कहते हैं कि पड़ोस अच्छा हो तो जिंदगी सुकून से गुजरती है. यही हाल देशों का भी है. हमारे पड़ोसी देश म्यांमार यानी बर्मा में सैनिक तख्तापलट से उथलपुथल मची है. इससे भारत चिंतित है. क्योंकि म्यांमार सामरिक, कूटनीतिक और आर्थिक दृष्टि से भारत के लिए महत्व रखता है. इसके अलावा भी भारत क्यों चाहता है कि म्यांमार में लोकतांत्रिक सरकार बने. म्यांमार में खेल खेल में नाच करते थिरकते हुए खेल हो गया. वहां की संसद के बाहर 26 साल की डांस टीचर रिवंब हनिन वाई नृत्य की प्रैक्टिस कर रही थीं और जनरल मिन ऑन्ग हल्लाइंग लोकतंत्र को नचा रहे थे. ताजा हालात ये हैं कि राष्ट्रपति बिन मिंट की सरकार बर्खास्त कर दी गयी है. लोकतांत्रिक सरकार की सर्वेसर्वा आंग सान सू ची पर अवैध रुप से वाकी टाकी रखने का मुकदमा दर्ज हो गया है. सेना बख्तरबंद गाडियों के साथ सड़कों पर है और जनता विरोध में आवाज बुलंद कर रही है.
सवाल उठता है कि म्यांमार में इस तख्तापलट के भारत के लिए क्या मायने हैं. क्या चीन का दखल अब म्यांमार में बढ़ जाएगा. क्या नागा मिजो जैसे अलगाववादी संगठनों को भारत में गड़बड़ी करने का मौका मिलेगा. सैनिक शासन के साथ भारत के कैसे रिश्ते रहेंगे? म्यांमार से भारत की 1640 किलोमीटर सीमा मिलती है. मिजोरम, नागालैंड, मणिपुर जैसे पूर्वोत्तर राज्य. वैसे भारत के आंग सान सू ची की पार्टी की सरकार के साथ साथ सेना से भी रिश्ते अच्छे रहे हैं. यही वजह है कि म्यांमार में तख्तापलट पर भारत ने सधी हुई प्रतिक्रिया दी. यहां तक कि सेना की आलोचना तक नहीं की. सिर्फ यही कहा कि वहां लोकतंत्र की बहाली हो, ऐसी कामना भारत करता है.
म्यांमार का शान इलाका मिजो, नागा, मणिपुरी, उल्फा जैसे 26 अतिवादी संगठनों की शरण स्थली रहा है. कुछ का हेड क्वार्टर वहां रहा है. ये संगठन पूर्वोत्तर भारत में गड़बड़ी करते रहे हैं. इन पर म्यांमार की सेना के सहयोग से ही लगाम लगाई जा सकती है. चीन ने ऐसे संगठनों को बढ़ावा देना शुरू किया है. हथियार और पैसों के रूप में. ऐसे में भारत के लिए म्यांमार की सेना की मदद और ज्यादा जरूरी हो जाती है. भारत और म्यांमार के बीच का बॉर्डर बहुत पोरस है. जंगल ही जंगल. उग्रवादी वहां से भारत आते हैं और वारदात कर जंगलों में वापस चले जाते हैं. इसे रोकने के लिए भारत और म्यांमार में करार है. इसके तहत भारत की सेना म्यांमार के अंदर तीस किलोमीटर तक जा सकती है. भारत इस व्यवस्था को बनाए रखना चाहता है. ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारत की सेना को ही म्यांमार की सेना की जरूरत है. म्यांमार की सेना को भारत गोला, बारूद, हथियार देता रहता है. 105 एमएम की बंदूकें, गन बोट, मोर्टार, रडार, रॉकेट लॉन्चर, यहां तक कि एक पनडुब्बी भी भारत ने म्यांमार की दी है. पिछले दस सालों से वहां जनरल मिन ऑन्ग का दबदबा रहा है. 2019 में वो भारत आए थे तो भारतीय सेना के जनरल विपिन रावत उन्हें बोधगया घुमाने ले गये थे. पिछले साल जनरल नरवणे म्यांमार गए थे. वहां चीन की विस्तारवादी रणनीति के खिलाफ सेना के सहयोग की बात हुई थी.
