जिसका डर जताया जा रहा था, वही हुआ. नए मेटरनिटी बेनेफिट कानून के चलते बहुत सी औरतें वर्कफोर्स से बाहर धकेली जा रही हैं. पहले ही कम संख्या में हैं, अब और कम होने वाली हैं. टीमलीज सर्विसेज़ लिमिटेड के एक सर्वे में कहा गया है कि नए मेटरनिटी बेनेफिट कानून से छोटे बिजनेस और स्टार्टअप्स औरतों को हायर करने में कन्नी काटेंगे. अंदाजा है कि इस वित्तीय वर्ष से लेकर मार्च 2019 तक लगभग 11 से 18 लाख औरतों को नौकरियों से हाथ धोना पड़ेगा. टीमलीज सर्विसेज एक स्टाफिंग और ह्यूमन रिसोर्स कंपनी है और उसने अपने डेटा के लिए लगभग 10 सेक्टरों के 300 से अधिक एंप्लॉयर्स से बातचीत की है. इन सेक्टरों में एविएशन, आईटी, एजुकेशन, ई-कॉमर्स, मैन्यूफैक्चरिंग, बैंकिंग, रियल एस्टेट वगैरह शामिल हैं.


हमारे लिए यह चिंता की बात है. 2016 में खत्म होने वाले वित्तीय वर्ष में देश के वर्कफोर्स में औरतों का प्रतिशत गिरकर 24 हो गया था. एक दशक पहले उनकी हिस्सेदारी 36 परसेंट थी. विश्व बैंक के अनुमान बताते हैं कि 2004 के बाद सिर्फ आठ सालों में दो करोड़ औरतें वर्कफोर्स से गायब हो गईं. यह संख्या न्यूयॉर्क, लंदन और पेरिस जैसे शहरों की कुल आबादी के बराबर है. मैकेंसे और कंपनी का कहना है कि अगर औरतें काम करें तो 2025 तक भारत के ग्रॉस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट में 700 बिलियन डॉलर से अधिक का इजाफा हो सकता है.


इन सबके बीच यह जानना भी जरूरी है कि नया मेटरनिटी बेनेफिट कानून क्या कहता है. यह कामकाजी औरतों को बच्चों की डिलिवरी के समय 26 हफ्ते या लगभग छह महीने की पेड लीव का प्रावधान करता है. पहले इसके लिए औरतों को 12 हफ्ते या तीन महीने की छुट्टी मिलती थी. फिर केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों के लिए यह छुट्टी तीन से छह महीने कर दी गई. इसके बाद सरकार ने नया विधेयक लाकर इसे प्राइवेट सेक्टर पर भी लागू कर दिया. चूंकि यह छुट्टी पेड लीव होती है, मतलब छुट्टी में भी महिला कर्मचारी को वेतन मिलता रहता है, इसलिए कंपनियां कुछ इस तरह इस कानून की धज्जियां उड़ाने की फिराक में हैं. वे इस लीव को देने से बचने के लिए औरतों को काम पर रखने से कतरा रही हैं. काम पर रख रही हैं तो औरत के प्रेग्नेंट होने पर उसे नौकरी से निकाल रही हैं. दरअसल छुट्टी में सैलरी देने का सारा जिम्मा कंपनी और इंप्लॉयर का है. तो, पैसे बचाने की कोशिश की जा रही है. कोई भी घाटा क्यों उठाना चाहेगा...


यह आशंका तब भी जताई गई थी, जब 2016 में विधेयक को संसद में पेश किया गया था. इसके प्रारूप पर काफी चर्चा की गई थी. कहा गया था कि इस बिल के बावजूद अधिकतर कामकाजी औरतों को फायदा नहीं होगा- चूंकि देश की 96 फीसदी औरतें को इनफॉर्मल सेक्टर में ही काम करती हैं. यह विधेयक उस सेक्टर पर लागू तो होता नहीं. इसके अलावा यह भी कहा गया था कि इसका असर महिलाओं के रोजगार अवसरों पर पड़ सकता है. औरतों को पेड मेटरनिटी लीव न देनी पड़े, इसलिए उस काम के लिए इंप्लॉयर आदमी को हायर कर सकता है. कुल मिलाकर, यह कदम बूमरैंग की तरह होगा. फेंकने वाला निशाना कहीं भी करे, निशाना फेंकने वाला खुद ही होगा.


