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टॉयलेट बनवाने से पहले टॉयलेट जाने का हक तो दीजिए

घरों में टॉयलेट बनवाने के लिए देश में औरतों को कई तरह के अजीबो-गरीब प्रण लेने पड़ रहे हैं. स्वच्छता मिशन के बाद कोई अपने गोरू को बेच रही है ताकि घर में टॉयलेट बनवाया जा सके तो कोई सोने के गहने ना पहनने का प्रण कर रही है, जब तक कि उसके घर में टॉयलेट नहीं बन जाता. लेकिन हमारे यहां औरतों को सिर्फ टॉयलेट बनवाने के लिए ही नहीं, टॉयलेट जाने देने के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है. यह कुछ हैरान करने की बात है, लेकिन है यह सोलह आने सच.

केरल के टेक्सटाइल रीटेल सेक्टर में काम करने वाली औरतें इस अधिकार के लिए लड़ रही हैं. उन्हें अपनी कंपनियों में काम के दौरान बाथरूम ब्रेक्स चाहिए. जो उन्हें सम्मानजनक तरीके से नहीं मिलता. यह मानवाधिकार हनन का मसला है और इस संबंध में एनएचआरसी (राष्ट्रीय मानवाधिकर आयोग) में शिकायत की गई है. हमारे देश के मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की नैया औरतों की वजह से ही पार हो रही है.

गारमेंट मैन्यूफैक्चरिंग में तो 70 परसेंट से अधिक औरतें काम करती हैं. लेकिन उन्हें बेसिक राइट्स भी नहीं मिलते. बहुतों को काम के दौरान पूरा समय खड़ा होना पड़ता है और बाथरूम जाने के लिए परमिशन लेनी पड़ती है. कई बार रजिस्टर में इंट्री भी करनी पड़ती है या पंचिंग करनी पड़ती है ताकि सुपरवाइजर को यह पता चल सके कि बाथरूम के लिए कितनी देर का ब्रेक लिया गया है. कई बार मॉल की दुकान या बिजनेस यूनिट के बिल्डिंग प्लान में बाथरूम होते ही नहीं है. कहीं-कहीं बाथरूम सिर्फ कस्टमर्स के लिए रिजर्व होता है. कहीं-कहीं औरतों के लिए अलग से बाथरूम नहीं होते. होते भी हैं तो पूरी तरह से सुरक्षित नहीं. टूटी खिड़की वाले- बिना पानी और डस्टबीन वाले, बिना चिटखनी वाले गंदे. ऐसे में औरतों की दिक्कत को आसानी से समझा जा सकता है.

इस बारे में केरल की सेल्स गर्ल्स के एक संगठन की तरफ से एनएचआरसी में शिकायत दर्ज की गई है. उनकी वकील का कहना है कि सेल्स गर्ल्स की शिफ्ट 12 घंटे की होती है जिसके बीच में उन्हें बैठने की परमिशन नहीं होती. बाथरूम ब्रेक भी मिलना मुश्किल होता है, जिसके लिए उन्हें सुपरवाइजर के लगभग हाथ ही जोड़ने पड़ते हैं. बेशक बाथरूम जाने देना हमारा मानवाधिकार ही तो है. वकील की शिकायत के बाद एनएचआरसी ने केरल सरकार को नोटिस दिया. लेकिन नोटिस पर अमल महीनों बीतने के बाद भी नहीं हुआ. वैसे केरल की जिस सरकार को मजदूरों की सरकार कहा जाता है, वह महिला मजदूरों के हक के लिए चुप कैसे रह सकती है?

वैसे राज्य कोई भी हो, हालात एक से हैं. दिल्ली के एनसीआर रीजन में गारमेंट मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट्स की स्थिति भी यही है. यहां भी औरतें इसी हक के लिए लड़ रही हैं. इनकी संख्या दो लाख से ज्यादा है. रोजाना का टारेगट फिक्स है, 12 घंटे की शिफ्ट में सैकड़ों कपड़े तैयार करने हैं जिन्हें चमचमाते शानदार मॉल्स की दुकानों पर बेचा जाना है. ऐसे में लगातार काम करना पड़ेगा. तो बाथरूम जाने या पानी पीने देने से समय बर्बाद होगा. कपड़े बनाने के लिए सिलाई मशीन पर काम करना है तो वर्कर को बैठने देना होगा. पर जिन दुकानों में ये कपड़े बिकेंगे, वहां उन्हें बेचने वाली लड़कियों को खड़े होकर ही कपड़े दिखाने होंगे. बैठने से काम में कोताही नहीं होगी क्या?

