रिया से मिलने को व्याकुल हो उठता है. मेघदूतम् में महाकवि कालिदास लिखते हैं- “प्रत्यारसन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बकनार्थी, जीमूतेन स्वककुशलमयीं हारयिष्य न्प्रोवृत्तिम्। स प्रत्यलग्रै: कुटजकुसुमै: कल्पितार्घाय तस्मैा, प्रीत: प्रीतिप्रमुखवचनं स्वामगतं व्यांजहार।।“ (अर्थात् जब सावन पास आ गया, तब निज प्रिया के प्राणों को सहारा देने की इच्छां से यक्ष ने मेघ द्वारा अपना कुशल-सन्देाश भेजना चाहा. फिर टटके खिले कुटज के फूलों का अर्घ्ये देकर उसने गद्गद् होकर प्रीति भरे वचनों से उसका स्वागत किया.)
लेकिन अब न तो कालिदास का युग है न प्रकृति की पहले जैसी कृपा! बुजुर्ग बताते हैं कि पहले वर्षा की आठ-दस दिन की ऐसी झड़ी लगा करती थी कि तंग आकर बादल को भगाने के लिए बच्चों को नंगा करके रात में आसमान की ओर जलता लुघरा दिखाने का टोटका करना पड़ता था! अब ये हालत है कि चौबीस घंटा भी पानी लगातार बरस जाए तो गनीमत है. आल्हा गायन और झूला-कजरी वाले दिन भी अब लद गए! आधुनिक प्रिया अगर वियोग की आग में जलती है तो प्रियतम से बैलेंस डलवाकर मोबाइल के माध्यम से कहीं भी झट-पट बात कर लेती है. आल्हा गायन होता है तो लोग विवेकहीन जोश में आकर दुनाली बंदूकें निकालते हैं और पुराना बदला चुकाने के लिए मित्रों और भाई-पट्टीदारों को ही निबटा देते हैं!
पहले उत्तर भारत के गांव-गांव में नागपंचमी के अगले दिन ‘गुड़िया त्यौहार’ से जो झूले पड़ते थे तो रक्षाबंधन तक बहन-बेटियों के सुरीले कंठों से कजरी की तान छिड़ी रहती थी- ‘झूला तो परिगे अमवा की डार पै जी.’ रिमझिम बारिश के बीच मोर-पपीहा और कोयल की मधुर बोली आनंद-हिलोर उठा देती थी. अब भू-माफिया, खेती के लालच, लकड़ी चोरों की मक्कारी, ऊंची-नीची जातियों के बीच बढ़ता वैमष्य और भाई-भाई की तकरार के चलते बगीचे और उनके साथ-साथ झूले भी उजड़ गए. पहले किसी की भी बच्ची पूरे गांव की बहन-बेटी हुआ करती थी, अब तो जिसकी कलाई पर रक्षा-सूत्र बांधा जाता है, वही भक्षक बन बैठता है. ऐसे में कजरी की तान किस कंठ से फूटे?
जलवायु परिवर्तन के चलते ऋतुएं भी अपना चक्र बदल रही हैं. पंचांग के अनुसार सावन तो आ जाता है लेकिन पहले जैसी वर्षा नहीं लाता, परिणामस्वरूप प्रकृति हरियाली की गझिन चूनर नहीं ओढ़ पाती. सब कुछ आधा-अधूरा लगता है. इसके बावजूद मानव-हृदय अदम्य है. उसके भीतर का ऋतुचक्र आदिम और सनातन है. खेत, नदी, ताल-तलैया, पोखर-बावड़ी वर्षाजल से न छलक रहे हों, बिजली न कौंध रही हो, पेड़-पौधे न झूम रहे हों, झींगुर-दादुर न टर्रा रहे हों, प्रियतम दूर हों, छत-छप्पर-छानी टपक रही हों- तब भी वह देशकाल और वातावरण के अनुसार अपना सावन मना ही लेता है. आप भी प्रफुल्लित हो जाइए और वर्षा ऋतु का आनंद लीजिए ताकि मजबूरी में फिर यह न कहना पड़े- ‘तेरी दो टकिए की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए!’
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