वैसे म्यांमार में पहली बार तख्तापलट नहीं हुआ है. वहां 1961 से 2011 तक यानी पूरे पचास साल सेना का शासन रहा है. एक वक्त तो ऐसा था जब म्यांमार में सैनिक शासन था और उसी दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव यू थांट थे, जो म्यांमार के ही थे. ऐसा संयोग या दुर्योग शायद ही कभी देखने को मिला हो. म्यांमार 1948 में वजूद में आया था. 1948 से लेकर 1961 तक वहां लोकतंत्र रहा, उसके बाद 2011 तक सैनिक शासन. 2011 में पहली बार चुनाव हुए और लोकतंत्र के लिए बीस सालों से जेल में कैद या नजरबंद आंग सान सू ची की पार्टी एनएलडी ( नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी ) सत्ता में आई. लेकिन सेना का असर इतना है कि आंग सान सू ची को भी रोहिंग्या पर सैनिक अत्याचारों के मामले में सेना को क्लीन चिट देनी पड़ी थी. म्यांमार की संसद की 25 फीसद सीटें सेना के लिए आरक्षित होती हैं. रक्षा, विदेश नीति और बॉर्डर सेना के पास ही रहता है. ऐसे में म्यांमार में सैनिक शासन वैसा नहीं है जैसा कि पाकिस्तान में है. यही वजह है कि वहां की सेना के साथ भारत की सेना सामरिक क्षेत्र में और भारत का विदेश विभाग कूटनीति के क्षेत्र में आपस में बात करते रहते हैं.
भारत और म्यांमार के बीच व्यापारिक रिश्तों की अब बात करते हैं. जानकारों का कहना है कि भारत के उतर पूर्व के राज्यों के आर्थिक विकास के लिए म्यांमार एक प्लेटफॉर्म का काम कर सकता है. चीन को म्यांमार से दूर रखने के लिए भी ऐसा करना जरूरी है. दक्षिणी म्यांमार में सिटवे नाम का समुद्र तटीय शहर है, वहां भारत एक बहुत बड़े बंदरगाह का निर्माण करवा रहा है. अगले कुछ महीनों में ये बंदरगाह बनकर तैयार हो जाएगा. ऐसा होने पर मिजोरम, मणिपुर, नागालैंड जैसे राज्य बंगाल की खाड़ी से जुड़ जाएंगे. इससे व्यापार करने में आयात निर्यात में आसानी होगी. म्यांमार में कालादन नाम की नदी है. भारत की ब्रह्मपुत्र नदी की तरह. ये म्यांमार से निकलती है और भारत के मिजोरम से होते हुए वापस म्यांमार में चली जाती है. वहां सिटवे में बंगाल की खाड़ी में जा मिलती है. अब सिटवे में बंदरगाह बनेगा तो कालादन नदी जलमार्ग का काम करेगी. जो सामान विदेशों से आएगा वो नदी के जरिए मिजोरम, मणिपुर, नागालैंड भेजा जा सकेगा. इसी तरह इन राज्यों से बाहर जाने वाला सामान भी नदी के जरिए ही सिटवे बंदरगाह तक पहुंचेगा, जहां से उसका निर्यात किया जा सकेगा.
इस योजना को मल्टीमॉडल ट्रांज़िट ट्रांसपोर्ट नेटवर्क नाम दिया गया है. सिटवे में भारत सेज यानी स्पेशल इकोनामिक जोन की स्थापना कर रहा है. इससे म्यांमार को भी खासा आर्थिक फायदा होगा. भारत को कूटनीतिक रूप से दूसरा फायदा ये होगा कि चीन का म्यांमार के जरिए बंगाल की खाड़ी तक पहुंचने का ख्वाब, ख्वाब ही बन कर रह जाएगा. इसके अलावा भारत नॉर्थ ईस्ट में गैस पाइप लाइन बिछा रहा है. फायदा म्यांमार को भी होगा. भारत, म्यांमार, थाईलैंड ट्राईलेटरल हाईवे भी आर्थिक हितों से जुड़ा हुआ है. सबसे बड़ी बात है कि सेना आर्थिक फायदों को अच्छी तरह से समझती है. म्यांमार की सेना के बड़ी कंपनियों से व्यापारिक रिश्तों और बिजनेस में भागीदारी की चर्चा होती रहती है. एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार वहां की सेना को म्यांमार इकोनामिक होल्डिंग लि से भारी राजस्व मिलता रहा है, आय होती रही है. इस कंपनी का खनन, तम्बाकू, कपड़ा और बैंकिंग क्षेत्र में वर्चस्व है. हालांकि सेना ने एमनेस्टी की रिपोर्ट को फेक न्यूज करार दिया था. लेकिन आमतौर पर म्यांमार की सेना पर इस तरह के आरोप लगते रहे हैं. जाहिर है कि जो सेना बिजनेस में विश्वास रखती हो और उसका हिस्सा भी रही हो वो भारत के साथ अपने व्यापारिक, आर्थिक रिश्तों को और ज्यादा आगे बढ़ाना ही चाहेगी.
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