आज ‘विश्व पत्रकार दिवस’ पर अकबर इलाहाबादी का अंग्रेजों के ज़माने में कहा गया यह शेर जहन में कौंध जाना स्वाभाविक है- “तीर निकालो न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो.” लेकिन समकालीन दौर की पत्रकारिता के लिए यह शेर मुफ़ीद नहीं लगता क्योंकि आज के तमाम बड़े-बड़े ‘तोप’ लोग अख़बार का गद्दा-तकिया बनाकर आराम से लेटे हुए हैं.
किसी भी देश की लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली में चौथे स्तंभ के रूप में स्वतंत्र प्रेस की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है क्योंकि यह तीन अन्य प्रमुख स्तंभों- न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका की आंख होता है. लेकिन शासक वर्ग प्रेस की स्वतंत्रता में बाधा पहुंचाने की प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जुगाड़ हमेशा लगाता रहता है. कुछ देशों में तो स्वतंत्र प्रेस लगभग प्रतिबंधित ही है। उत्तर कोरिया, चीन, तुर्की, सीरिया और इरीट्रिया जैसे देश इसका जीता-जागता उदाहरण हैं. भारत में फिर भी गनीमत है कि मीडिया प्रतिदिन की घटनाओं और जनता के मुद्दों को पाठकों के सामने परोसने का काम जारी रखे हुए है. यह बात और है कि शासन के विषय में सही राय बनाने हेतु मुहैया कराई गई इन सूचनाओं की विश्वसनीयता, पूर्वग्रह और दुराग्रह सत्य का किस हद गला घोंटते है, यह जानने का कोई सार्वजनिक और मानक पैमाना हमारे यहां नहीं है.
एक अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन ‘रिपोर्टर्स विदाऊट बॉर्डर्स’ ज़रूर है, जो वर्ष 2002 से लगातार ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक’ जारी करके बताता है कि अमुक देश में पत्रकारों के लिए काम करने के हालात कितने मुश्किल हैं. वर्ष 2017 के लिए इसने जो सूचकांक जारी किया है उसके मुताबिक भारत 180 देशों की इस सूची में 136वें स्थान पर है जबकि वर्ष 2016 में 133 वें स्थान पर था. जाहिर है हालात लगातार बिगड़ते ही जा रहे हैं.
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो ग्युटेरेज ने ‘वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे’ के अवसर पर 3 मई, 2017 को कहा कि पत्रकार ख़तरनाक से ख़तरनाक जगहों पर बेआवाज़ों की आवाज़ बनने पहुंचते हैं ऐसे में यदि हम पत्रकारों की सुरक्षा करें तो उनके शब्द और तस्वीरें हमारी दुनिया बदल सकती हैं. लेकिन विडंबना देखिए कि स्थानीय ‘पी24’ मंच के मुताबिक तुर्की में 165 से ज़्यादा निरपराध पत्रकार सलाखों के पीछे डाल दिए गए हैं. चीन में 38, मिस्र में 25 और इथियोपिया और इरीट्रिया के 37 पत्रकारों समेत दुनिया भर में 2016 के आखिर तक 300 से ज़्यादा पत्रकार जेलों में बंद रखे गए थे. लेकिन इन मामलों में यूएन की ज़ुबान बंद है और दुनिया भर में विभिन्न मोर्चों पर डटे पत्रकारों की खाल उधड़ना जारी है.
भारत में पत्रकारों की नीति नियंता संवैधानिक संस्था ‘भारतीय प्रेस परिषद्’ 1966 से कार्यरत है लेकिन यह नख-दंत विहीन है. प्रतिवर्ष 16 नवंबर को ‘राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस’ मनाया जाता है. 30 मई को ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ मनाया जाता है. पत्रकारों के अधिकारों के लिए संघर्ष का दावा करने वाली संस्थाओं की तो गिनती ही नहीं है. लेकिन आज पत्रकारों की अवस्था क्या है? दरअसल दौर कोई भी हो, पत्रकार का पहला रक्षा कवच उसका संपादक होता है जो उसे सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक और क़ानूनी अजाबों से बचाता है. लेकिन दुखद है कि आज़ादी की लड़ाई से लेकर सदा मार्गदर्शन करने वाली संपादक नामक संस्था का विलोप हो चुका है.
हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा आचार्य शिवपूजन सहाय (ई.1910-1960) ने आज़ादी के बाद ‘संपादक के अधिकार’ शीर्षक में लिखा था- “कहने को तो देश को आज़ादी मिल गई है लेकिन पत्रकारिता और पूंजीवाद तथा बाज़ारवाद का बेमेल गठबंधन सिर्फ हिंदी की ही नहीं, बल्कि सभी भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के गले की फांस बना हुआ है. पूंजीपतियों के दबाव में संपादकों-संवाददाताओं के पास कर्तव्य निर्वहन की आज़ादी नहीं है. वे संपादकों का महत्व ही नहीं समझते!” हालांकि अपवादस्वरूप आज भी कुछ ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ मालिक व संपादक चराग लेकर ढूंढ़ने पर मिल सकते हैं.
पत्रकारिता से जुड़ी नैतिकता हमेशा ‘नुकसान की सीमा’ के सिद्धांत को मान कर चलती है जिससे किसी की साख को अनावश्यक बट्टा न लगे. पत्रकारों और संपादकों को तथ्य प्रकाशित करने से रोकने के अथवा विशेष आदेशों का पालने करने के लिए बाध्य करने की प्रवृत्तियाँ चिंताजनक हैं. कई मामलों में तो पत्रकार ख़ुद किसी विचारधारा अथवा प्रलोभन के वसीभूत होकर अपने मूल कर्तव्य से विमुख हो जाते हैं और पार्टी कार्यकर्ता की तरह व्यवहार करने लगते हैं. अख़बारी ‘प्रेस’, शादी के कार्ड छापने वाले प्रिंटिंग ‘प्रेस’ और कपड़ों में इस्तरी करने वाले के ‘प्रेस’ में फर्क़ मिटता जाता है. बाइकरों, अपराधियों, जुआरियों-सटोरियों, भ्रष्ट नेताओं, नेताओं के चमचों, भ्रष्ट अफसरों, बाबुओं आदि में अपने वाहनों पर ‘प्रेस’ लिखने की होड़ मच जाती है. लेकिन इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भारतीय पत्रकारिता को छवि और विश्वसनीयता के इस संकट से अब जूझना ही होगा.
पत्रकारों की जन्नत के मामले में ‘रिपोर्टर्स विदाऊट बॉर्डर्स’ की सूची में इस बार भले ही नॉर्वे पहले और स्वीडन दूसरे नंबर पर है. पर वक़्त आ गया है कि हमें आसमान की तरफ देखने की बजाए प्राकृतिक आपदाओं से लेकर राजनीतिक भूचालों के बीच पत्रकारिता करते हुए भारत को ही पत्रकारों की जन्नत बनाना चाहिए.
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