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जब उर्दू पाकिस्तान के दो टुकड़े होने का सबसे बड़ा कारण बनी

उर्दू को लोकप्रिय बनाने के लिए दिल्ली में होने वाला सालाना कार्यक्रम जश्न-ए-रेख़्ता इसी रविवार को पूरा हुआ है. ये लगातार तीसरा साल है इसके आयोजन का. इस कार्यक्रम में उर्दू के तमाम आशिक जुटे, प्रेमचंद पर चर्चा हुई और उर्दू की लिपि कैसे बची रहे, इसके लिए जरूरी उपायों पर बात हुई. मशहूर गीतकार और साहित्यकार गुलजार भी इस कार्यक्रम में शामिल हुए. उर्दू को गरीबी में नवाबी का मजा देने वाली भाषा बताते हुए गुलजार ने कहा कि उर्दू अपने आप में एक सभ्यता भी है और बहुत मामूली रूप से शुरू हुई इस जुबां के पास आज की तारीख में अपना पूरा एक मुल्क पाकिस्तान है.

उर्दू की नजाकत और नफासत का तो मैं भी कायल रहा हूं, लेकिन गुलजार साहब का ये बयान कि उर्दू के पास पूरा एक मुल्क पाकिस्तान है, कही मन में खटक गया, खास तौर पर तब जबकि पूरी दुनिया ने कल ही अंतरराष्ट्रीय मातृ भाषा दिवस मनाया है. गुलजार साहब को ध्यान होगा कि 21 फरवरी को पूरी दुनिया अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस क्यों मनाती है. दरअसल इसके पीछे उर्दू को उस पूरे मुल्क पर जबरदस्ती लादे जाने की कवायद के खिलाफ संघर्ष की कहानी छुपी है, जिसने आखिरकार पूरे मुल्क को दो टुकड़ों में बांट दिया. जो मुल्क धर्म के आधार पर बना था, वो मुल्क मातृभाषा बनाम जबरदस्ती लादी गई राष्ट्रभाषा के संघर्ष के कारण बिखर गया महज तीन दशक के अंदर.

हम बात कर रहे हैं उस पाकिस्तान की, जो 14 अगस्त 1947 को अस्तित्व में आया था मुस्लिमों के अपने देश के तौर पर, स्वतंत्र भारत के जन्म लेने के ठीक एक दिन पहले. मोहम्मद अली जिन्ना की अगुआई में धार्मिक आधार पर जो आंदोलन चला, उसने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उस सपने को चकनाचूर कर दिया, जो अंग्रेजी शासन से मुक्ति के बाद अविभाजित स्तवंत्र भारत में हिंदू-मुस्लिम एकता का सपना देख रहे थे.

गांधी के सपने को चकनाचूर करने का काम किया उस मोहम्मद अली जिन्ना ने, जो उन्हीं की तरह गुजरात के सौराष्ट्र इलाके से आते थे. लेकिन मुस्लिम लीग की अगुआई करते हुए जिन्ना ने पाकिस्तान की स्थापना के लिए आंदोलन इस बात पर चलाया कि अगर अंग्रेज भारत छोड़कर गये और देश का विभाजन नहीं हुआ, तो बहुसंख्यक हिंदुओं की गुलामी मुस्लिमों को करनी पड़ेगी. आखिरकार जिन्ना को अपने इरादों में कामयाबी मिली, देश का धार्मिक आधार पर विभाजन हुआ और हिंदू बहुल भारत से वो हिस्सा बाहर निकल गया, जहां मुस्लिम बहुसंख्यक थे और पाकिस्तान ने आकार लिया. उस पाकिस्तान ने, जिसका एक हिस्सा दूसरे हिस्से से हजार मील दूर था, अगर कुछ समान था तो ये कि दोनों ही हिस्सों में मुस्लिम बहुलता में थे.

धार्मिक आधार पर पाकिस्तान ने आकार तो ले लिया, लेकिन भाषाई आधार पर इसके विखंडन के बीज भी तुरंत ही पड़ गये, जब पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा के तौर पर उर्दू को लागू करने की घोषणा की गई. खास बात ये थी कि पाकिस्तान के संस्थापक, जिन्हें कायदे आजम यानी सर्वोच्च नेता कहा जाता था, उस जिन्ना को खुद उर्दू नहीं आती थी. जिन्ना को या तो धारा प्रवाह अंग्रेजी आती थी या फिर गुजराती, जो उनकी मातृभाषा थी. लेकिन  मुस्लिम लीग आंदोलन के बड़े चेहरे चूंकि तत्कालीन संयुक्त प्रांत से आते थे, जिनकी जुबान उर्दू थी, इसलिए उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा बनाना तय किया गया, उस देश में जहां उर्दू को बोलने वाले लोग तब महज सात फीसदी थे.