यूं मेटरिनिटी बेनेफिट कानून को कई दूसरे देशों की तर्ज पर तैयार किया गया है. लंबी छुट्टी का प्रावधान कई देशों के श्रम कानूनों में है. लेकिन उन देशों में मेटरनिटी बेनेफिट देने के लिए अलग-अलग फंडिंग मॉडल्स को अपनाया गया है. इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन- आईएलओ ने 185 देशों में मेटरनिटी बेनेफिट के प्रावधानों पर एक स्टडी की थी. इसमें सिर्फ 25 परसेंट देशों में इंप्लॉयर्स मेटरनिटी बेनेफिट देने के लिए अपना पैसा इस्तेमाल करते हैं. ब्रिटेन, जर्मनी जैसे 16 परसेंट देशों में इंप्लॉयर्स और सरकार, दोनों के मिले-जुले फंड से मेटरनिटी बेनेफिट को फाइनांस किया जाता है. 58 परसेंट देशों में सरकारी सोशल सिक्योरिटी बेनेफिट्स के जरिए प्रेग्नेंट औरतों को कैश बेनेफिट मिलता है. इन देशों में नार्वे और ऑस्ट्रेलिया प्रमुख हैं. वैसे आईएलओ की 2014 की रिपोर्ट मेटरनिटी एंड पेटरनिटी एट वर्क : लॉ एंड प्रैक्टिस एक्रॉस द वर्ल्ड का कहना है कि मेटरनिटी बेनेफिट की कॉस्ट उठाने का जिम्मा सिर्फ इंप्लॉयर का नहीं होना चाहिए. बल्कि इसे सोशल इंश्योरेंस या पब्लिक फंड से चुकाया जाना चाहिए. फिर देश के नागरिकों का स्वास्थ्य जनहित का मामला है. उसके लिए सरकार को जिम्मेदारी उठानी चाहिए.


कह सकते हैं कि जिसे औरतों के सशक्तीकरण का सबसे बड़ा हथियार माना जा रहा था, वह फुस्स हो गया है. पर ये हथियार था ही कहां- इसे औरतों के ट्रेडिशनल रोल के हिसाब से ही तैयार किया गया था. यह रोल क्या कहता है. ये कहता है कि बाहर निकलकर काम करो. लेकिन फैमिली की बात आते ही सब भूल जाओ. आखिर बच्चे के पैदा होने के बाद उसे पालने की जिम्मेदारी औरत की ही तो है. औरत केयरगिवर है, आदमी प्रोवाइडर. इस केयरगिविंग के काम को 12 से 26 हफ्ते कर दिया गया. प्रोवाइडर को कोई छुट्टी नहीं दी गई. कानून किसी पेटरनिटी लीव की बात नहीं करता- सिर्फ औरतों को ही बच्चे की देखभाल के लिए लंबी छुट्टी देता है.


कानून में एक मजे की बात और है. कंपनी अगर चाहे तो महिला कर्मचारियों को घर से काम करने की इजाजत दे सकती है. यह भी परिवार में जेंडर आधारित भूमिकाओं को ही पुष्ट करता है. इससे महिलाओं की बार्गेनिंग पावर कम होती है. कंपनी के लिए औरतों को काम से निकालना आसान होगा. एक से काम के लिए एक सी सैलरी वाला सिद्धांत भी इससे प्रभावित होगा क्योंकि घर से काम करने को कभी भी दफ्तर में रहकर काम करने वाले के बराबर नहीं माना जाएगा. हो सकता है कि थोड़े समय के लिए औरतों की काम करने की स्थितियों में सुधार हो लेकिन इससे रोजगार और पे-स्केल, दोनों में मर्दों और औरतों के बीच का अंतर बढ़ता जाएगा.


वॉशिंगटन के प्यू रिसर्च सेंटर की रिसर्च डायरेक्टर वेंडी वॉन्ग का पेपर कहता है कि बच्चों वाली 47 परसेंट औरतें और 53 परसेंट शादीशुदा औरतें पार्ट टाइम काम को चुनना पसंद करती हैं. चूंकि इसमें पैसा भी कम मिलता है और करियर पर भी असर होता है, इसलिए पार्ट टाइम के बाद फुल टाइम नौकरी मिलना मुश्किल होता जाता है. मेटरनिटी बेनेफिट का कानून भी उसी तरह औरतों के करियर पर असर कर सकता है. अभी लाखों की नौकरियां खतरे में है- क्या हम औरतों को वर्कफोर्स से सिरे से गायब करना चाहते हैं. सो, सिर्फ तालियां और वोट बटोरने के लिए नीतियां और कानून न बनाए जाएं- उसके दूरगामी असर के बारे में भी सोचा जाना चाहिए.


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