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BLOG: खुशियों की बेचैन तलाश बनाम सुसाइड करती औरतें

 

औरतें सुसाइड कर रही हैं. बड़े नंबर्स में. अगर दुनिया में हर साल कोई एक सौ औरतें सुसाइड करती हैं तो उनमें 37 औरतें भारत की होती हैं. चलिए हम किसी मोर्चे पर तो बाकी देशों से आगे बढ़े हैं. आप सोचकर तसल्ली कर सकते हैं. यूं औरतों के मामलों में हमारी तरक्की की मिसाल दी जा सकती है. तमाम लोग गुस्सा गए थे, जब भारत को औरतों के लिए खतरनाक देश कहा गया था. यह बात और है कि हम इस ग्लोबल चिंता को बरकरार रखने के लिए लगातार मिसाल दर मिसाल पेश करते रहते हैं. हरियाणा, उत्तर प्रदेश, जम्मू... आप नाम लीजिए, किसी भी राज्य का, शहर का, कस्बे का... एक से एक मामला सामने आएगा.

तो औरतें सुसाइड कर रही हैं, तंग आकर. तंग किससे हैं... लानसेट पब्लिक हेल्थ जरनल की द ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी कहती है कि औरतें पारिवारिक प्रेशर से, करियर और वित्तीय चिंताओं से, लांछन और उत्पीड़न से, अनदेखी किए जाने से, सोशल मीडिया के चलते सुसाइड कर रही हैं. एक दिलचस्प बात यह भी है कि शादी औरतों के सुसाइड का बड़ा कारण है क्योंकि शादीशुदा औरतों में सुसाइड की दर अधिक है. अरेंज मैरिज, कम उम्र में शादी, कम उम्र में मां बनना, समाज में लो स्टेटस, घरेलू हिंसा और आर्थिक रूप से पति या परिवार पर निर्भर होना... ये सब करेले पर और नीम चढ़ाता है.

औरतें न हों तो अच्छा ही है. पिछले दिनों बनारस में पिशाचिनी मुक्ति पूजा में औरतों को नरक का द्वार ही बताया गया था. न हों तो मुसीबत टली... पर फिर मर्द जात होगी भी कैसे. इसीलिए मर्द के होने के लिए भी औरत का होना जरूरी है. लेकिन कद्र करेंगे तो सोचेंगे ना कि औरतों में सुसाइड की प्रवृत्ति क्यों बढ़ रही है. मेंटल बीमारियां हमारे यहां कोई बीमारी मानी भी नहीं जाती. और फिर औरतों में हों तो बात ही क्या है. पगली हैं, बौड़म या फिर झगड़ालू-रोतड़ू या कुछ और. तरह-तरह के तमगों से सजी. कह दिया कि आंसू बहाकर, इमोशनल ब्लैकमेल करके बात मनवा ही देती हैं. फिर कौन करे इस बात की चिंता की वे सुसाइड क्यों करती हैं.

लानसेट की स्टडी ने खुद ही खुलासा किया और खुद की इस खुलासे की वजह बताई. औरतें परेशान हैं क्योंकि हम सब मिलकर उन्हें परेशान करते हैं. डिप्रेस करते हैं. डिप्रेशन सुसाइड के लिए जमीन तैयार करता है. यह डिप्रेशन बदलते दौर की ट्रैजेडी है. इसका शिकार मर्द भी होता है, औरत भी. लेकिन मर्दों के लिए डिप्रेशन से निकलना जितना आसान है, औरत के लिए नहीं. दो-चार झापड़ बीवी के रसीद किए- दारू चढ़ाई- दोस्तों से चकल्लस की, डिप्रेशन कम हुआ. जिस औरत को अपने साथ, पति के डिप्रेशन को झेलना पड़ता है, उसकी हालत बद से बदतर होती जाती है. हमारे यहां विवाह जैसी संस्थाओं में औरतों को यूं भी दबाव और तनाव ज्यादा झेलना पड़ता है. मियां-बीवी के बीच का संवाद भी लगभग नदारद रहता है. बीवी की भूमिका निश्चित होती है. कई बार इन भूमिकाओं को अच्छी तरह से निभाने की वजह से अपने करियर को भी अलविदा कहना पड़ता है. संगी-साथी भी छूट जाते हैं. अपने लिए कम होते स्पेस से दमघोंटू माहौल तैयार होता है और उसका खामियाजा अधिकतर औरतों को ही उठाना पड़ता है. खुशियों की बेचैन तलाश और अपने वजूद की खोज के बीच बार-बार उसकी कठोर परख, मानो असुरक्षा जनित भय उत्पन्न करती है. औरतें मुश्किल फैसला ले लेती हैं.

