BLOG : ऐसे मारक सवालों पर आंखें नम हो जाती हैं
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गौरी सावंत की कहानी को टीवी पर देखकर गदगद होने वालों... सड़कों पर भीख मांगते ट्रांसजेंडरों को देखकर मुस्कुराना बंद कर दीजिए. उन्हें प्यार से मिलिए और फिर उनकी कहानियां सुनिए. सैकड़ों गौरी मिल जाएंगी. क्रांतियां परदे पर नहीं होतीं, और ही किसी कहानी में. सोसायटी के बदलने के लिए हमें खुद बदलना होता है. आइना अपने सामने रखिए और सबसे पहले अपने आप को देखिए.
गौरी सावंत एक ट्रांसजेंडर है जिसने गायत्री को गोद लिया है. जिन्होंने उनकी कहानी विक्स के एड में नहीं देखी, वह उन्हें नहीं जानते होंगे. विक्स के एक एड में गायत्री नाम की बच्ची अपनी मां को शुक्रिया कहती है कि उसने उसे तब गोद लिया, जब उसकी बायोलॉजिकल मां की मौत हो गई. जब उसका कोई नहीं था तो गौरी उसका सहारा बनीं. गौरी चाहती हैं कि गायत्री डॉक्टर बने, लेकिन गायत्री वकील बनकर अपनी मां (और दूसरे ट्रांसजेंडरों) को उनके सिविल राइट्स दिलवाना चाहती है.
विज्ञापन ऐसा मारक बनाया गया है कि आंखें नम हो जाती हैं. लेकिन नमी को पोंछकर यह देखने की भी जरूरत है कि क्या हमारे देश में गौरी जैसों के लिए किसी को एडॉप्ट करना इतना आसान है. गौरी ने गायत्री को गोद लिया है ममत्व के कारण. लीगली नहीं- क्योंकि लीगली ट्रांसजेंडरों को गोद लेने का अधिकार हमारा कानून देता ही नहीं. एडॉप्शन के कानून तीन तरह के लोगों को बच्चों को लीगली गोद लेने का हक देते हैं- औरत, आदमी और कपल्स.
महिला और बाल कल्याण मंत्रालय की एक संस्था है द सेंट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी (कारा) जिसके जरिए कोई भी एडॉप्शन के लिए एप्लाई कर सकता है. इसकी वेबसाइट पर ऑनलाइन रजिस्टर करने पर आपको इन्हीं तीन कैटेगरीज में अपना नाम दर्ज कराना होगा. सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में एक केस में जब अहम फैसला सुनाते हुए किन्नरों या ट्रांसजेंडरों को तीसरे लिंग के रूप में पहचान देने की बात कही थी तो स्त्री-पुरुष और ट्रांसजेंडरों की तीन कैटेगरीज बनाई गई थीं. लेकिन सभी सरकारी मशीनरियों में इसे लागू नहीं किया गया. कुल मिलाकर एडॉप्शन के नियमों में चौथी श्रेणी है ही नहीं. मुस्कुराइए कि हम इक्कीसवीं सदी में रहते हैं...
एडॉप्शन हमारे यहां वैसे बहुत अपनाया जाने वाला विकल्प नहीं. बायोलॉजिकल चाइल्ड को लेकर सामाजिक मान्यता जुड़ी हुई होती है और ‘किसी और के खून को गले लगाना’ बहुत मुश्किल काम होता है. फिर जाति-पात, गोत्र, धर्म, संप्रदाय- छुआ-छूत जैसी ढेरों वर्जनाएं भी हैं. कल्पना के दस्तरखान पर ख्याली पुलावों की प्लेटें सजाना एक बात है और जमीन पर आना दूसरी बात. जब आप एडॉप्शन के विकल्प पर विचार करने के लिए आगे बढ़ते हैं तो सवाल आप पर ही खड़े किए जाने लगते हैं.
वैसे एडॉप्शन के कानून हमारे यहां यूं भी काफी जटिल हैं. इसके लिए सालों एड़ियां चटकानी पड़ सकती हैं. आपको लंबी कतार में लगना पड़ सकता है. आप अविवाहित लड़की हैं तो अलग प्रोविजन. उसे 30 साल से कम और 50 साल से अधिक का नहीं होना चाहिए. अगर अविवाहत लड़के हैं तो आप बच्ची को गोद नहीं ले सकते. इसके अलावा कारा के ही आंकड़े कहते हैं कि फॉर्मल सिस्टम में लीगली बच्चे को एडॉप्ट करने के लिए 14,000 लोग लंबी कतार में लगे हैं. जब स्वीकृत कैटेगरीज को ही एडॉप्शन के लिए इंतजार करना पड़ सकता है तो किसी नई कैटेगरी को इसमें शामिल करने का बवाल कौन मोल ले?
