उत्तर प्रदेश के संन्यासी मुख्यमंत्री को सियासी बिसात पर शिकस्त देने के लिए राजनीति के दो युवाओं ने इस बार फिर से हाथ मिला लिया है, सो सूबे की सियासत में थोड़ी हलचल होना स्वाभाविक है. पिछले चुनाव में अखिलेश यादव-राहुल गांधी और जयंत चौधरी की तिकड़ी ने मिलकर बीजेपी को रोकने के लिए सारा जोर लगा दिया था, लेकिन वे कोई करामात नहीं दिखा पाये. उल्टे प्रदेश की जनता ने बीजेपी को तीन सौ से भी ज्यादा सीटें देकर जवानी की जोशीली राजनीति को सिरे से ही नकार दिया था. लिहाज़ा, सवाल ये है कि इस बार अखिलेश यादव और जयंत चौधरी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से क्या कोई ऐसा अजूबा हो सकता है, जो संन्यासी आदित्यनाथ का सिंहासन हिला सके?


एक जमाना था, जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह और फिर उनके बेटे अजित सिंह का खासा प्रभाव था और इस जाटलैंड पर सिर्फ उनकी ही राजनीति का बोलबाला था. लेकिन 2013 में मुजफ्फरनगर में हुई साम्प्रदायिक हिंसा ने इस इलाके के सारे जातीय समीकरणों को हिलाकर रख दिया और जाटों का अजित सिंह की पार्टी आरएलडी से ऐसा मोहभंग हुआ कि इसने बीजेपी का दामन थामने में ही अपनी भलाई समझी. साल 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 में हुए विधानसभा चुनावों में जाटों ने दिल खोलकर बीजेपी का साथ दिया और उसे उम्मीद से भी ज्यादा सीटें दे डाली. लेकिन केंद्र सरकार के लाये तीन खेती कानूनों के विरोध में शुरू हुए किसान आंदोलन ने जाटलैंड की फिज़ा काफी हद तक बदलकर रख दी है. इसीलिये अखिलेश-जयंत की जोड़ी को लगता है कि अब वे बीजेपी के इस मजबूत किले में आसानी से सेंध लगा सकते हैं क्योंकि जाटों का झुकाव फिर से आरएलडी की तरफ हुआ है. दोनों के बीच गठबंधन का ऐलान बुधवार को होगा लेकिन जयंत जितनी सीटें मांग रहे थे, उससे कम यानी तकरीबन तीन दर्जन सीटें ही उनके हिस्से में आने की उम्मीद है.


दरअसल, वेस्ट यूपी के मेरठ, सहारनपुर, मुरादाबाद, बरेली, आगरा, अलीगढ़ के छह मंडल में 26 जिले हैं, जहां 136 विधानसभा सीटे हैं और इन सीटों पर जाटों का खासा प्रभाव है और वही निर्णायक भूमिका निभाते आये हैं. जयंत चौधरी की निगाह इन 136 सीटों पर है और वे चाहते थे कि इनमें से अधिकांश सीटों पर आरएलडी के उम्मीदवार ही चुनाव लड़ें लेकिन उनका ये अरमान शायद पूरा होता नहीं दिख रहा है.


छपरौली जयंत के दादा चौधरी चरण सिंह और पिता अजित सिंह का मजबूत किला रहा है और ऐसे कयास हैं कि इस बार जयंत यहीं से चुनाव लड़ेंगे. दो महीने पहले जाटों की खाप ने छपरौली में ही आरएलडी अध्यक्ष जयंत चौधरी को विरासत संभालने के लिए पगड़ी पहनाई थी. इस विधानसभा सीट ने पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह और पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी अजित सिंह का खूब साथ निभाया है. लिहाज़ा, दादा और पिता की विरासत से अब जयंत को बड़ी आस है. बागपत और बड़ौत ने भले ही कई बार आरएलडी का साथ छोड़ा, लेकिन छपरौली के लोग उनके साथ खड़े रहे. छपरौली को पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की कर्मभूमि कहा जाता है. यहां के लोगो ने उन्हें पहली बार विधानसभा में पहुंचाया था. यूपी की विधानसभा के गठन से लेकर1977 तक चौधरी चरण सिंह छपरौली से लगातार विधायक बनते रहे. यूपी के सीएम भी बने और इसी जाटलैंड बागपत से चौधरी चरण सिंह तीन बार सांसद बने. उसी तरह से अजित सिंह छह बार लोकसभा सीट जीते, लेकिन उनकी जीत में छपरौली का बड़ा योगदान रहा था और यह सिलसिला अब भी जारी है यहां तक कि 2017 में भी आरएलडी को सिर्फ एक ही सीट पर जीत मिली थी और वो छपरौली ही थी.


भारत के संविधान निर्माता कहलाने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर ने वर्षों पहले अपनी किताब 'फ़िलॉसफ़ी ऑफ हिंदूइज़्म' में जातिवाद का विरोध करते हुए लिखा है कि, "जाति व्यवस्था एक कई मंजिला इमारत जैसी होती है जिसमें एक मंजिल से दूसरी मंजिल में जाने के लिए कोई सीढ़ी नहीं होती है." लेकिन यूपी में जातीय संतुलन बैठाये बगैर सत्ता की चौखट तक पहुंचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है. देखते हैं कि दो नौजवानों की ये जोड़ी क्या नया गुल खिलाती है.


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