उत्तराखंड में भाजपा सरकार त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में एक साल पूरे हो गए. इस राज्य की राजनीतिक अस्थिरताओं के बीच जब पहली बार एक सरकार अपने लिए प्रचंड बहुमत के साथ आई तो यही माना गया कि नेतृत्व करने वालों को पार्टी स्तर पर सहयोगी दलों के स्तर पर किसी तरह का समझौता करने की बाध्यता नहीं रहेगी. राज्य सरकार अपनी उपलब्धियों को बताने के लिए समारोह का रूप दिया है. लेकिन जगह-जगह गैरसैण को राजधानी बनाने के लिए खड़ा हुआ आंदोलन यह साफ बता रहा है कि अपेक्षाएं अभी अधूरी हैं.


यहां तक भाजपा के पक्ष में 57 सीट लाने पर उसे सत्ता के पहले प्रहर में कांग्रेस के उन बागियों की भी ज्यादा चिंता नहीं करनी थी, जो भाजपा के शामियाने में आए और ऐसा हुआ भी नहीं. त्रिवेंद्र सिंह रावत सत्ता में बैठने से पहले ही कांग्रेस से भाजपा में आए लगभग सभी नेता साफ साफ इशारा कर चुके थे कि पार्टी के अनुरूप ही चलेंगे.


देखा जाए तो राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में अपने को राजनीतिक अस्थिरता के दौर में ही पाया. सत्रह साल में आठ मुख्यमंत्रियों को अपने बीच पाया जो कोई अच्छा संकेत नही था. इससे पहले भी बीजेपी सरकार बनी लेकिन उसे उक्रांद का सहारा लेना पडा. बहुमत की लकीर इतनी नाजुक थी कि सरकार बस किसी तरह चलती रही. साथ ही अपने अंर्तविरोध भी खुल कर सामने आते रहे. इस चुनाव से पहले सारे समीकरण बीजेपी के पक्ष में जाते दिखे.


कांग्रेस के अंदर की बड़ी बगावत,  हरीश रावत का कथित स्टिंग, सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप,  चुनाव आते-आते यशपाल आर्य जैसे नेताओं का भी बीजेपी आ जाना और कांग्रेस की अंदरूनी कलह हर स्थिति कांग्रेस को चित्त कर रही थी. ऊपर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निजी स्तर पर राज्य के विकास में दिलचस्पी दिखाने की भाव-भंगिमा ने  उत्तराखंड के मतदाताओं को कमल पर बटन लगाने के लिए प्रेरित कर दिया.


त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार बनने के बाद रूठना मनाने के दृश्यों की ज्यादा संभावना नहीं थी. फिर भी इसके बिना मंचन पूरा कहां होता. हल्की सी सुगबुगाहट और नाराजगी सतपाल महाराज ने अपनी तरफ से दिखाई और महसूस कराना चाहा कि उनके रुतबे की अनदेखी हुई. लेकिन समय के साथ वह भी समझ गए कि अभी स्थितियां ऐसी नहीं कि किसी तरह के असंतोष को जाहिर किया जाए.


त्रिवेंद्र सिंह रावत ने के सामने राज्य चलाने में जो स्पष्ट चिताएं थी उनमें रोजगार का सृजन न हो पाना,  लगातार पलायन होना,  आर्थिक समृद्धि के प्रयास न होना और  पहाडों की अनदेखी होना जैसे सवाल खड़े थे. प्रधानमंत्री मोदी अपनी सभाओं में उद्घोष भी करते रहे कि पहाड़ों की जवानी और पहाड़ों का पानी पहाड़ों के काम आएगा. इस प्रदेश को एक आदर्श प्रदेश बनाएंगे.


एक तरफ पर्यटन की संभावनाओं के जरिए आशा जगाने की कोशिश की गई दूसरी तरफ राज्य सरकार बनते ही पीएम मोदी के हाथों केदारनाथ में पांच शिलान्यास किए गए. इसके जरिए आश्वस्त किया गया कि यह क्षेत्र उनकी निगाह में है. इसके अलावा आल बेदर रोड का प्रचार प्रसार में भी कोई कमी नहीं की गई. यह एक तरह से राज्य को नई दिशा दशा देने की पहल के तौर पर लोंगो को प्रभावित करने की कोशिश थी. माना गया कि अगर आल वेदर रोड अपने अस्तित्व में आती है तो इससे न केवल पलायन रुकेगा बल्कि यह पहाड़ों के पर्यटन विकास को नया आयाम देगी.


