मशहूर फिल्मी गायक सोनू निगम के अज़ान वाले ट्वीट पर शुरु हुआ विवाद मौलवियों की फतवेबाजी के चलते उनके सिर मुंडवाने तक पहुंच गया है. अब अगर सोनू निगम फतवेबाज मौलवी से दस लाख रुपए वसूलने की ख़ातिर उसकी शर्त पूरी करने करने के लिए फटे हुए जूते-चपल्लों की माला पहन कर सड़कों पर घूमना शुरू कर दें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. सोनू निगम ने उनके खिलाफ फतवा जारी करने वाले मौलवी की चुनौती को क़ुबूल करते हुए तैश में आकर मीडिया के समने अपना सिर तो मुंडवा लिया लेकिन दस लाख रुपए इनाम की पूरी शर्त सुनकर उनके होश ज़रूर उड़ गए होंगे. अब ये देखना दिलचस्प होगा कि सोनू फतवेबाज़ मौलवी को सबक़ सिखाने के लिए ऐसा करने की हिम्मत जुटा पाते हैं या नहीं.
सोनू ने सोमवार को फज्र यानि सुबह की अज़ान को लेकर बेहद आपत्तिजनक ट्वीट किया था. उनके इस ट्वीट पर जैसे ही विवाद छिड़ा तो उन्होंने सभी धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकर हटाने की मांग शुरू कर दी. इस बीच पश्चिम बंगाल के यूनाइटेड मॉइनरिटी यूनाइटेड काउंसिल ने सोनू के खिलाफ फतवा जारी किया था. काउंसिल के वाइस प्रेसिंडेट सैयद शाह अतिफ अली अल कादरी ने कहा था कि अगर कोई भी सोनू निगम का सिर गंजा करे और उसके गले में फटे पुराने जूतों की माला पहनाकर देश भर में घुमाए तो वह उसे 10 लाख रुपए देंगे. अब सोनू निगम के ख़ुद ही सिर मुंडवाने के बाद मौलवी कादरी का कहना है कि सोनू निगम ने उनकी कही हुई तीन बातों में से सिर्फ एक ही बात मानी है. कादरी ने कहा, ‘मैं दस लाख रुपए का इनाम सिर्फ तभी दूंगा जब सोनू निगम गले में फटे जूते की माला पहनकर पूरे देश में घूमेंगे.’ लगता है सोनू के सिर मुंडाते ही ओले पड़ गए हैं.
दरअसल ये पूरा विवाद ही बेवजह और बेमतलब का है. सोनू निगम बहुत ही सौम्य स्वभाव की शख़्सियत हैं. मैं तो अभी भी यक़ीन नहीं कर पा रहा हूं कि उन्होंने अज़ान पर इतना आपत्तिजनक ट्वीट कैसे कर दिया उस पर तुर्रा ये कि वो अपने बयान पर अड़े हुए हैं. ये अलग बात है कि अब वो सभी धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकर उतरवाने की बात कर रहे हैं. उनके इस विवादित ट्वीट के बाद कुछ मीडियाकर्मियों ने मुंबई के अंधेरी के वर्सोवा इलाके में उनके घर जाकर जायज़ा लिया कि आख़िर बेहद मधुर आवाज़ के मालिक इस गायक को दो मिनट की अज़ान कैसे इतना परेशान करती है कि उसने मस्जिदों के साथ मंदिरों से भी लाउडस्पीकर हटाने की मुहिम सी चला दी है.
मीडिया ने पाया कि सोनू के घर से 600 मीटर दूर तीन मस्जिदें हैं. जिनमें होने वाली सुबह की अज़ान की आवाज़ उनके घर तक नहीं पहुंचती. उनके पड़ोसियों ने बताया कि उन्होंने कभी सुबह-सुबह अज़ान की आवाज़ नहीं सुनी. अज़ान के बजाय सड़कों पर चलती गाड़ियों का शोर कानों में ज़रूर पहुंचता है. फिर सवाल पैदा होता है कि आख़िर सोनू निगम ने ऐसा विवादित ट्वीट क्यों किया जिससे न सिर्फ उनकी छवि ख़राब हुई बल्कि बॉलीवुड की मिली जुली तहज़ीब को भी धक्का लगा.
हमारी फिल्म इंडस्ट्री देश में सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल है. ज्यादातर फिल्मी कलाकार खुद के हिंदू मुसलमान को दायरे से बाहर सिर्फ इंसान मानते हैं. सिर्फ मानते ही नहीं हैं. बल्कि इसी संस्कृति को जीते हैं. सोनू निगम की गिनती भी ऐसे ही लोगों में होती रही है. सोचता हूं, जब फिल्मी दुनिया भी हिंदू मुसलमान के बीच बंट जाएगी तो फिर इंसानियत कहां जाएगी.
