कॉमेडी में टुच्चापन मुंह के बल गिर पड़ा है. एक्ट्रेस तनिष्ठा चैटर्जी ने इसे धकियाकर गिराया है. कलर्स के कॉमेडी शो बचाओ के खिलाफ उन्होंने जो कमेंट्स दिए हैं- वह काफी गंभीर हैं. शो में वह अपनी फिल्म 'पार्च्ड' के प्रमोशन के लिए गई थीं. लेकिन जब प्रोग्राम के प्रेजेंटर ने उनके स्किन टोन को लेकर मजाक करना शुरू किया तो उन्हें यह अच्छा नहीं लगा. उन्होंने अपना विरोध दर्ज कराया और प्रोग्राम छोड़कर आ गईं. फिर उन्होंने अपने फेसबुक पोस्ट पर इसके खिलाफ जो लिखा, वह सचमुच काबिले तारीफ है.
वैसे स्किन टोन को लेकर इससे पहले भी कई एक्ट्रेसेज अपने विचार प्रकट कर चुकी हैं. नंदिता दास ने तो इसके खिलाफ डार्क इज ब्यूटीफुल नाम से कैंपेन भी चलाया था. कंगना राणौत ने किसी भी फेयरनेस क्रीम का एड न करने की बात कई बार दोहराई है. दीपिका पादुकोण भी यह कहती हैं कि सांवला होना सचमुच खूबसूरत है. लेकिन जिस देश में फेयरनेस क्रीम बेचते हुए कोई एक्ट्रेस ‘लगी शर्त’ कहते हुए सारी पॉपुलैरिटी बटोर ले जाती है और कोई पापुलर एक्टर लड़कों को फेयर एंड हैंडसम बनने की सलाह देता है, वहां सांवलेपन को लेकर तमाम पूर्वाग्रह समझे जा सकते हैं.
यामी गौतम से लेकर, शाहरुख खान और प्रियंका चोपड़ा तक बड़ी बेशर्मी से इन प्रॉडक्ट्स को बेचते हैं और करोड़ो कमाते हैं. ऐसे ही नहीं, देश में फेयरनेस क्रीम का इतना बड़ा मार्केट है. यह मार्केट 3000 करोड़ से भी अधिक का है. फेयरनेस का गजब चस्का देखना है तो मेट्रिमोनियल्स में देखिए. लड़की सुंदर चाहिए तो गोरी भी. कमाऊ भी. पूरी पैकेज डील की मांग की जाती है. हाल ही में लॉरियल कंपनी के पांच स्किन लाइटनिंग प्रोडक्ट्स में मर्करी बड़ी मात्रा में मिला तो महाराष्ट्र सरकार सकते में आ गई.
डब्ल्यूएचओ कहता है कि मर्करी से किडनी फेल्योर और त्वचा संबंधी बीमारियां हो सकती हैं. कुछ दिन हो-हल्ले के बाद हम इस चेतावनी को भूल जाएंगे और कॉस्मैटिक फिर से खरीदने लगेंगे. गोरा होना हमारी सबसे बड़ी जरूरत जो है- नौकरी पाने के लिए, नौकरी बरकरार रखने के लिए, दूसरे जेंडर पर अपनी धाक जमाने के लिए, अच्छा जीवनसाथी पाने के लिए- कॉनफिडेंस जगाने के लिए.
वैसे रंग ही नहीं, शारीरिक बनावट के भी सुतवां होने की दरकार है. खूबसूरत अट्रैक्टिव नहीं दिखोगे तो मर जाओगे. पतले हो तो तंदुरुस्त बनो, ज्यादा ही तंदुरुस्त हो तो स्लिम बनो. चेहरे की काट-छांट करो-लीपा पोती करो. जैसे हो वैसे मत रहो. तभी दम लगा के हइशा की भूमि पेडनेकर फिल्म में कितनी भी मुटाई हुई नजर आएं- असल में स्लिम-ट्रिम, ग्लैमरस अवतार में ही नजर आएंगी. गोरा रंग, सुतवां शरीर न होगा तो मजाक उड़ जाएगा.
आपको कॉमेडी का सबसे ओछा हथियार बना लिया जाएगा. स्टैंड अप आर्टिस्ट कपिल शर्मा अरोड़ा साहब बनकर जब कहते हैं- मुझे आपका मुंह बिल्कुल पसंद नहीं आया तो हम सब दांत निपोर देते हैं. लेकिन मेरा मुंह ऐसा क्यों होना चाहिए जो सभी को पसंद आए. किसी की पसंद के लिए मैं कुछ भी क्यों करूं?
