महिलाएं, अहिंसा और नागरिक प्रतिरोध
यह अहसास दूर-दूर तक जड़ें जमा चुका है कि सीएए (और अधिनियम बन जाने से पहले का नागरिकता संशोधन विधेयक) और अब एनआरसी के खिलाफ उभरे आंदोलन ने सरकार को असावधानी की अवस्था में आकस्मिक ढंग से दबोचा था, लेकिन मैं यह तर्क देने का जोखिम उठा रहा हूं कि सरकार की नाक में दम करने और उसे बेचैन करके रख देने में महिलाओं द्वारा किए गए अप्रत्याशित प्रतिरोध का पूरा-पूरा हाथ है.
नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ हो रहे देशव्यापी विरोध की एक और उल्लेखनीय विशेषता यकीनन यह हकीकत होनी चाहिए कि महिलाओं ने भारतीय राज्य की भारी मनमानी और संवैधानिक स्वतंत्रता पर बढ़ते जा रहे अतिक्रमण के विरुद्ध अपने असंतोष को सुर देने का बीड़ा उठा लिया है. इसे "उल्लेखनीय" बताने पर शायद कुछ लोगों को लग सकता है कि अनजाने में ही सही, मैं यह संकेत दे रहा हूं कि महिलाओं ने पहले के सिविल नाफरमानी आंदोलनों में प्रमुखता से हिस्सा नहीं लिया और महिलाओं का अपकार कर रहा हूं. मेरी मंशा हरगिज ऐसी नहीं है. "निर्भया" पर क्रूर यौन हमले के मद्देनजर पूरे देश में हुए प्रदर्शनों के दौरान उनकी विशाल उपस्थिति रही. ठीक इसी तरह उन्होंने 2004 में तब साहसपूर्ण सक्रियता दिखाई थी, जब एक युवती के यौन शोषण को हाईलाइट करने के लिए मणिपुर की 12 माताओं ने नग्न होकर सार्वजनिक प्रदर्शन किया था! महिलाओं के विरुद्ध जारी लैंगिक हिंसा की व्यवस्थागत समस्याओं के खिलाफ उनका प्रतिरोध आम तौर पर देखने को मिलता ही रहता है.
मौजूदा विरोध प्रदर्शनों के दौरान छात्राओं और जीवन के हर क्षेत्र से जुड़ी महिलाओं ने भी जो असाधारण हौसला व चतुराई दिखाई है, उससे भारतीय सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की बढ़ी हुई भूमिका रेखांकित होती है और इसने भारत को ज्यादा व्यापक लोकतांत्रिक भविष्य की ओर ले जाने में महिलाओं से मिलने वाली शक्ति की ओर इशारा कर दिया है. हालांकि यह अहसास दूर-दूर तक जड़ें जमा चुका है कि सीएए (और अधिनियम बन जाने से पहले का नागरिकता संशोधन विधेयक) और अब एनआरसी के खिलाफ उभरे आंदोलन ने सरकार को असावधानी की अवस्था में आकस्मिक ढंग से दबोचा था, लेकिन मैं यह तर्क देने का जोखिम उठा रहा हूं कि सरकार की नाक में दम करने और उसे बेचैन करके रख देने में महिलाओं द्वारा किए गए अप्रत्याशित प्रतिरोध का पूरा-पूरा हाथ है.
भारत के 'हम कहें सो कायदा' वाले दृष्टिकोण ने अपनी पितृसत्तात्मक भूमिका में कथित "सशक्तीकरण" के तौर पर चंद रेवड़ियां बांटने के अलावा कभी भी लड़कियों और महिलाओं के बारे में गहराई से सोचने की जहमत नहीं उठाई. हमेशा उन्हें "भारतीय नारीत्व" की पवित्र आभा में लपेटे रखने का प्रयास किया गया है, उस पर तुर्रा यह कि उन्हें "आधुनिक कामकाजी महिला" या इसी तरह के दूसरे तमगे भी बांटे गए हैं. एक के बाद एक आने वाली भारतीय सरकारों ने नागरिकों के लिए यह विधान करने हेतु अनगिनत पोस्टर अभियान चलाए हैं कि "महिलाओं का सम्मान राष्ट्र का सम्मान है", इनमें लोगों से आग्रह किया गया कि "बालिकाओं की रक्षा करें" और जताया गया कि "लड़कियों की शिक्षा में राष्ट्र का उद्धार है."