दरअसल उर्दू पाकिस्तान की सीमा के अंदर आने वाले लोगों की मूल भाषा नहीं थी, बल्कि उन लोगों की मातृभाषा थी, जो धार्मिक आधार पर मुस्लिमों के लिए अलग देश बनने के बाद भारत से निकलकर पाकिस्तान गये थे बड़े अरमानों के साथ. ये वही लोग थे, जिन्हें उसी पाकिस्तान में आगे चलकर मोहाजिर कहा गया. इन मोहाजिरों में सबसे बड़े चेहरे थे लियाकत अली खान, जो पाकिस्तान के पहले वजीर-ए-आजम यानी प्रधानमंत्री बने.

अगर आंकड़ों के हिसाब से देखें, तो 1947-48 के पाकिस्तान की सबसे प्रमुख भाषा बांग्ला थी. पाकिस्तान की कुल आबादी का करीब पचपन फीसदी हिस्सा बांग्ला बोलता था. ये वो हिस्सा था, जो उस वक्त पूर्वी पाकिस्तान के तौर पर जाना जाता था और जहां उर्दू को जानने वाले लोगों की तादाद एक फीसदी से भी कम थी और ये भी एक फीसदी लोग वो मुस्लिम थे, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से निकल कर अपने सपनों के देश पाकिस्तान में गये थे. पूर्वी पाकिस्तान की करीब 99 फीसदी आबादी बांग्ला बोलती थी.

जहां तक पश्चिमी पाकिस्तान का सवाल था, वहां की प्रमुख भाषा पंजाबी थी. तब के संयुक्त पाकिस्तान में पचपन फीसदी बांग्ला भाषियों के बाद सबसे बड़ी आबादी पंजाबी बोलने वालों की थी यानी कुल आबादी का करीब 28 फीसदी हिस्सा. इसके बाद करीब सात फीसदी लोग उर्दू बोलने वाले थे. यानी उर्दू बोलने वाले लोग तब के संयुक्त पाकिस्तान में उतने ही थे, जितने इसके एक छोटे से हिस्से में पख्तो बोलने वाले लोगों की थी.

तब उर्दू से थोड़ी ही कम संख्या सिंधी बोलने वाले लोगों की थी यानी छह फीसदी के करीब, जबकि करीब दो फीसदी लोग अंग्रेजी भी बोल सकते थे. जहां तक जिन्ना का सवाल था, जिनका जन्म कराची में हुआ था, खुद गुजराती थे, उस कराची में गुजराती भी बोलने वालों लोगों की तादाद ठीक-ठाक थी.

ऐसे माहौल में लियाकत अली खान की अगुआई में उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा बनाने की योजना बनाई गई, जिसे जिन्ना ने भी अपनी मंजूरी दे दी. पाकिस्तान की नौकरशाही के तत्कालीन बड़े अधिकारी भी मौटे तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से ही गये थे, जिनकी अपनी जुबान उर्दू थी, उत्साह से उर्दू को अपने सपनों के देश की राष्ट्रभाषा बनाने में लग गये, जहां के करीब 93 फीसदी लोगों की मातृभाषा उर्दू थी ही नहीं.

इसे लेकर विरोध भी शुरु हुआ, सिंध से लेकर तब के पूर्वी पाकिस्तान तक. जिन लोगों को उर्दू के नाम पर कुछ पल्ले नहीं पड़ता था, वो रातों रात इसे अपनी राष्ट्रभाषा और राजभाषा के तौर पर कैसे स्वीकार कर लें. कराची के जिन स्कूलों में सिंधी और गुजराती में पढ़ाई होती थी, वहां रातों रात उर्दू को लाद दिया गया. सिंध के लोगों की आबादी कम थी, इसलिए विरोध ज्यादा तगड़ा तो नहीं हो पाया, लेकिन विद्रोह का परचम पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने बुलंद कर दिया, जहां 99 फीसदी लोगों की भाषा बांग्ला थी, जिनका उर्दू से कोई लेना-देना नहीं था.

हालात ये बने के जिस ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई थी और जिस मुस्लिम लीग के हिंसक आंदोलन के कारण आखिरकार पाकिस्तान अस्तित्व में आया, उसी ढाका शहर से पाकिस्तान के विखंडन की शुरुआत भी हुई, वो भी उर्दू को जबरदस्ती राष्ट्रभाषा के तौर पर थोपे जाने के खिलाफ.

हालात ऐसे बने कि जब खुद मोहम्मद अली जिन्ना, जिनकी अंग्रेजी में होने वाली स्पीच को, बिना समझ में आये, उनके मुस्लिम समर्थक बिना पलक झपकाये सुनते थे, उसी जिन्ना का ढाका में तब जमकर विरोध हुआ, जब उन्होंने उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा के तौर पर किसी भी कीमत पर लागू किये जाने की बात की. जिन्ना जब 19 मार्च 1948 को ढाका के दौरे पर थे, उस वक्त बांग्ला भाषियों ने ये मांग की थी कि सिर्फ उर्दू नहीं, बल्कि बांग्ला को भी राज भाषा का दर्जा दिया जाए, लेकिन जिन्ना ने उनकी मांग अनसुनी कर दी.