![फोटो क्रेडिट- सोशल मीडिया](https://static.abplive.com/wp-content/uploads/sites/2/2017/04/08175335/714.jpg)
चौथी श्रेणी कब बवाली नहीं है. ट्रांसजेंडरों को लेकर तो हम वैसे भी सदमे में जीते हैं. एक डर और ‘छी-छी’ की भावना से भरे हुए. प्यार से परे. उनके लिए मन में प्यार और इज्जत नहीं रखते तो यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि वे किसी से प्यार कर सकते हैं. वात्सल्य यूं भी स्त्रियोचित गुण माना जाता है. परिवार में पिता सिर्फ कड़क आवाज में बात करता है. उसका प्यार छलक कर किसी को भिगो न दे, इसका पूरा ध्यान रखा जाता है. मां ममता की मूरत होती है- आंचल में है दूध, आंखों में पानी टाइप. लेकिन वात्सल्य को जेंडर स्पेसिफिक बनाकर हम औरतों पर नैतिक दबाव ही बनाते हैं. औरतों को हमेशा लगता रहे कि अगर वे प्यार नहीं दे पाईं- बच्चों का ध्यान नहीं रख पाईं तो अक्षम्य अपराध कर दिया. वर्किंग मदर्स हमेशा इसी अवसाद में डूबी रहती हैं.
पूरा का पूरा मीडिया भी उन्हें इस अपराध बोध से ग्रस्त करने में पीछे नहीं रहता. करण जौहर के एक शो में शाहिद कपूर की बेटर हाफ मीरा राजपूत ने कहा था- वह दूसरी वर्किंग मदर्स की तरह अपनी बच्ची को पप्पी की तरह ट्रीट नहीं कर सकतीं. पप्पी यानी कुत्ते का पिल्ला. उफ्फ... वर्किंग मदर्स बच्चों को कैसे पालती हैं! बच्चों को पालना तो औरतों का ही काम है. तभी मेटरनिटी बेनेफिट कानून बनाते हुए सरकार ने औरतों को छह महीने की मेटरेनिटी लीव देने का प्रावधान किया- लेकिन पिता को इस जिम्मेदारी से फारिग कर दिया गया. वह घर पर रहेगा तो औरत के लिए मुसीबत ही करेगा- खुद मंत्री महोदया ने यह कहा था.
मुसीबत करता है तभी उसे मुक्त कर दो. अक्सर हम उपद्रवी बच्चों को बाहर खेलने के लिए इसीलिए भेजते हैं ताकि घर पर शांति बनी रहे. लेकिन आदमी कोई बच्चा नहीं, भरा-पूरा इंसान है. पेटरनिटी लीव या दूसरी जिम्मेदारियों से वंचित करके हम उसके वात्सल्य को एक्नॉलेज नहीं करते तो उसके साथ भी अन्याय करते हैं. फिल्म 'तारे जमीं पे' का ‘मेरी मां’ वाला गाना लिखने के बाद प्रसून जोशी को कुछ पुरुषों ने खत लिखकर नाराजगी जताई कि इसमें पिता को इतना कठोर क्यों पेश किया गया है. तब प्रसून ने पिता पर एक कविता लिखी और उसे जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में पढ़ा. इसमें प्रसून ने कहा-मां की तारीफ में पिता के प्रति नाराजगी/ स्वतः ही आ जाती है शायद/क्या पिता का दोष पिता होना है, पुरुष होना है...
![फोटो क्रेडिट- सोशल मीडिया](https://static.abplive.com/wp-content/uploads/sites/2/2017/04/08175431/525.jpg)
ऐसे में गौरी सांवत का एड भला लगता है. वात्सल्य की छिपी सी परिभाषा को अधखुला करता है. इसे पूरा खोलने का काम हमें करना होगा. हर एंगल पर बौद्धिक विलास या व्यर्थ का प्रलाप करने की जरूरत नहीं है. एडॉप्शन ही नहीं, नए सेरोगेसी कानून में भी ट्रांसजेंडरों को शामिल किए जाने की जरूरत है. वात्सल्य पर उनका भी हक है जिसे उन्हें मिलना ही चाहिए.
वैसे कुछ अच्छी खबरें भी हैं. 3 अप्रैल को पेय जल और स्वच्छता मंत्रालय ने स्वच्छ भारत मिशन को एक गाइडलाइन जारी किया है जिसमें कहा गया है कि ट्रांसजेंडर अपनी मर्जी से लड़की या लड़के वाले टॉयलेट का इस्तेमाल कर सकते हैं. इधर 26 साल की के. पृथिका यशिनी भारत की पहली ट्रांसजेंडर सब इंसपेक्टर बन गई हैं. 2 अप्रैल को उन्होंने तमिलनाडु के धरमपुरी जिले का चार्ज संभाला है. जाहिर है, यह अच्छी शुरुआत है. गौरी की बेटी गायत्री की कहानी फिर देखिए और सेंसिटिव बनिए. साथ ही, उन्हें कानूनी हक भी दिलाइए.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)
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