राज्य के प्रतिभावान और अपनी ऊंची शख्सियत रखने वाले कुछ नामी लोगों को राजधानी में बुलाकर आह्वान किया गया कि वे राज्य की प्रगति में अपना सहयोग दें. इसके विकास उत्थान के लिए अपनी अवधारणा को सामने रखें. सरकार ने कृषि, पर्यटन, आयुष और योग जैसे हर क्षेत्र में राज्य को विकसित करने का एक प्रारूप दिखाया.


बीते सत्तरह साल से उत्तराखंड के लोगों ने राजनीति के जरिए दिवास्वपन ही देखा. हर सत्ता ने अपनी तरफ से लुभावनी बातें की. लेकिन राज्य कभी ऐसा कुलांचे भरता नहीं दिखा कि उत्तराखंड आंदोलन का औचित्य पूरा होता दिखे. उत्तराखंड को बनाने की धारणा यही थी कि इसे पहाड़ो के अनुरूप, वहां की विकास संभावनाओं के अनुरूप एक आदर्श राज्य के तौर पर विकसित किया जाएगा. पहाड़ों का विकास पहाड़ों के अऩुरूप नहीं हो पा रहा था. यहां की जटिल स्थितियों, यहां की बुनियादी सुविधाओं का अभाव और विकास की स्पष्ट अवधारणा न होने से यह पिछड़ता चला गया. उपेक्षा के दंश में ही इस भावना का संचार हुआ था कि उत्तराखंड के रूप में एक अलग राज्य बनाना है.


उत्तराखंड की उथल-पुथुल राजनीतिक परिस्थितियों के बीच जब पहली बार बीजेपी सरकार अपना स्पष्ट जनादेश लेकर आई तो यही लगा कि त्रिवेंद्र के नेतृत्व वाली यह सरकार ठोस कदमों के साथ अपनी दिशा में आगे बढेगी.  राज्य को हताश करने वाली कुछ चीजें सामने दिख रही थी. खेती का रकवा लगातार कम होना, तेजी से पलायन होना,  नए उद्यमों का राज्य के प्रति रुझान न दिखाना, गांवों के उजाड़ होना या बुनियादी सुविधाओं से वंचित रहना ऐसे कसौटियां थी जिनसे नई सरकार को जूझना था.


केदारनाथ की आपदा ने जो विपत्ति के चिन्ह छोड़े हैं उनमें सरकार को केदारनाथ के पुननिर्माण के बारे में तो कदम उठाने ही थे और साथ ही अपेक्षा यह भी थी कि पर्यटन के नए सर्किट तैयार किए जाए. सरकार की तरफ से तेरह जिलों में तेरह पर्यटन सर्किट बनाने के अलावा पूरे प्रदेश में ऐसे पर्यटन स्थलों को सुविधाओं से संपन्न करने की जिम्मेदारी भी थी. नई सरकार ने केदारनाथ पर काफी फोकस किया और पुनर्निमाण के लिए आवश्यक धन भी आबंटित किया. लेकिन पर्यटन प्रदेश बनाने के लिए जिस त्वरिता के साथ पूरे राज्य भर में काम होना था उसकी छटा कम दिखी.


दरअसल केदारनाथ प्रोजेक्ट को कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने अपनी नाक का सवाल बनाया. पर्यटन के लिए टिहरी झील को भी एक संभावना के तौर पर देखा गया था. कहा जाना चाहिए कि पौड़ी, कौशानी, अल्मोड़ा और खिर्सू जैसे स्थल विकास की बाट जोह रहे हैं. लोगों के स्तर पर लोगों की अपनी निजी कोशिश तो दिखती है लेकिन सरकार या नौकरशाही के स्तर पर इसे अपेक्षित गति नहीं मिली. पर्यटन न केवल यहां की आर्थिक स्मृद्दि को बढाने वाला होना चाहिए था बल्कि वह रोजगार भी सृजन करता.


ग्रामीण पर्यटन के लिए भी खास काम नहीं हो पाया. पिछले डेढ़ दशक से कृषि क्षेत्र लगातार कम होता जा रहा है. लेकिन बागवानी, मत्स्य पालन, आयुष और जड़ी बूटी जैसे तमाम क्षेत्रो में प्रोत्साहन के लिए जो माहौल दिखना चाहिए था उस दिशा में और कोशिश होनी चाहिए. सरकारी फाइलो में योजनाओं और उपलब्धियों का ब्यौरा खूब दिखा. लेकिन चमोली का माल्टा बाहर नहीं आ पाया. उत्तरकाशी और अलमोड़ा का सेब किसानों से औने-पौने दामों में खरीदा गया है. जंगली जानवरों से भी खेती और बागवानी नष्ट होती रही. उत्तराखंड में पिछले सत्रह सालों में कृषि बागवानी के ढांचे को सही स्वरूप देने के लिए ढंग से कोई पहल नहीं हुई है.


