खबरें कई बार आपको चेताने का ही काम करती हैं...इस मामले में तो पक्का. पिछले दिनों सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर एक खबर छाई रही. जीएसटी के दायरे से सिंदूर बाहर, लेकिन सैनिटरी पैड्स टैक्स के दायरे में. हम सब परेशान. बेशक, यह महिला विरोधी खबर ही थी. सरकार औरतों के इस्तेमाल के लिए जिन चीजों को सस्ता करने पर तुली है, उसमें सबसे जरूरी क्या है... यह सरकार सोचे. अगर सिंदूर तो वही सही. वैसे भी पीरियड्स पर बात करना अपने यहां टैबू है. आप शर्म का परदा ओढ़ लीजिए. चुप रहिए क्योंकि हमारे यहां चुप्पी आदर का सबसे बड़ा सर्टिफिकेट है. तो हम सैनिटरी पैड्स सस्ता करने के बारे में बात नहीं करेंगे. इसके मार्केट पर बड़ी कंपनियों की मोनोपोली है. ऐसे में आप गरीब औरतों के लिए किफायती पैड्स बनाने वाले अरुणाचलम मुरुगंथम को पद्मश्री तो दे सकते हैं लेकिन उनकी मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट को सरकारी मदद नहीं. पर हम सैनिटरी पैड्स पर लगने वाले टैक्स से परेशान नहीं. हम शहरों में रहने वाले खाए-पिए-अघाए लोग हैं. पैड्स के एक पैकेट पर 12.5 परसेंट टैक्स चुका सकते हैं तो जीएसटी के लागू होने के बाद 14 परसेंट टैक्स भी चुका देंगे. 20 रुपए के एक पैकेट की कीमत बढ़कर होगी भी कितनी, सिर्फ 20.50 रुपए.


दरअसल, असल खबर यह है ही नहीं. असल खबर यह है कि फिरोजाबाद में पीरियड्स के दौरान नायलॉन के ब्लाऊज का टुकड़ा इस्तेमाल करते हुए एक औरत इंफेक्शन से मर गई. ब्लाऊज में लगा हुक उसके शरीर को छलनी कर गया और उससे होने वाले इंफेक्शन ने उसकी जान ले ली. दूसरी खबर यह है कि कुछ गरीब औरतें पीरियड्स के समय गोबर के उपलों को पैड्स के तौर पर इस्तेमाल करती हैं क्योंकि उनके पास सूती कपड़ों के चिथड़े नहीं होते. ये चिथड़े निकलेंगे कहां से... बेशक, सूती कपड़ों से. पर हम अभी सबके तन ढंकने का लक्ष्य भी हासिल नहीं कर पाए हैं. सूती ही नहीं, तो चिथड़े कहां से. सूती चिथड़ों का जिक्र आने पर याद आया कि हमारा देश दुनिया में कपास उत्पादन करने वाला सबसे बड़ा देश है. विश्व में इसकी हिस्सेदारी 26 परसेंट है. 2016-17 के वित्तीय वर्ष के दौरान अप्रैल से जनवरी के बीच भारत ने 91 हजार करोड़ से अधिक के कपड़े विदेशों में निर्यात किए हैं. निर्यात में नंबर वन देश की असली हालत यह है कि अपने यहां ही लोगों के पास चिथड़े नहीं हैं.


कुल मिलाकर खबर यह है कि जीएसटी से नैपकिन्स महंगे होंगे, वे नैपकिन्स जो पहले से ही आम औरतों की पहुंच से बाहर हैं. नैपकिन्स क्या, साफ-सुथरे तरीके भी उनकी पहुंच से बाहर हैं. इसी एक कारण से हमारे देश में हर पांच में से एक लड़की प्राइमरी बाद स्कूल जाना छोड़ देती है. इसलिए क्योंकि उसके पास पीरियड्स के लिए सुरक्षित उपाय नहीं होते. स्कूलों में अलग शौचालय नहीं होते. कई बार शौचालय ही नहीं होते. यह हम नहीं, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़े कहते हैं कि देश में सिर्फ 57 परसेंट औरतें पीरियड्स के समय सुरक्षित और साफ-सुथरे उपाय कर पाती हैं. बाकियों को असुरक्षित तरीके अपनाने पड़ते हैं.