पिछले दिनों एक खबर और आई थी. अफ्रीकी देश घाना ने अपने यहां फेयरनेस क्रीम पर पाबंदी लगा दी है. वहां की 30 परसेंट औरतें फेयरनेस क्रीम का इस्तेमाल करती थीं. घाना ने ऐसा इसलिए किया है क्योंकि इन क्रीम्स से सेहत पर बुरा असर पड़ता है. अपने यहां हम कब चेतेंगे पता नही. वैसे यहां यह बताना भी जरूरी है कि घाना सिर्फ इसी एक मामले में हमसे आगे नहीं. घाना अपने देश की लड़कियों को पढ़ाने पर काफी खर्च करता है. अपनी जीडीपी का 8 परसेंट हिस्सा घाना शिक्षा पर खर्च करता है, जबकि भारत केवल 3.3 परसेंट.
तनिष्ठा फेयरनेस जैसे मुद्दे को उठाकर बात बहुत दूर तक ले जाती हैं. गोरेपन के प्रति हमारा पूर्वाग्रह ऐसा ही है कि किसी के भी रंग को लेकर कमेंट करना हम अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं. हां, रंग से जुड़ा कोई कमेंट कितने जातिसूचक हो सकते हैं, यह बात भी तनिष्ठा की पोस्ट से साफ समझी जा सकती है. वह लिखती हैं कि एक बार किसी ने उनसे पूछा आपका सरनेम चैटर्जी है तो आप ब्राह्मण होती हैं ना.. अच्छा आपकी मां का सरनेम क्या है... मैत्रा.. ओह.. वह भी ब्राह्मण हुईं. तनिष्ठा लिखती हैं कि वह शख्स इनडायरेक्टली कहना चाहता था कि जब मैं ब्राह्मण हूं तो फिर मेरा स्किन टोन डार्क क्यों है?
कोई ब्राह्मण काला कैसे हो सकता है- इसका उलटा यही है कि कोई दलित गोरा कैसे हो सकता है? क्योंकि रंग का ताल्लुक नस्ल से ही नहीं जाति से भी है. अंग्रेजों के नस्लवाद को गालियां देते समय हम भूल जाते हैं कि अपने यहां इस परंपरा का निर्वाह हम सदियों से करते आ रहे हैं. तभी विमल मित्र जैसे फिल्मकार की सुजाता अछूत होने के कारण काली दिखाई जाती है और रमा ऊंची जाति की होने के कारण गोरी.
फणीश्वरनाथ रेणु मैला आंचल में कह चुके हैं, जाति बहुत बड़ी चीज होती है, जात-पांत न मानने वालों की भी एक जाति होती है. सचमुच, यह फर्क आज तक हमारे अंदर कायम है. तभी अपने देश में अफ्रीकियों को पीटते समय हम भूल जाते हैं कि विदेशी मंच पर अपनी सहनशीलता का गुणगान करते हम थकते नहीं.
दरअसल हमारे समाज में कई तरह की लेयर्स काम करती हैं. एक लेयर नस्ल और दूसरी जाति की. यह सब डबल वैमी का काम करते हैं. डबल वैमी का जिक्र बीसवें दशक में अल कैप की कार्टून स्ट्रिप लिल एबनेर में आया था. यानी आपको जो कुछ मिले, वह ठीक वैसे ही हो जैसे करेला और वह भी नीम चढ़ा. नस्ल और जाति आपके लिए डबल वैमी का काम करते हैं. सवर्ण होने पर भी अगर तनिष्ठा के सांवलेपन पर सवाल खड़े किए जाते हैं तो दलितों के लिए सांवलापन कितना बड़ा अभिशाप हो सकता है.
दरअसल तनिष्ठा ने अपना विरोध दर्ज कराते समय एक बहुत दमदार सवाल उठाया है और कॉमेडी के नाम पर ऑफेंसिव कमेंट्स करने वालों के मुंह पर झांपड़ रसीदा है. वैसे सुअर के साथ कीचड़ में कैसे जीतोगे, सुअर को मजा आने लगेगा, मार्क ट्वेन यह समझा गए हैं. तनिष्ठा को यह समझ जाना चाहिए कि कॉमेडी का मार्केट कीचड़ में आनंद तलाशने में माहिर है.