बरसो पुराने बने सिस्टम में कुछ खेती हो जाती है और कुछ फल उग जाते हैं. लेकिन न बाजार है न विपणन.  धीरे-धीरे आड़ू, खुमानी, पुलम, नारंगी, संतरा और माल्टा कम होते जा रहे हैं. यहां की दालों में पौष्टिकता है लेकिन दालों के नाम पर यहां से सस्ते कीमतों पर दाल बाहर जाती है. फूलों का कारोबार फल-फूल सकता था लेकिन फूल कारोबार को बढ़ाने के लिए प्रयास नहीं हुआ. बेशक राजभवन में बसंतोत्सव मनाकर फूलोत्पादन को बढ़ावा देने की पहल की जाती है लेकिन धरातल पर राज्य बनने के बाद ऐसा बडा प्रयास नहीं हुआ कि यह फूलों का प्रदेश बन सके.


नई सरकार के सामने कृषि, बागवानी और पशुधन विकास जैसे पहलूओं में आमूलचूल परिवर्तन की अपेक्षा की जाती है. कृषि पर उत्तराखंड भले ही सिमटता हो लेकिन बागवानी , पशुधन, औषधि, मत्स्य पालन और पुष्पोत्पादन तमाम चीजों से इस राज्य की आर्थिक स्थिति सुधर सकती है. नवरोजगार के लिए पर्यटन, योग और साहसिक खेल इसे उन्नत राज्य के रूप में आगे ला सकते हैं.


देखा गया कि राज्य के मंत्री नेता जिस आयोजन में जाते हैं उसमें प्रदेश की व्याख्या करके आते हैं. कभी उनके लिए यह पर्यटन प्रदेश बन जाता है, कभी आयुष प्रदेश, कभी जल प्रदेश, कभी हिम तो कभी बुग्यालों की बात होती है. लेकिन सही मायने में राज्य जाना किस तरफ है इसकी सही-सही परिकल्पना अभी तक नहीं बनी है. केवल कुछ चीजों पर फोकस हो पाता है. लेकिन जिस तरह वाई एस परमार ने हिमाचल प्रदेश के लिए और यशवंत राव चव्हाण ने महाराष्ट्र की उन्नति के लिए पूरे अध्ययन के जरिए सोच समझकर एक प्रारूप तैयार किया और राज्य को उस दिशा में चलाने की कोशिश की....जंगल बचाओ जैसे आंदोलन को जन्म देने वाला यह प्रदेश अपने विकास के लिए रूपरेखा तय नहीं कर पाया.


हर नई सत्ता लगभग पिछली सत्ता का ही अऩुसरण करती दिखी. सवाल यही खड़ा है कि आज भी प्रदेश के ऊपर 40 हजार करोड़ रुपये का कर्ज है. राज्य विकास की संभावनाओं की वाट जोहता दिख रहा है. त्रिवेंद्र रावत जब मुख्यमंत्री बने तो उनकी तुलना सीधे-सीधे यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से होनी लगी. योगी एकदम तेजतर्रार माने गए और त्रिवेंद्र सिंह रावत को धीमी रफ्तार से चलने वाले नेता के तौर पर प्रचारित किया गया. एक सुलझे नेता की तरह त्रिवेंद्र ने तब कहा था कि पहाड़ों की अलग स्थितियां हैं. यहां धीमे चलकर आप लक्ष्य पा सकते हैं. इस बयान से वह अकारण चर्चा तो थम गई लेकिन अब एक साल बाद सत्ता की ओर देखा जाना स्वभाविक है कि राज्य कहां तक और कितना चल पाया है.


खासकर तब जबकि राजनीति में एक दो हल्के प्रहसनों के बावजूद त्रिवेंद्र की सत्ता निद्वंद चलती रही. हर फैसले उन्होंने अपने स्तर पर लिए. चाहे मंत्रियों के विभाग, निजी और मीडिया सलाहकारों की नियुक्ति हो या फिर राज्यसभा के लिए अनिल बलूनी के रूप में अपनी पसंद और सुविधा के व्यक्ति का चयन. राज्य सिसायत में यह बखूबी पढ़ा गया कि त्रिवेंद्र रावत हाईकमान के लिए ब्लू आईस ब्यॉय की तरह हैं.