वैसे डिप्रेशन और सुसाइड के बीच रिश्ता जोड़ना बहुत आसान है, लेकिन सुसाइड के मामलों के लिए सिर्फ आपसी संबंध ही जिम्मेदार नहीं होते. अपने आस-पास के माहौल के प्रति नाखुशी भी आपकी तकलीफ की वजह हो सकती है. देश की गारमेंट इंडस्ट्री में सुसाइड के बढ़ते मामलों पर आप क्या कहेंगे? तमिलनाडु के इरोड जिले की गारमेंट फैक्ट्रियों की महिला कर्मचारियों के लिए रीड नाम की एक संस्था काम करती है. उसका कहना है कि यहां औरतों में सुसाइड की प्रवृति इसलिए ज्यादा है, क्योंकि उन्हें काम के बदले पूरे पैसे नहीं मिलते. लंबे घंटों तक काम करना पड़ता है. सुपीरियर्स खराब व्यवहार करते हैं. यौन और मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है. जाहिर सी बात है, इसके लिए कानून को अच्छी तरह से काम करना होगा- खासकर श्रम कानूनों को. पर हमारे यहां हैप्पीनेस मंत्रालय बनाना जरूरी है, कानूनों को अच्छी तरह से अमल में लाना नहीं. पिछले दिनों अंग्रेजी के एक अखबार में कॉलमिस्ट गुरचरण दास ने लिखा था कि सिर्फ प्रसन्नता मंत्रालय बनाने से लोग खुश नहीं हो सकते. तमाम विश्लेषण कहते हैं कि जब लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी होंगी, जब उन्हें उनका हक मिलने लगेगा, वे खुद खुश रहने लगेंगे. ध्यान दीजिए कि मप्र और आंध्र प्रदेश में हैप्पीनेस मंत्रालय मौजूद हैं, अब महाराष्ट्र भी इसी तर्ज पर है.

औरतें खुश नहीं हैं तो इसका कारण यह है कि उनके हक से उन्हें महरूम रखा जाता है. हक पैसों के भी हैं. शरीर और मन के भी. यह हक सिर्फ उनके परिवार को नहीं, समाज को भी देना होगा. पर समाज इसके लिए तैयार नहीं है. कुछ समय पहले महिला और बाल विकास मंत्री ने संसद में कहा है कि वैवाहिक संबंधों में जबरन संभोग या बलात्कार कोई समस्या नहीं है. इसके बावजूद कि एनसीआरबी की रिपोर्ट कहती है कि भारत में 2% औरतें अपने पतियों या पार्टनरों के रेप का शिकार होती हैं. पर घरेलू झगड़ों को हम पर्सनल कॉज मानकर चलते हैं. यही कहते रहते हैं कि मामला बेडरूम के अंदर का है. ऐसे में कहीं औरतें मुंह सी लेती हैं, कहीं जान दे देती हैं.

सुसाइड की दर के अलावा एक सच और है. जनगणना के आंकड़े कहते हैं कि हमारे यहां 14 साल से ऊपर की 94 प्रतिशत से ज्यादा लड़कियां शादीशुदा हैं. अगर बाल विवाह कानून का पालन ही कायदे से हो जाए तो बेशक, आत्महत्याओं के मामलों में कुछ कमी होगी. बाकी सब समझदार हैं. सोच सकते हैं कि किन-किन कानूनों का सख्ती से पालन करके सुसाइड कम किए जा सकते हैं. सुसाइड की प्रवृत्ति को समझने के लिए यह सोच एक दिए की तरह काम कर सकती है.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)

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