इस तरह के नारों में निस्संदेह रूप से वही अनुगूंज उपस्थित है, जो सहज बुद्धि, व्यावहारिक ज्ञान और न्याय की अवधारणा में सत्य के तौर पर प्रतिध्वनित होती है. लेकिन वर्तमान विरोध प्रदर्शन उन महिलाओं की छवियों का एक मर्मभेदी कोलाज पेश करते हैं, जिन्होंने लादी गई हिफाजत के पिंजरे को तोड़कर अपने कदम बाहर निकाल दिए हैं और लोकतांत्रिक असंतोष के लबालब भरे गंदले पानी में छलांग लगा दी है. प्रतिरोधी आंदोलनों के वैश्विक इतिहास से सुपरिचित लोगों के लिए सैनिकों को गुलाब पेश करती हुई छात्राओं की तस्वीरें थोड़ा घिसी-पिटी सी लग सकती हैं, लेकिन भारतीय महिलाएं अगुवाई करने के मामले में निर्भीक, कल्पनाशील, निर्माण-कुशल, साधन-संपन्न और बेहद अनुशासित रही हैं. उन्होंने पुरुषों के लिए अनुसरण करने लायक एक मिसाल कायम की है और राज्य को कड़ी कार्रवाई की जुर्रत करने से रोका है.
इस दौरान उनके हाथों में बेहद दिलचस्प तख्तियां नजर आईं. एक पर लिखा था- “मेरे पिता जी को लगता है कि मैं इतिहास की पढ़ाई कर रही हूं; वे नहीं जानते कि मैं इतिहास रचने में मुब्तिला हूं." जबकि अन्य प्लेकार्ड पर दिखाई दिया- "पीएम2.0 पीएम2.5 से बदतर है." बेशक पीएम2.0 प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के दूसरे कार्यकाल और पीएम2.5 कणों के आकार वाले वायुमंडलीय पदार्थ या उन सूक्ष्म कणों को संदर्भित करता है, जो व्यास में मनुष्य के बाल का लगभग 3% होते हैं और नग्न आंखों से दिखाई नहीं देते. इतना ही नहीं, अगर ये कण एक बार फेफड़ों में जम जाएं तो असाध्य हृदय रोग हो सकता है, श्वसन संबंधी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं; यहां तक कि मृत्यु भी हो सकती है! मंडी हाउस से जंतर-मंतर तक कूच करने वाली एक युवती की तख्ती ज्यादा सुस्पष्ट एवं परिष्कृत थी, जिसमें मोदी व अमित शाह एक अलाव के इर्द-गिर्द बैठे हुए हैं और मोदी कहते हैं: "जाड़े के इस मौसम में थोड़ी गर्मी पैदा करना बढ़िया रहा न?" जिस पर शाह जवाब देते हैं: "मुझे बड़ी खुशी है कि यह आग हमने लगाई."
लेकिन महिला विरोध प्रदर्शनों के इस सब से कहीं गहरे निहितार्थ हैं. भारतीय महिलाओं ने अहिंसा की ताकत दिखा दी है. दो हफ्तों से थोड़ा ही पहले एक वीडियो "वायरल हुआ" और सीएए तथा एनआरसी के खिलाफ खड़ा हुआ नागरिक प्रतिरोध आंदोलन अहिंसा के वैश्विक इतिहास में प्रविष्ट कर गया, जो अब अंतरराष्ट्रीय समाचार-चक्र का हिस्सा बन चुका है. जामिया मिलिया इस्लामिया में छात्रों ने प्रदर्शन किए, हिंसा भड़की, हालांकि इस हिंसा का उद्गम कहां पर था, पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता. जामिया की तीन छात्राएं-आयशा रेना, लबीदा फरजाना और चंदा यादव पुलिस की लाठियों के सामने एक साथी पुरुष छात्र की ढाल बन गईं. उन्हें लाठी भांजने वाले पुलिसकर्मियों और साथी छात्र के बीच में पड़ कर प्रतिवाद करते हुए और अकल्पनीय क्रूरता के लिए पुलिसवालों को फटकार लगाते हुए देखा जा सकता है. एक बिल्कुल अलग तरह की अभिव्यक्ति में सिविल नाफरमानी और सामाजिक व्यवहार के निर्धारित मानदंडों का पालन करने से अर्जित सम्मान की स्पष्ट अवहेलना करते हुए अपने-अपने संस्थानों की स्वर्ण पदक विजेता छात्राओं- पांडिचेरी विश्वविद्यालय की रबीहा अब्दुर्रहीम और जादवपुर विश्वविद्यालय की देबास्मिता चौधरी ने दीक्षांत समारोहों के आरंभ में सीएए का कड़ा विरोध दर्शाया. सुश्री चौधरी मंच पर कदम रखते ही चीखीं- "हम कागज नहीं दिखाएंगे", और फिर तमाम लोगों की मौजूदगी में उन्होंने सीएए को फाड़ कर फेंक दिया तथा "इंकलाब जिंदाबाद" का नारा लगाती हुई मंच से नीचे उतर गईं.