ये सुरक्षित तरीके क्या होते हैं- कमर्शियल नैपकिन्स और स्थानीय स्तर पर बनाए गए सेनिटरी पैड्स. असुरक्षित तरीके अपनी सुविधानुसार या जेब अनुसार अपनाए जाते हैं. कपड़े, कागज, प्लास्टिक, रेत, घास, उपले, ईंटें... और पता नहीं क्या-क्या. क्या यह सोचा जा सकता है कि इनका कोई कैसे इस्तेमाल करता होगा? हम नहीं सोच सकते, और हमारी जरूरतों से आपके कान में जूं भी नहीं रेंगती. प्लान इंडिया की एक वॉलेंटियर ने 2015 में चेन्नई की बाढ़ के समय बताया था कि सैनिटरी पैड्स की एक खेप को तमिलनाडु जाने से यह कहकर रोक दिया गया था कि इससे बेहतर आप लोगों तक साफ पानी पहुंचाएं. साफ पानी की जरूरत है, बेशक, पर उन खास दिनों में शर्म को ढंकने से बड़ी जरूरत किसी लड़की के लिए क्या होगी... ऐसी दखल रखने वाले पुरुष क्या यह भी जानते हैं कि स्कूलों में बच्चियां कई बार सिर्फ इसलिए पानी नहीं पीतीं, खाना नहीं खातीं कि उन्हें फारिग होने के लिए जंगल न जाना पड़े.


हमारी जरूरत आप कैसे समझेंगे? अक्सर हमें चुप रहना ही सिखाया जाता है. मासिक धर्म पर बात कौन करेगा. हमारे पारिवारिक ढांचे ने औरतों के मुंह पर मोटा ताला जड़ा हुआ है. भीतर कानफोडू सन्नाटा हो लेकिन ऊपर से ऊफ भी न करना. तभी पिछले साल विमेन यू स्पीक नामक एक संस्था ने जब सैनिटरी पैड्स के इस्तेमाल पर औरतों से बातचीत की, तो 93 परसेंट ने कहा कि वे 30 रुपए के पैड्स की बजाय 30 रुपए का राशन खरीदना पसंद करेंगी. संस्था ने मासिक 5000 रुपए कमाने वाले परिवारों के बीच बेंगलूर में यह सर्वे किया था. इस सर्वे में 87 परसेंट औरतों ने कहा था कि वह एक कमरे की झुग्गी में आखिर पैड्स छुपाएंगी कहां? इत्ती सी जगह में उनके लिए पर्सनल स्पेस कहां है. 92 परसेंट कहा था कि पब्लिक टॉयलेट में पैड्स लेकर जाना या उन्हें डिस्पोज ऑफ करना बहुत मुश्किल है. इस सर्व को करने वाली लड़कियां थीं, तो औरतों ने जवाब दे दिए. लेकिन अक्सर मर्दों के बीच हम शर्म से पानी-पानी होकर मुंह बंद रखते हैं.


सभी चीजें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं. अगर पीरियड्स में सुरक्षित तरीके नहीं अपनाए जाएंगे तो रीप्रोडक्टिव ट्रैक इन्फेक्शन यानी आरटीआई का सबसे अधिक खतरा होगा. दसरा जैसे सामाजिक संगठन की स्टडीज बताती हैं कि असुरक्षित तरीके अपनाने वाली 70 परसेंट से ज्यादा औरतों को आरटीआई का डर बना रहता है. चूंकि पैड्स की कीमत ज्यादा है इसलिए इन्हें कौन खरीदे.


पिछले दिनों एमपी सुष्मिता देब ने संसद में सैनिटरी पैड्स को टैक्स फ्री करने की मांग रखी थी. कोई शक नहीं कि सैनिटरी पैड्स कोई लग्जरी नहीं जिसे पर औरतों को अपने जीवन के करीब 40 साल तक टैक्स भरना पड़े. हम कहते हैं- पैड्स को मुफ्त क्यों न बांटा जाए. इसे निजी कंपनियां बनाएं ही क्यों? सरकारी उपक्रम में बनने के बाद इन्हें क्यों परिवार नियोजन के साधनों की तरह सरकारी प्राथमिक केंद्रों में मुफ्त बांटा जाए. हमारी सेहत हमारी सरकार का दायित्व क्यों न हो. पर जैसा कि एक सरकारी हेल्थ वर्कर का कहना है- ऐसी स्कीमें ‘सेक्सी’ नहीं लगतीं. इसकी बजाय सरकारी अधिकारी महिला सशक्तीकरण और शिक्षा पर खर्च करना पसंद करते हैं. इसी साल देखिए- केंद्रीय बजट में महिला शक्ति केंद्रों के लिए 500 करोड़ रुपए और बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के लिए 200 करोड़ के आबंटन का प्रस्ताव है. मैन्सट्रुएल हेल्थ पर नहीं. अगर औरतों की सेहत अच्छी नहीं होगी तो उनका सशक्तीकरण कैसा और उनका पढ़ना-पढ़ाना भी कैसा?


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