सुप्रीम कोर्ट का तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित करने का फैसला देश-समाज को लंबे समय तक प्रभावित करेगा. कुल जोड़-घटाना लगाने पर भी यह फैसला स्वागत योग्य है. इस फैसले में जिस तरह महिला अधिकार, अल्पसंख्यक अधिकार, संसद के अधिकार और धार्मिकता के बीच संतुलन किया गया, काबिले तारीफ़ है. लेकिन बात यहां खत्म नहीं होती है बल्कि शुरू होती है. शुरू होती है बहस सुप्रीम कोर्ट का समाज को संचालित करने में बढ़ता दखल, समाज की कमतर होती भूमिका, कानून बनाने में मुस्लिम समाज की भागेदारी और भावना को ध्यान में रखने करने के तरीके, महिलाओं के अधिकार का मुद्दा वैगरह वैगरह.


यह फैसला ऐसे समय में आया है जब मुस्लिम समाज में सरकार, संसद को लेकर एक चुप्पी है. इस फैसले के बाद शायद यह चुप्पी टूटे. सरकार और संसद के लिए यह विभिन्न पहचान, विरासत, संस्कृति का एक दूसरे का सम्मान के साथ समाज में बिखरते रिश्तों को समटने का मौका हो सकता. यह सब तभी हो सकेगा जब इस बार मुस्लिम समाज बिना हिचके खुलकर अपनी बात रखे. वर्ना सुप्रीम कोर्ट के बहुत सारे फैसलों के बाद बहुत तरह के बने कानून की तरह यह महज सजावटी और दिखावटी ही रह जाएगा.


तीन तलाक को अलग-थलग करके नहीं समझा जा सकता है. इसके साथ निकाह और मेहर को जोड़ कर ही एक पूरी बात बनती है. इसके लिए मुहम्मद साहब पैगम्बर के समय में प्रचलित तौर-तरीकों और कुरान की रोशनी में देखने पर तस्वीर साफ दिख सकती है. वैसे तो स्वस्थ समाज की निशानी है कि बदलाव के अपने तरीके होते है या नए तरीके विकसित करता रहता है. लेकिन अफ़सोस है कि लंबे समय यह नहीं हो पा रहा है. तो कम से कम यही कर ले सुप्रीम कोर्ट इस फैसले को एक उत्सव का मौका का मान कर एक नया माहौल तैयार करने में जुट जाएं.