दिल्ली के जामिया नगर स्थित मुस्लिम बहुल मोहल्ले शाहीन बाग की महिलाएं गुजरे दो हफ्तों से ज्यादा समय से सीएए और एनआरसी के खिलाफ खामोश प्रदर्शन करती आ रही हैं. उन्होंने महानगर को नोएडा से जोड़ने वाले मुख्य हाईवे के एक हिस्से पर कब्जा जमा रखा है. कुछ महिलाएं तो कई दिनों से घर ही नहीं गई हैं, अन्य महिलाएं अपने बाल-बच्चों के साथ धरने पर बैठी हैं. अशिक्षित होने के बावजूद अनगिनत महिलाएं इस बात से पूरी तरह वाकिफ हैं कि राष्ट्रव्यापी एनआरसी लागू करने की सरकारी योजना में दांव पर क्या लगा हुआ है. ये सभी समझती हैं कि महिलाएं ज्यादा असुरक्षित एवं सहज शिकार बन जाने की स्थिति में होती हैं. संपत्ति के कागजात आम तौर पर पुरुषों के नाम पर होते हैं, और कइयों के पास तो भारतीय नागरिकता साबित करने हेतु जरूरी दस्तावेज ही नहीं हैं. इस सबसे बढ़कर मात्र उनकी उपस्थिति, दृढ़ता और अनुशासित प्रतिरोध ही इस दावे को खारिज करने के लिए काफी हैं कि इन प्रदर्शनों को "विपक्ष" अथवा "बाहर से उकसावा देने वालों" द्वारा हवा दी गई है. ये महिलाएं प्रदर्शनों के हिंसक होने वाले बड़े-बड़े दावों का उतने ही निर्णायक रूप से खंडन प्रस्तुत करती हैं.
महिलाएं कानून के तहत समानता प्रदान करने वाले संवैधानिक वादे की अहिंसक प्रतिज्ञा के शीर्ष पर रही हैं और राज्य की ठगी के प्रति अहिंसक प्रतिरोध का संचालन करती आई हैं. मोहनदास करमचंद गांधी इस बात को लेकर बिल्कुल आश्चर्यचकित नहीं हुए होंगे. ब्रिटेन में चल रहे सफ्राजेट आंदोलन के वह सूक्ष्म विवेचक थे और आंदोलनकारी महिलाओं के बचाव में उन्होंने काफी पहले ही 1907 के दौरान गुजराती भाषा में एक लेख लिखा था- "बहादुर महिलाएं." उनकी राय में महिलाएं सहज-स्वाभाविक रूप से अहिंसा की ओर प्रवृत्त थीं— यद्यपि उन्होंने बार-बार ध्यान दिलाया कि "दुर्बल की अहिंसा" और "सबल की अहिंसा" के बीच फर्क किया जाना जरूरी था. "दुर्बल" से उनका तात्पर्य अपने आपमें महिलाओं को नामजद करना नहीं था, बल्कि उन तमाम पुरुषों या महिलाओं को चिह्नित करना था, जिन्होंने सावधानीपूर्वक चुन कर, विचार-विमर्श या नैतिक विवेक बुद्धि से नहीं, बल्कि आदत, प्रवृत्ति या सर्वाधिक महत्वपूर्ण रूप से परिस्थितियों की मार खाकर अहिंसा का रुख अख्तियार कर लिया है. गांधी जी को यकीन था कि यदि अहिंसा के प्रति महिलाओं के स्वाभाविक झुकाव का रुख अहिंसक सामाजिक परिवर्तन के अनुशासित और सुव्यवस्थित आंदोलन को जन्म देने की ओर कर दिया जाए, तो वे आदर्श सत्याग्रही सिद्ध हो सकती हैं.
अपने साप्ताहिक पत्र 'हरिजन' के पन्नों में सालों-साल लिखते हुए गांधी जी ने अपना यह विचार स्पष्ट रूप से जता दिया था कि “स्त्री अहिंसा का अवतार है." अहिंसा का अर्थ है असीम प्रेम, जिसका आगे फिर से एक और अर्थ निकलता है- पीड़ा भोगने की असीम क्षमता. अहिंसा के उपदेश में प्रेम और पीड़ा शायद हमारे दौर के उतने प्रमुख शब्द नहीं रह गए हैं, जितना कि "समानता" और "अधिकार" जैसे शब्दों का बोलबाला है. लेकिन किसी को जो भी शब्द सर्वाधिक उचित लगते हों, नागरिक प्रतिरोध आंदोलन में महिलाओं का उभार निस्संदेह इस बात का सबसे आशाजनक संकेत है कि देश ने अभी तक बिल्कुल बहरी अधिनायकवादी ऐसी किसी सरकार के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया है जो स्वयं की जीत के मद में चूर है. अतीत की तरह ही बारंबार अब महिलाएं यकीनन यह दिखा देंगी कि लोकतांत्रिक भावना के प्रति बाहुबल का नग्न प्रदर्शन परस्पर विरोधी और सर्वथा बेमेल है.
विनय लाल UCLA में इतिहास के प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं. साथ ही वो लेखक, ब्लॉगर और साहित्यिक आलोचक भी हैं.
वेबसाइटः http://www.history.ucla.edu/
यूट्यूब चैनलः https://www.youtube.com/user/
ब्लॉगः https://vinaylal.wordpress.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)