यह टॉयलेट कथा कुछ भदेस लग सकती है. टॉयलेट राइट्स, अगर इसे कहें तो सबसे पहला अधिकार है. फूड सिक्योरिटी की तरह टॉयलेट सिक्योरिटी भी बहुत जरूरी है. लेकिन इस पर सबसे कम ध्यान दिया जाता है. खुले में शौच का बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है लेकिन यह सिर्फ एकांगी मुद्दा नहीं है. यहां तो मुद्दा यह है कि शौच के लिए जाने भी दिया जाए. जब इस बेसिक राइट का मिलना ही मुश्किल हो रहा है तो 481 रुपए की दैनिक न्यूनतम मजदूरी की कौन बात करे जो सिर्फ फॉर्मल सेक्टर में औरतों को मिलती है. यहां तो इनफॉर्मल सेक्टर की अनेकानेक औरतें अपने टॉयलेट राइट्स की बात कर रही हैं. औरतों को उनके हिस्से का हक मिलना ही चाहिए.

'हमने कंट्रोल करना सीख लिया है'. एक बार मुंबई के 'राइट टू पी' नाम के एक कैंपेन के जुलूस में एक घरेलू कामगार ने यह बात कही थी. 'राइट टू पी' यानी पेशाब करने के अधिकार का शुरुआत में काफी मजाक उड़ाया गया था. लेकिन है तो यह भी एक अधिकार. तो, इसके जुलूस में कुछ कामवाली बाइयां भी शामिल हुई थीं. उनका कहना था कि घरों में काम के दौरान उन्हें बाथरूम का इस्तेमाल नहीं करने दिया जाता. इसीलिए उन्होंने 'कंट्रोल' करना सीख लिया है. डॉक्टर कहें तो कहें कि इससे किडनी पर असर होता है. कई तरह की बीमारियां होती हैं. यहां बात रोजगार की है. आपने टॉयलेट राइट की बात की तो काम से हाथ धोना पड़ सकता है. तो बाहर कहां जाएं, शहरों में औरतों के लिए पब्लिक टॉयलेट्स बहुत कम हैं. जो हैं वे पब्लिक प्लेसेज में हैं जहां पेशाब जाने के लिए रुपए चुकाने होते हैं. तो किसी तरह से कंट्रोल कर लिया जाता है.

यह अलग तरह का क्लास डिफरेंस है. कामवाली बाई को घरों में टॉयलेट का इस्तेमाल नहीं करने देना. किचन में उसे इंट्री देना आपकी मजबूरी है क्योंकि उनके बिना आपका काम चलने वाला नहीं. झूठी प्रतिष्ठा किचन में प्रदर्शित नहीं हो पाती तो उसे मल-मूत्र में प्रदर्शित किया जाता है. अगर मेरे किचन में ऊंच-नीच नहीं रहेगी तो कम से कम टॉयलेट में ऊंचा बनकर तो दूसरों को नीचा दिखाया ही जा सकता है.

पिछले दिनों चेन्नई में कामवाली बाइयों के एक जुलूस में तमाम तरह की मांग रखी गईं. जिनमें से एक मांग यह भी थी कि उन्हें काम करने की जगह पर बाथरूम का इस्तेमाल करने दिया जाए. औरतों को भले ही कंट्रोल करना सिखाया जाता है लेकिन बात कंट्रोल से बाहर हो चुकी है. 1948 का फैक्ट्री एक्ट कहता है कि हर इस्टैबलिशमेंट में औरतों के लिए अलग से शौचालय होना ही चाहिए. लेकिन कानून क्या कहता है, इससे किसी को क्या करना. हमारे यहां कानून तोड़ने की अपनी ही ठसक है.

बैंगलोर के एक एक्टिविस्ट वासुदेव शर्मा ने रोड ट्रांसपोर्ट और हाइवे मिनिस्टर नितिन गडकरी से हाइवेज पर औरतों के लिए टॉयलेट बनवाने की अपील की तो बहुत से लोगों ने इसे सीरियसली नहीं लिया. लेकिन इस जेनुइन प्रॉब्लम को समझने की जरूरत है. तभी इस अपील पर हस्ताक्षर करने वाली महिलाओं में से कई ने यह भी कहा कि इस प्रॉब्लम से निपटने के लिए हम सेनेटरी पैड्स का प्रयोग करते हैं. बेशक, छोटी-छोटी फैक्टरियों में दिन भर खटने वाली गरीब औरतों को यह महंगी फेसिलिटी नहीं चल सकती. उन्हें हमें उनकी टॉयलेट सिक्योरिटी दिलानी ही होगी.

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