Blog: थाईलैंड में सामूहिक शक्ति ने तेज़-मंद गति से मुसीबत को पछाड़ दिया
हड़बड़ाहट, डर और बदहवासी का माहौल खत्म हो गया. थाईलैंड की लुआंग गुफा में बीते अठारह दिनों से फंसे बच्चों और उनके कोच को बाहर निकाल लिया गया. यूं दुनिया की सबसे दुर्गम गुफा में फंसे बच्चों को निकालना आसान नहीं था, जहां अनिश्चितता ही निश्चित थी. लेकिन सामूहिक शक्ति ने तेज़-मंद गति से मुसीबत को पछाड़ दिया. नन्हें बच्चे सुरक्षित हैं, उनकी तस्वीर चूमकर महसूस हुआ- हमारा अपना बच्चा वापस घर लौट आया है.
यह मिशन इंपॉसिबल ही था. अंडर 16 की इस फुटबॉल टीम के बच्चे गुफा के अंदर घूमने गए थे लेकिन अचानक आई बारिश ने गुफा का बाहरी रास्ता बंद कर दिया और बच्चे गुफा में ही फंस गए. फिर इन बच्चों के लापता होने की खबर के बाद सर्च ऑपरेशन शुरू हुआ. थाईलैंड के अलावा अमेरिका, ब्रिटेन, चीन और सिंगापुर के गोताखोरों की टीम समेत 1,000 लोग इस ऑपरेशन में लग गए. दुश्मन दोस्त बन गए और 2 जुलाई को इस गुफा से बच्चों को ढूंढ निकाला गया. पूरी गुफा पानी से भरी थी और बच्चे गुफा के अंदर एक चैंबर में फंस गए थे. चारों तरफ अंधेरा और आस-पास लबालब पानी था. ऑक्सीजन की कमी थी. पहले कहा गया कि बच्चों को निकालने में चार महीने का वक्त लगेगा लेकिन फिर हाथ बढ़े. सभी ने साथ लिया. भारत ने भी. जोखिम उठाकर बच्चों को निकालना शुरू किया- अब सभी सुरक्षित बाहर आ चुके हैं.
यह एक घटना, हमारी यह याद रखने की कुव्वत का इम्तहान थी कि हम सबसे पहले इनसान हैं. खुशी की बात यह है कि हमने यह याद रखा. सभी ने अलग-अलग जगहों और टाइम जोन से बच्चों के लिए प्रार्थना की. सभी की प्रार्थनाएं मिलकर एक हो गईं- एक बड़ी शक्ति, मानो जीवनधारा बन गई. जाहिर हुआ कि सीमा मुल्कों की है, राष्ट्रों की है. इनसानियत की कोई सरहद नहीं है. हम जमीन पर बाड़ लगाकर सरहद तय सकते हैं- पर इनसानों को अलग नहीं कर सकते. इसीलिए वक्ती बेचैनियों पर मरहम लगाने वालों की कमी नहीं हुई. किसी में न तो हीनता ग्रंथि उपजी, न ही श्रेष्ठता का बोध पैदा हुआ. जीत इनसानियत की ही हुई.
ऐसी जीत तीन साल पहले भी हुई थी. 2015 में सीरिया के तीन साल के आयलान कुर्दी की मृत देह भूमध्य सागर में तुर्की के तट पर पड़ी थी. पत्रकार नीलोफर देमिर ने एक तस्वीर खींची और तंग दिमागी खिड़कियां खुल गईं. शरणार्थी संकट पर सभी का दिल पिघल गया. सीरिया, लीबिया और मध्य पूर्व के शरणार्थियों के लिए तमाम शंकाओं के बावजूद जर्मनी, कनाडा जैसे देशों ने बांहें खोल दीं. खून से लथपथ और आंसुओं से तर, इनसानी क्षुद्रताओं, चालाकियों और बेईमानी से ठगे और थके-मांदे लोगों को राहत मिली. एक मासूम बच्चे की तस्वीर ने महजब के वायदों की नाकामयाबी साबित कर दी. आधुनिकता और टेक्नोलॉजी धड़ाम गिर पड़ी. जनतंत्र और मानवाधिकार के नाम पर की जाने वाली बेरहम क्रूरताओं पर सभी की नजर पड़ी.
बच्चे होते ही ऐसे हैं. बीते कई महीनों के दौरान उनके लिए पूरा लैटिन अमेरिका एक साथ खड़ा हो गया. दुनिया के सबसे ताकतवर देशों में से एक अमेरिका के खिलाफ. दरअसल अमेरिकी सीमा में प्रवेश करने वाले मैक्सिको के लगभग 2,000 बच्चे अपने परिवारों से बिछड़ गए. अमेरिका की सरकार ने मैक्सिको सीमा से आने वाले अवैध प्रवासियों के खिलाफ चार महीने पहले अभियान शुरू किया. बड़ों को हिरासत में ले लिया और बच्चों को उनसे अलग करके कैंप्स में रख दिया. इस मुद्दे ने अमेरिका में उथल-पुथल मचा दी. खुद राष्ट्रपति ट्रंप की बेटी और बीवी उनके विरोध में खड़ी हो गईं. लैटिन अमेरिका के ब्राजील से लेकर वेनेजुएला, होंडूरास से लेकर ग्वाटेमाला तक कई देशों ने साफ कहा- ट्रंप बच्चों के साथ नहीं खेल सकते. राइट-लेफ्ट एक हो गए. आखिर सफल भी हुए. सभी ने दबाव डाला तो अमेरिका ने हथियार डाल दिए. कैलिफोर्निया के कोर्ट के आदेश के बाद अब बच्चों को अपने माता-पिता से मिलाया जा रहा है. तो, फिर से साबित हुआ कि लघुता और विनम्रता ही संसार को चलाते हैं, विराटता और ताकत नहीं. देशों पर चढ़ाई के लिए आप कितने ही झूठे बहाने गढ़ लें- आखिर में आप कायर ही कहलाए जाएंगे, वीर नहीं. जिसके मन में घृणा हो, जो दुनिया के दुखड़े पर आंसू न बहा सके, वह कैसा वीर.
ऐसे वीरों की छवियां थाईलैंड में नजर आईं. बच्चों के 25 वर्षीय कोच एका ने कमाल कर दिखाया. उन्होंने बच्चों की उम्मीद नाउम्मीदी में बदलने नहीं दी. उनके अलावा भी कई लोग तारनहार बने. जिंदगी बचाने की कोशिशों में ब्रिटेन के गोताखोर रिचर्ड स्टैनटन और जॉन वॉलेंथेन, ऑस्ट्रेलिया के गुफा गोताखोर मेडिक डॉ. रिचर्ड हैरिस, डेनमार्क के गोताखोर ईवान कारदजिक जैसे लोगों ने अपनी जान की परवाह नहीं की. इसके अलावा ऑस्ट्रेलिया के 17 पुलिस गोताखोरों, अमेरिका के 36 मिलिट्री पैसेफिक कमांड पर्सनल्स और चीन के छह रेस्क्यू स्पेशलिस्ट्स ने भी इस अभियान में हाथ बंटाया. कइयों के नए रंग खुले. द्वेष और भेद की दृष्टि मिट गई. उम्मीद की यह कंदील रौशन हुई कि प्रेम, करुणा और सहानुभूति ही अंतिम हैं. बेशक हिंसा और घृणा हम सबके भीतर है लेकिन उनके प्रति सजग रहना और उनसे संघर्ष करना ही हमारा कर्तव्य है. क्योंकि हिंसा विजित और पराजित सबके लिए दुख का कारण बनती है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)