उत्तराखंड देश का अकेला ऐसा राज्य है जिसके मुख्यमंत्री की कुर्सी पर किसी अपशकुन का साया लगता है. शायद यही वजह है कि साल 2000 में राज्य का गठन होने से लेकर अब तक कोई भी सीएम पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया. पार्टी की अंदरुनी कलह के चलते बीजेपी और कांग्रेस दोनों को ही अपने सीएम को बदलने के लिए मजबूर होना पड़ता रहा है. लेकिन यह पहला मौका है, जब संवैधानिक संकट के कारण बीजेपी को अपना मुख्यमंत्री का नया चेहरा देना पड़ा. हालांकि इसके कई सियासी मायने भी हैं और आने वाले दिनों में कुछ इसी तरह का संकट पश्चिम बंगाल में भी देखने को मिल सकता है.


दरअसल, निर्वाचन आयोग ने कोरोना के चलते साल के बाकी बचे महीनों में कोई भी नया चुनाव न कराने का फैसला लिया हुआ है, जिसके कारण यह संकट पैदा हुआ. तीरथ सिंह रावत ने इस साल 10 मार्च को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी. चूंकि वे विधानसभा के सदस्य नहीं थे, लिहाजा कानूनन उन्हें छह महीने की अवधि में इसका सदस्य होना अनिवार्य था, जो उप चुनाव कराये बगैर संभव ही नहीं था. सो अगले साल की शुरुआत में राज्य में होने वाले चुनाव से ऐन पहले उन्हें हटाने की एक बड़ी वजह तो यही है. लेकिन सूत्रों की मानें तो पार्टी आलाकमान भी सरकार चलाने के उन तौरतरीकों से कोई ज्यादा खुश नहीं था.


करीब पौने चार महीने के अपने कार्यकाल में उन्होंने अपनी छवि एक कुशल प्रशासक की बजाय ऐसे बयानवीर नेता की बना ली जिसके कारण पार्टी को कुछेक बार शर्मिंदगी भी झेलनी पड़ी.
कोरोना काल में हरिद्वार के कुंभ में महामारी से निपटने या बचाव के जो इंतजाम होना चाहिए थे, वे नहीं हुए. कुंभ के आख़िरी शाही स्नान का आयोजन जिस तरह से प्रतीकात्मक रखा गया, वैसा अगर शुरुआत में ही किया गया होता, तो न इतने बड़े पैमाने पर संक्रमण फैलता और न ही सरकार की बदनामी होती. कुंभ के कुप्रबंध का पूरे देश में गलत संदेश भी गया.


लिहाज़ा, कह सकते हैं कि कोई उप चुनाव न कराने का चुनाव आयोग का फैसला एक तरह से बीजेपी के लिये सौगात लेकर आया. इस बहाने पार्टी को एक नए चेहरे के साथ अगले साल की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव तक अपनी छवि सुधारने का मौका मिल गया. लेकिन साढ़े चार साल में तीन मुख्यमंत्री देखने वाली राज्य की जनता इसे किस रूप में लेती है और उससे पार्टी को क्या नफा-नुकसान होता है, यह देखना महत्वपूर्ण होगा. 


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