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(Source: ECI/ABP News/ABP Majha)

संघर्ष के अग्निपथ पर ‘मजदूर दिवस’ की विरासत ही ले जाएगी!

आज मजदूर दिवस है. इक्का-दुक्का कर्मकांड छोड़ दें तो समाज, मीडिया में अब मजदूर दिवस की ज़्यादा चर्चा नहीं होती. मौजूदा उत्पादन प्रणाली ने तो ख़ुद मजदूरों को इस बात का भान नहीं रहने दिया कि यह पूरे विश्व के मेहनतकशों की जीत का दिन है. एसी कमरों में बैठे लोग भी भूल गए कि सीमित काम करने का सुख वे मई आंदोलन की बदौलत ही भोग रहे हैं. यह 1886 में शिकागो के हेमार्केट स्क्वैयर में हुए उस आन्दोलन की याद दिलाता है, जिसमें मजदूर वर्ग ने कई सालों के अपने जुझारू संघर्षों की जीत के रूप में आठ घंटे का कार्यदिवस हासिल किया था और अपने 4 शीर्ष नेताओं की फांसी देखी थी.

आज 130 सालों बाद भी हेमार्केट स्मारक पर खुदी हुई इबारत पढ़ी जा सकती है ‘वह दिन ज़रूर आएगा जब हमारी ख़ामोशी उन आवाज़ों से भी ज़्यादा बुलंद होगी जिन्हें आज तुम दबा रहे हो.’

विडंबना देखिए कि मजदूरों के सैकड़ों संगठन मौजूद हैं लेकिन उनसे ज़्यादा दुनिया के पूंजीपति एकजुट हैं. ‘अखिल भारतीय पूंजीपति संघ’, ‘पूंजीवादी ट्रेड यूनियन’ अथवा ‘इंटरनेशनल कैपिटलिस्ट फोरम’ जैसी कोई काल्पनिक संस्था तक हमने कभी नहीं देखी-सुनी, फिर भी प्राकृतिक संसाधनों एवं करदाताओं के पैसों की लूट के लिए मामला गिरोहात्मक कैपिटलिज्म तक जा पहुंचा है. दूसरी तरफ भारत में कम से कम 11 संगठन ऐसे हैं जिन्हें केंद्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त है. इन यूनियनों का दावा मजदूरों की भलाई करने का है लेकिन कामगारों की सूखी रोटी के बल पर इन्होंने खुद मलाई चखी है. इन्होंने मजदूरों को मजदूर नहीं रहने दिया बल्कि उन्हें उनके धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा की चिलमन में बिठाकर गहरी फूट डाली तथा उन्हें वामपंथी और दक्षिणपंथी जमूरों में बदलकर राज करने की कोशिश की. भारत में छुट्टा मजदूरों की संख्या करोड़ों में है जिनमें से 94% असंगठित क्षेत्र से आते हैं.

असंगठित क्षेत्र का मजदूर 12 से 14 घंटे तक काम करने को मजबूर है. उसकी कोई मजदूरी तय नहीं है. ठेकेदार (कॉंट्रैक्टर) मजदूर की मजबूरी का फ़ायदा शीतल छाया में बैठकर उठाते हैं. बैंक जाकर पेंशन उठाना मजदूर के सपने में भी नहीं आता. उसके लिए सातों दिन भगवान के हैं. जिस दिन काम पर नहीं निकलेगा उस दिन बीवी-बच्चों के साथ उसका भूखा सोना तय है. संगठित क्षेत्र के मजदूरों को भी हूरों के सपने नहीं आते. वे सरकार द्वारा चलाए जा रहे निजीकरण के बुल्डोजर से हर पल भयभीत रहते हैं. वीआरएस के हथियार से उनका किसी भी वक़्त क़त्ल किया जा सकता है.

मजदूरों के कल्याण के लिए सरकारें और यूनियनें तरह-तरह की योजनाएं बनाने का दम भरती हैं लेकिन आज आप किसी भी शहर में चले जाइए, मजदूरों के श्रम का शोकगीत सुबह से शाम तक बजता रहता है. चौक-चौराहों पर ये 'भेड़-बकरियों' की तरह झुंड में खड़े मिल जाएंगे. इनमें कुशल कारीगर और अकुशल श्रमिक सब मिल जाएंगे. अपने बच्चों को कटहल की तरह गले से टांगे श्रमिक महिलाएं खड़ी दिख जाएंगी. गर्मी हो, ठंड हो या बारिश, काम के इंतज़ार में खड़े रहना इनकी मजबूरी है. ये भवन निर्माण, पल्लेदारी, पत्थर तोड़ने, रेत-गिट्टी उठाने, ईंट बनाने से लेकर घर की नालियां साफ करने तक के लिए ख़ुद को सपर्पित किए रहते हैं. जो मजदूर अपने पिता का नाम तक नहीं लिख पाता हो उसके सामने सरकारी हाईटेक फुलझड़ियों का भी कोई औचित्य नहीं रह जाता. तमाम मंगलमय योजनाएं मजदूर तक पहुंचते-पहुंचते अमंगलमय सिद्ध हो जाती हैं.

विश्व बैंक की नई रिपोर्ट बताती है कि भारत के श्रम क़ानून दुनिया के सर्वाधिक अवरोधी क़ानून हैं. ये लाइसेंस राज के पिट्ठू का काम करते हैं. आज केंद्र सरकार के पास श्रम से संबंधित 50 और राज्य सरकारों के पास करीब 150 विभिन्न तरह के क़ानून हैं. कुछ क़ानून तो ईस्ट इंडिया कंपनी के ज़माने के भी हैं. सच्चाई यह भी है कि देश भर के सैकड़ों इंजीनियरिंग और आईटीआई संस्थान तथाकथित कुशल श्रमिकों की ऐसी फौज़ तैयार कर रहे हैं, जिन्हें कुशलता से एक कील ठोकना भी नहीं आता. नास्कॉम की रपट में ऐसे संस्थानों को 'कुकुरमुत्ता' बताया गया है.

वामपंथियों, दक्षिणपंथियों और उनकी ट्रेड यूनियनों के अलावा सरकारें भी समय-समय पर श्रम सुधार की कसरत करती नज़र आती हैं तथा इसके नाम पर अब तक भारत में दो आयोग भी बन चुके हैं. यह बात और है कि दूसरे आयोगों की परंपरा के अनुसार इन आयोगों की सिफ़ारिशों को भी कूड़ेदान में शरण मिली. पिछले लगभग 2 दशकों में सरकारों ने मजदूरों के पेट का ध्यान रखकर भोजन का अधिकार, काम का अधिकार, नरेगा और अन्य योजनाओं की फ़सल बोई लेकिन मजदूरों को अपने पैरों पर खड़ा होने का कोई ठोस काम किसी ने नहीं किया. मजदूरों को कुशल बनाने, पेशे के अनुसार उनको आधारभूत शिक्षा देने, उनके काम की जगहों को सुरक्षित बनाने तथा ‘पसीना सूखने से पहले मजदूर की मजदूरी मिलने’ का कोई मंजर नज़र नहीं आता. ऐसे में मजदूर को यह दर्शन ख़ुद समझना होगा कि बिना अपने मरे स्वर्ग नहीं मिलता. इस संघर्ष का सही रास्ता उसे ‘मजदूर दिवस’ की विरासत और शहादत ही दिखा सकती है.‘मई दिवस अमर रहे!’

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है)

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