सोनू निगम को जब बीस साल पहले दूरदर्शन पर मोहम्मद रफी के गाना गाते देखते तो लगता था कि रफी साहब की आवाज उनमें समा गई है. रफी साहब को श्रद्धांजिली देते हुए सोनू निगम ने उनके कई गाने इस अंदाज़ में गाए हैं कि पहली बार सुनने पर ये फर्क करना मुश्किल होता है कि आवाज़ रफी साहब की है या सोनू निगम की. जिस संगीत को सोनू निगम ने अपनी रोज़ी रोटी का ज़रिया बनाया है वो तो लोगों को इंसान बनाता है. हिंदू या मुसलमान नहीं बनाता. फिर सोनू निगम को कब से ये अहसास होने लगा कि वो हिंदू हैं और उन्हें अज़ान नहीं सुननी चाहिए. अभी सोनू निगम का करियर उतना खराब भी नहीं हुआ है कि संगीत उनकी आत्मा से ही निकल जाए.
सोनू निगम कैसे भूल सकते हैं कि जिस फिल्मी दुनिया का वो हिस्सा हैं उस दुनिया को फिल्मी कलाकारों ने मज़हब से बहुत ऊपर उठ कर बनाया है. देश का कौन सा स्कूल है जहां बच्चों को ये गीत नहीं सुनाया जाता, 'तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा.' ये गीत साहिर लुधियानवी की क़लम से निकला है. रवि के संगीत से और सोनू निगम के आदर्श रफी साहब की जादुई आवाज़ से सजा ये गाना कहीं दूर भी बज रहा हो तो आज भी लोग इसके साथ ही गुनगुनाते लगते हैं. खुद सोनू निगम ने भी कई बार गीत अपने स्टेज शो में गाया होगा. फिर वो अचानक कैसे हिंदू हो गए. लगता है कि सोनू निगम ने या तो किसी के बहकावे में आकर ऐसी बात कह दी है जो उनके मिज़ाज से मेल नहीं खाती. या फिर वो भी संगीत की दुनिया को छोड़ कर राजनीति में अपने लिए माकूल जगह ढूंढ रहे हैं.
ये वो फिल्म इंडस्ट्री है जहां शकील बदायूंनी के लिखे और संगीत के बादशाह कहे जाने वाले नौशाद साहब के संगीत से सजे, रफी साहब की आवाज़ में दिलीप कुमार यानि यूसुफ़ खान पर फिल्माए गए भजन आज भी मंदिरों में गूंजते हैं. महान फिल्मकार महबूब खान की कोई फिल्म होली के गीत के बगैर पूरी नहीं हुई. सोनू निगम भूल गए कि इसी फिल्म इंडस्ट्री ने देश को एक दूसरे के धर्म का कैसे एहतराम और सम्मान करना सिखाया. अब तक की सबसे लोकप्रिय फिल्म शोले के बूढ़े और नेत्रहीन इमाम साहब का वो डायलॉग बच्चे-बच्चे को याद है, ‘आज पूछूंगा उस खुदा से कि मुझे दो चार बेटे और क्यों नहीं दिए गांव पर क़ुर्बान होने के लिए.’.....अज़ान की आवाज़ सुनते ही वो कहते हैं, ‘कोई मुझे मस्जिद तक पहुंचा दे...’ और बसंती इमाम साहब का हाथ पकड़ कर उन्हें मस्जिद तक पहुंचाती है.
ये तो रही फिल्मी परदे की बातें. फिल्मी दुनिया के लोगों की असल ज़िंदगी की बात करें तो हम पाते हैं कि इस दुनिया के लोग सचमुच धर्म के बंधनों से काफी ऊपर उठ चुके हैं. मुझे दस साल पुरानी एक बात याद आती है. हम दुबई में थे. एक अवार्ड कार्यक्रम के सिलसिले में. वहां महेश भट्ट अपने परिवार पूरे के साथ थे. वहां एक साहब ने पूछा कि मोहित सूरी और इमरान हाशमी दोनों महेश भट्ट को मामा क्यों कह रहे हैं. मैंने बताया कि ये दोनों भट्ट साहब की दो अलग-अलग बहनों के बेटें हैं. इस लिए भट्ट साहब दोनों के मामा हैं. पूछने वाले सज्जन के लिए ये बेहद आश्चर्यजनक बात थी. महेश भट्ट का परिवार मिलीजुली संस्कृति का जीता जागता उदाहरण है. उनके पिता नानाभाई भट्ट थे और मां शिरीन मोहम्मद अली थीं.
इस फिल्मी दुनिया में आपसी रिशतों में धर्म कभी आड़े नहीं आया. चाहे पुराने ज़माने में सुनील दत्त और नरगिस की शादी हो, मधुबाला और किशोर कुमार की शादी हो, शर्मिला टौगोर और मंसूर अली ख़ान पटौदी की शादी हो या फिर वहीदा रहमान और कमलजीत की. नए ज़माने में यहां आमिर खान की पहली बीवी रीमा दत्त थी तो दूसरी किरण राव हैं. सैफ अली ख़ान की पहली बीवी अमृता सिंह थी तो दूसरी करीना कपूर हैं. शाहरूख की बीवी गौरी है. संजय खान ने रमज़ान के महीने में अपनी बेटी सुज़ैन खान की शादी ऋतिक रोशन से की. सलमान के भाई अरबाज़ खान की बीवी मलाइका अरोड़ा रहीं हैं. ये अलग बात ये कि दोनों शादियां अब टूट चुकी हैं.