त्रिवेंद्र सिंह रावत की सत्ता के समय गैरसैण को राज्य बनाने का आंदोलन की पटकथा भी तैयार होने लगी है. जगह-जगह चिंगारी सुलग रही है. गैरसैण को राजधानी बनाने में कोई असहमत नहीं दिखता. उत्तराखंड की स्थाई राजधानी का मसला 17 साल से अटका हुआ है. यहां तक कि गैरसैण के नाम पर राज्य की दो राजधानी बनाकर इसे ग्रीष्मकालीन राजधानी का सुझाव आया तब भी कई सवाल खडे हो गए. गैरसैण के नाम विधान भवन सचिवालय के शिलान्यास और  विधायक निवास भूमि का पूजन जैसी आपौचारिकताओ के बीच उत्तराखंड ने यह भी देखा कि करोडों रुपए खर्च करके यहां विधानसभा के सत्र दो दिन में कुछ मिनट की कार्यवाही के बाद निपटा दिए गए. अब गैरसैण के नाम पर आंदोलन की तैयारी हो रही है. जिस तरह श्रीनगर, पिथौरागढ और नैनीताल से लेकर दिल्ली से चंडीगढ तक के उत्तराखंडी समाज में हुंकार भरी जा रही है उसके पीछे यही भावना है कि कहीं न कहीं राज्य की अपेक्षाएं अभी पूरी नहीं हुई है. बेशक गैरसैण आंदोलन अब तक की बीजेपी या कांग्रेस सभी सत्ताओं के प्रति एक आवेश हैं. लेकिन वर्तमान में तो इससे त्रिवेंद्र के सत्ता को ही जूझना है. इस सत्ता को बताना भी पड़ेगा कि एक साल में राज्य के हालातों को बदलने के लिए आखिर किया क्या गया?


सरकार ने पलायन आयोग बनाया है. लेकिन सरकार को बताना होगा कि इस पलायन आयोग के ढांचे को जिस तरह खड़ा किया गया है उसमें उसके उद्देश्य कहां तक पूरे हो रहे  हैं? वास्तव में यह किस सिस्टम से काम कर रहा है? जिन चीजों के लिए आह्वान किया गया वे पटरी पर किस स्तर पर उतरे हैं? रोजगार सृजन की नई संभावनाएं कहां से  उत्पन्न हो रही हैं? सुदूर पहाडों के जीवन में बदलाव के लिए क्या क्या प्रयास हो रहे हैं? ऐसे समय जब बीजेपी युवा और नए चेहरों को आगे लाने की पहल दिखा रही हो तब इस राज्य को बेहद अपेक्षाएं हैं.


उत्तराखंड की दशा के लिए अब तक राजनीतिक अस्थिरता को जिम्मेवार माना जाता था. यही कहा जाता रहा है कि नेतृत्व करने वाले के सामने ऐसी विवशताएं हैं कि वह न तो विकास कामों को देख पा रहे हैं न नौकरशाही को नियंत्रित कर पा रहे हैं. उनका समय सत्ता के संतुलन को बनाने में ही निकल जाता है. मनाने समझाने की व्यवहारिक दिक्कतों के बीच राज्य को ठीक से हांका नहीं जा रहा. लेकिन जिस स्थिति में त्रिवेंद्र हैं वह उनके पूर्ववर्तियों के काफी अलग है. सत्ता का विरोध हमेशा होता है, रणनीतियां भी बनती है और जाल भी बुने जाते हैं. लेकिन बहुत साफ है कि उत्तराखंड के अब तक मुख्यमंत्रियों में सबसे ज्यादा अनुकूल हालात त्रिवेंद्र सिंह रावत के लिए ही रहे हैं. उनके सामने सत्ता की चुनौतियां जरूर होंगी लेकिन पल पल का संकट नहीं है. वह बेहतर ढंग से अपने शासन मे इस प्रदेश के विकास कर सकते हैं. लेकिन कहीं तो समस्याएं खड़ी है कि लोग गैरसैण की बात कर रहे हैं.


कहीं तो उलझन है कि राज्य का मुख्यमंत्री सहारनपुर के क्षेत्र को उत्तराखंड में मिलाने की इच्छा को खुले रूप से कहकर एक नए विवाद का सूत्रपात्र कर देता है. फिलहाल उत्तराखंड एक उद्वेलित राज्य के रूप में ही है जहां लोग निराशा में हैं. बेशक सरकार के किसी मंत्री पर भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा है,  मगर एक साल का सफर कुछ आमूलचूल परिवर्तन की दिशा का सूचक नहीं बन पा रहा. त्रिवेंद्र सरकार को इस दायरे से निकल कर बहुत आगे आना होगा. बंधी बंधाई रस्म और परंपरा मे चलकर यह पहाड़ी राज्य अपने सपनों को पूरा नहीं कर सकता. यह भी जानना होगा कि लगभग एक साल बाद होने वाले लोकसभा के चुनाव में राज्य सरकार की अपनी उपब्धियां और काम भी रेखांकित होंगे.


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