अपने 'भाग्यविधाता' को नाराज़ करके आखिर कैसे बचाते रुपाणी अपनी कुर्सी?
गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी से इस्तीफा लेने के पीछे एक नहीं बल्कि अनेकों कारण हैं. लेकिन सबसे बड़ी वजह तो यही है कि वे पांच साल में भी अपनी इमेज उतनी दमदार नहीं बना पाए, जिस चेहरे के भरोसे बीजेपी अगले साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी जीत सौ फीसदी तय मान लेती. बताते हैं कि कोरोना की दूसरी लहर से निपटने में उनकी सरकार की लापरवाहियों से जनता बेहद नाराज थी. ऐसी लापरवाही बरतने की जो खबरें दिल्ली तक पहुंची, उससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हैरान-परेशान व नाराज हो गए थे कि उनके गृह प्रदेश में आखिर ऐसा कैसे हुआ.
दरअसल, बीजेपी ऐसी इकलौती पार्टी है जहां सरकार से ज्यादा संगठन को महत्व देने और उसकी कही बातों पर अमल करने की परंपरा शुरू से रही है. जिस भी प्रदेश में संगठन और सरकार के बीच समन्वय की कमी रही, वहां या तो बीजेपी को सत्ता से बाहर होना पड़ा या फिर अपने मुख्यमंत्री का चेहरा बदलने पर मजबूर होना पड़ा है. गुजरात से पहले पिछले छह महीने में बीजेपी को उत्तराखंड, कर्नाटक और असम में भी अपने मुख्यमंत्री का चेहरा सिर्फ इसीलिये बदलना पड़ा है.
पार्टी सूत्र बताते हैं कि कई बार हिदायत देने के बावजूद रुपाणी संगठन व सरकार के बीच तालमेल नहीं बना पा रहे थे, जिसका नतीजा ये हुआ कि सरकार पर अफसरशाही की लगाम इतनी मजबूत होती चली गई कि पार्टी विधायकों, संगठन के नेताओं व आरएसएस के पदाधिकारियों के जायज़ काम भी लटकने शुरू हो गए थे. नौबत यहां तक आ पहुंची थी कि गुजरात बीजेपी के अध्यक्ष सी आर पाटिल को भी रुपाणी ने नज़रअंदाज़ करना शुरू कर दिया और दोनों के बीच बढ़ते मनमुटाव की खबरें गुजराती मीडिया की सुर्खियां बनने लगी थीं. इससे जनता के बीच सरकार और बीजेपी, दोनों की बनती निगेटिव इमेज का फायदा उठाने के लिए विपक्ष भी हमलावर होने लगा. खुद प्रधानमंत्री मोदी को भी ये सब नागवार लग रहा था.
जो लोग पहले जनसंघ और अब बीजेपी के सिद्धान्तों से परिचित हैं तो वे ये भी जानते होंगे कि बीजेपी के लिए संघ का वही महत्व है, जो एक छोटे बच्चे के लिए अपनी मां का होता है. पिछले 41 बरस में बीजेपी आज जिस मुकाम तक पहुंची है, वह संघ के लाखों स्वयंसेवकों के परिश्रम, समर्पण व त्याग का नतीजा है. यही वजह है कि संघ को बीजेपी का 'भाग्यविधाता' माना जाता है और जब वही नाराज़ हो जाए, तो फिर वो बहुत कुछ बदलने की ताकत भी रखता है और सही समय आने पर वो इसका अहसास भी करा देता है. रुपाणी के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ है. संगठन की उपेक्षा और सरकार पर हावी होती अफसरशाही की शिकायतें पिछले साल ही गांधीनगर से निकलकर दिल्ली और नागपुर तक पहुंचने लगी थीं, लेकिन तब तत्काल कोई फैसला नहीं लिया गया. तय किया गया कि मुख्यमंत्री के बतौर पांच साल का कार्यकाल पूरा होते ही उन्हें हटा दिया जाएगा. रुपाणी ने पिछली सात अगस्त को ही अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया है.
इन सबके अलावा विजय रुपाणी को हटाने के पीछे एक और अहम पहलू को ध्यान में रखा गया और वह है-जातीय समीकरण. साल 2017 का चुनाव रुपाणी के नेतृत्व में ही लड़ा गया था, लेकिन तब बीजेपी को सत्ता में आने के लिए शायद पहली बार इतनी कड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी, क्योंकि वे इस समीकरण में अनफिट साबित हुए. रुपाणी जैन समुदाय से आते हैं, लेकिन गुजरात में पाटीदार-पटेल का वर्चस्व है और उसके बाद ओबीसी, दलित व आदिवासी वोटरों का महत्व है. ऐसे में बीजेपी ये रिस्क बिल्कुल नहीं लेना चाहती थी कि 2022 का चुनाव रुपाणी के चेहरे पर लड़कर खुद ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी जाये. हालांकि जातीय समीकरण साधने की गरज से ही पीएम ने पिछले दिनों हुए अपने मंत्रिमंडल के विस्तार में गुजरात के सांसद और पाटीदार समुदाय के बड़े चेहरे मनसुख मांडविया को मंत्री बनाया है.
चूंकि गुजरात में रोजगार एक बड़ा मुद्दा बन चुका है और पिछले 5 साल में रुपाणी सरकार नई नौकरियां पैदा करने के मोर्चे पर लगभग असफल ही रही है. विपक्ष इसके बहाने सत्ताविरोधी माहौल तैयार कर रहा है. अभी तक वहां बीजेपी का मुख्य मुकाबला कांग्रेस से ही होता आया है, लेकिन अब अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी तीसरी ताकत बनकर उभर रही है. जाहिर है कि वो बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगाने पर अपना फोकस रखेगी. लिहाजा, देखना होगा कि मजबूत होते विपक्ष से निपटने के लिए बीजेपी अब किस चेहरे को सत्ता की कमान सौंपती है.
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