फिरोज़ खान की बेटियों ने भी अपनी पसंद से अपने धर्म के बाहर के लड़कों से शादी की है. फिल्म इंडस्ट्री में होली भी खूब धूमधाम से मनाई जाती है. ईद और दीवाली भी उसी तरह मिलजुल कर मनाई जाती है. सलमान खान तो पिछले दस साल से अपने घर में बक़ायदा गणेष पूजा कराते हैं. एक बार उनसे किसी पत्रकार ने पूछा था कि मुसलमान होते हुए भी आप गणेष पूजा क्यों करते हो तो उनका जवाब था कि उन की मां कभी हिंदू थी इसलिए वो उनकी पुरानी परंपरा निभाते हैं. आप सलमान के तर्क स सहमत भी हो सकते हैं और असहमत भी. फिल्मी दुनिया की सच्चाई यही है.
ऐसी दुनिया में बीस साल से रहने वाले किसी व्यक्ति को अचानक उसके धर्म का ज्ञान हो जाए और वो दूसरे धर्म के बारे में बेहद ग़ैर ज़िम्मेदाराना टिप्पणी कर बैठे तो ये सचमुच हैरानी की बात है. हालांकि सोनू निगम नो जो बात कही थी उसको समझे बिना ही लोग जिस तरह उन पर टूट पड़े उसे क़तई जायज़ नहीं कहा जा सकता. कुछ मुस्लिम मित्रों ने तो यहां तक कह दिया था कि सोनू निगम आपने अपना एक फैन खो दिया. इससे सोनू की इमेज खराब हुई. मुस्लिम विरोधी छवि बनी गई. ये क़तई उचित नहीं था. विवाद बढ़ता देख अब सोनू निगम डैमेज कंट्रोल में जुट गए हैं. उन्होंने बाकायदा प्रेस कांफ्रेस करके खुद पर लग रहे मुस्लिम विरोधी के आरोपों का खंडन किया है. उन्होंने कहा है कि रफी साहब को वो अपना पिता मानते हैं. उन्होंने अपने मुस्लिम दोस्तों के साथ अपने मुस्लिम ड्राइवर तक के नाम गिनवा दिए.
सोनू निगम के इतना सबकुछ करने के बाद अगर सोशल मीडिया पर उन्हें ट्रोल करने वाले मुस्लिम दोस्तों का ग़ुस्सा ठंडा हो गया हो तो उस मुद्दे पर गंभीरता से बात करें जो सोनू निगम ने उठाया है. सोनू निगम ने सभी धार्मिक स्थलों पर लगे लाउडस्पीकर हटाने की बात कही है. उनकी नजर में ये ज़बर्दस्ती थोपी जा रही धार्मिकता है.
ध्वनि प्रदूषण इस देश में सचमुच एक बड़ी समस्या बन गया है. अगर दो-तीन मिनट की अज़ान से लोगों की नींद में खलल पड़ता है तो सोचिए उन लोगों की हालत क्या होती होगी जो मैरिज हॉल के आसपास रहते हैं. उनकी हालत क्या होती होगी जिनके घर के आसपास कोई रात भर जगराता करता हैं. खुले मैदानों में देर रात तक चलने वाले कवि सम्मेलनों और मुशायरों से भी लोगों को दिकक्त होती होगी. रात-रात भर चलने वाली म्यूज़िक नाइट्स से भी तो लोगों को परेशानी होती है.
चुनाव प्रचार के दौरान राजनीतिक दलों का कानफाड़ू प्रचार भी लोगों को कम परेशान नहीं करता. अगर लाउडस्पीकर परेशानी का कारण है तो देश भर में इसके इस्तेमाल पूरी तरह पाबंदी लगा देनी चाहिए. सिर्फ धार्मिक स्थलों पर या धार्मिक कार्यकर्मों में ही पाबंदी की बात क्यों उठे. अगर लोगों को ज़बरदस्ती थोंपी जा रही धार्मिक गुंडागर्दी बर्दाश्त नहीं है तो फिर सामाजिक और राजनीतकि गुंडागर्दी क्यों बर्दश्त की जाए. अगर ये मुमकिन नहीं है तो फिर जैसा चल रहा है वैसा चलने दीजिए. साथ रहते हुए एक दूसरे की भवनाओं का सम्मान करना सीखिए. वरना बक़ौल ग़ालिब...
'रहिए अब चल कर जहां कोई न हो,
हम सुख़न कोई न हो और हम ज़ुबां कोई न हो.'
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)