दरअसल तब के पूर्वी पाकिस्तान में फरवरी 1948 से ही उर्दू विरोधी माहौल खड़ा होना शुरु हो गया था, जब कराची शहर में हो रही पाकिस्तान की संविधान सभा की बैठक में लियाकत अली खान की अगुआई में ये प्रस्ताव रखा गया कि उर्दू और अंग्रेजी में ही पाकिस्तान का सरकारी कामकाज होगा. उस वक्त संविधान सभा के सदस्य और पूर्वी पाकिस्तान कांग्रेस पार्टी के नेता धीरेंद्रनाथ दत्ता ने ये कहा था कि इस लिस्ट में बांग्ला को भी जगह दी जाए. दत्ता का तर्क ये था कि तब के पाकिस्तान की छह करोड़ नब्बे लाख की आबादी में चार करोड़ चालीस लाख लोग बांग्लाभाषी थे, जिनके लिए उर्दू किसी विदेशी भाषा से कम नहीं थी.

लेकिन दत्ता की मांग को बिना संवेदनशीलता के खारिज कर दिया गया. इसकी परिणती पूर्वी पाकिस्तान में भाषा आंदोलन की शुरुआत के तौर पर हुई. इसी आंदोलन के तहत पहले जहां जिन्ना के सामने प्रदर्शन हुआ और बाद में सड़कों पर. लाखों की तादाद में बांग्लाभाषी सड़कों पर उतरे. उस समय की पाकिस्तानी हुकूमत ने, जिसमें सेना से लेकर प्रशासन तक गैर-बांग्लाभाषियों का बोलबाला था, आंदोलन को दबाने की कोशिश की गई. इसी सिलसिले में 21 फरवरी 1952 को बांग्ला को राष्ट्रभाषा बनाने की मांग के साथ पूर्वी पाकिस्तान की सभी राजनीतिक पार्टियों की सामूहिक लैंग्वेज एक्शन कमिटि के बैनर तले हड़ताल, धरने और प्रदर्शन का आयोजन किया गया, जिसे कुचलने के लिए ढाका सहित पूरे पूर्वी पाकिस्तान में तत्कालीन हुकूमत ने धारा 144 लगा दी. लेकिन आंदोलनकारियों पर इसका कोई असर नहीं पड़ा और वो ढाका की सड़कों पर निकले, जिसमें बड़ी तादाद में छात्र थे. किसी भी कीमत पर आंदोलन को कुचलने की जिद पाले अधिकारियों और पुलिसकर्मियों ने फायरिंग की, जिसमें ढाका यूनिवर्सिटी के तीन छात्रों की मौत हुई, जिनके नाम थे रफीकउद्दीन अहमद, अब्दुल जब्बार और अबुल बरकत.

इन तीन छात्रों की शहादत ने तब के पूर्वी पाकिस्तान में ऐसा उफान खड़ा किया कि बांग्ला को राजभाषा का दर्जा दिलाने की मांग अलग देश की मांग में तब्दील हो गई. जिन्ना और लियाकत अली खान ये दिन देखने के लिए जिंदा नहीं बचे, जिन्ना अपनी बीमारी से 1948 में, तो लियाकत अली खान एक धर्मांध मुसलमान के छुरे की वार की वजह से 1951 में जन्नतनशीं हो गये. जिन्ना और लियाकत अली खान ने अपनी जिद के कारण धार्मिक आधार पर पाकिस्तान हासिल किया था, लेकिन उर्दू को राष्ट्रभाषा बनाने की उनकी जिद ही उस पाकिस्तान के टूटने का कारण बन गई.

भाषाई आधार पर शुरु हुआ आंदोलन आखिरकार अलग देश की मांग के तौर पर तीव्र होता गया और महज दो दशक के अंदर 1971 में पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा अलग बांग्लादेश के तौर पर अस्तित्व में आ गया, बांग्ला भाषियों के अपने देश के तौर पर. बांग्लाभाषियों की अपनी मातृभाषा के लिए किये गये बड़े आंदोलन को आखिरकार वैश्विक समुदाय ने सम्मान दिया और 1999 में यूनेस्को ने 21 फरवरी के दिन को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के तौर पर मान्यता दी.

प्रतीकात्मक तस्वीर प्रतीकात्मक तस्वीर

उधर उर्दू, जो अपने अदब, नजाकत और नफासत के लिए जानी जाती है, जाने-अनजाने में बांग्लाभाषियों के लिए खलनायक के तौर पर उभरी. हां, राष्ट्रभाषा उर्दू जरूर बनी, लेकिन टूटे-फूटे विखंडित पाकिस्तान की, जो 1971 के विभाजन के बाद आज तक सामान्य नहीं हो पाया है. आंतरिक उपद्रव और आतंकी हिंसा की आग में झुलस रहे पाकिस्तान में उर्दू की रुमानियत की चर्चा करने का समय भी किसी के पास नहीं है.

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार हैं.

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