हमारी लगभग टू पार्टी सिस्टम वाली मौजूदा राजनीतिक प्रणाली में एक दिलचस्प परम्परा कायम हो चुकी है कि जब-जब आम चुनाव नजदीक आते दिखें तो तीसरा मोर्चा का हल्ला मचाना शुरू कर दीजिए. वर्ष 1989 से शुरू हुआ यह सिलसिला 2014 के चुनावों से पहले भी बरकरार रहा. पिछली बार तो वामदलों की अगुवाई में लगभग दर्जन भर पार्टियों के शीर्ष नेता साम्प्रदायिकता के विरुद्ध संयुक्त मंच खड़ा करने के बहाने मोदी सुनामी को नियंत्रित करने के लिए दिल्ली में जुट गए थे. लेकिन न नौ मन तेल हुआ न राधा नाची.
अभी 2019 के चुनाव साल भर से ज्यादा दूर हैं और उत्तर-पूर्व के राज्यों में चुनाव परिणाम लिखे जाने की स्याही भी नहीं सूखी है, लेकिन गैर-कांग्रेस और गैर-बीजेपी वाले कथित तीसरे मोर्चे का मगरमच्छ राजनीतिक तालाब में सुरसुराने लगा है. यह सुरसुरी छोड़ने वाले कोई और नहीं बल्कि तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव (केसीआर) हैं, जो न तो वीपी सिंह हैं और न ही हरकिशन सिंह सुरजीत. उनकी तीसरा मोर्चा गठित करने लायक देशव्यापी छवि ही नहीं है.
तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख केसीआर का कहना है कि वह गुणवत्तापूर्ण बदलाव लाने के लिए समान सोच वाले दलों का एक मंच गठित करने हेतु शीर्ष नेताओं के साथ बातचीत कर रहे हैं. उनकी आवाज से आवाज मिलाई है हर तीसरे मोर्चे के लिए राजी रहने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुसलमीन (एआईएमआईएम) के प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी साहब ने. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के हेमंत सोरेन भी केसीआर के साथ कोरस गा रहे हैं. सीताराम येचुरी, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, हर्दनहल्ली डोड्डेगौड़ा देवगौड़ा और तेजस्वी यादव जैसे कुछ नेतागण सुर में सुर मिलाने आते ही होंगे.
अच्छी तरह याद है कि 90 के दशक के दौरान जब जनता दल की अगुवाई में तीसरा मोर्चा गठित हुआ था तब आरके लक्ष्मण, काक, तैलंग, साबू और इरफान जैसे देश के शीर्ष कार्टूनिस्ट उसका चुनाव चिह्न टेढ़े-मेढ़े किंतु पूर्ण पहिए के रूप में दिखाया करते थे. लेकिन जैसे-जैसे मोर्चे के घटक दल दामन छोड़ते जाते थे पहिया लंगड़तम और विकृत होता दिखाया जाता था. अपने यहां तीसरे मोर्चे, संयुक्त मोर्चे, राष्ट्रीय मोर्चे अथवा संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील मोर्चे की अब तक यही नियति रही है. वह भी तब, जब ज्योति बसु, एनटीआर, मुलायम सिंह, देवगौड़ा, चंद्रशेखर, चौधरी देवीलाल, बीजू पटनायक, जॉर्ज फर्नांडीज, लालू यादव और चंद्रबाबू नायडू जैसे नेताओं का अपने-अपने क्षेत्रों में ठोस जनाधार और जल्वा था. राजा माण्डा की ईमानदार छवि इन्हें राष्ट्रीय छतरी उपलब्ध करवाती थी.
ऐसा भी नहीं है कि भारत में तीसरे मोर्चे की ललक, कल्पना और जरूरत बेसिर-पैर की बातें है. एकक्षत्रवाद की काट निकालने, क्षेत्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति करने और देश की सांस्कृतिक बहुलता एवं संघीय लोकतंत्र की कसौटी पर खरा उतरने के लिए समय-समय पर इसके सफल और असफल दोनों तरह के प्रयोग किए गए हैं. खंडित जनादेश वाली सरकारों की मजबूरी और पूर्ण बहुमत वाली सरकारों की हेकड़ी मतदाताओं को तीसरे मोर्चे की ओर आकर्षित करती रही हैं. लेकिन जनता का अनुभव यही रहा कि तीसरा मोर्चा केंद्र में अपनी सरकार तो बना लेता है लेकिन हर बार अपने ही अंतर्विरोधों के चलते ताश के पत्तों की तरह बिखर जाता है.
इन प्रयोगों के तहत राष्ट्रीय मोर्चा ने 1989 से 91 के बीच दो सालों में दो-दो प्रधानमंत्री- वीपी सिंह और चंद्रशेखर दिए. संयुक्त मोर्चे में 1996 से 98 के दो सालों के दौरान दो-दो सरकारें बनीं, जिनमें पहले एचडी देवगौड़ा और बाद में आईके गुजराल प्रधानमंत्री बने. यह राजनीतिक और आर्थिक तौर पर संसदीय राजनीति का सबसे अस्थिर समय माना जाता है. आजादी के बाद देश में एकमात्र मोर्चा था कांग्रेस का. लेकिन साल 1977 में बनी मोरार जी देसाई की जनता पार्टी सरकार को हम दूसरा मोर्चा नाम दे सकते हैं. यह जेपी आंदोलन के फलस्वरूप गैर-कांग्रेसवाद की बुनियाद पर खड़ी जनसंघ (बीजेपी का पूर्ववर्ती दल) समर्थित पहली सरकार थी, जो भरभरा कर गिर गई थी. तीसरे मोर्चे का स्वरूप जनता दल और वीपी सिंह के समन्वयन में 1989 के दौरान सामने आया, जिसमें गैर-कांग्रेसवाद के साथ-साथ गैर-बीजेपीवाद का विचार प्रमुख था.
अब 2019 के आम चुनावों के मद्देनजर केसीआर की पहल का अंजाम क्या होगा, यह अभी से तय नहीं किया जा सकता क्योंकि तीसरे मोर्चे के गठन के लिए मुख्य पार्टियों के खिलाफ कुछ ज्वलंत मुद्दों और माहौल बनाने के लिए मीडिया के सहकार की जरूरत होती है. राजीव गांधी की ऐतिहासिक बहुमत वाली (542 में से 411 सीटें) सरकार तत्कालीन मीडिया की घोर सक्रियता के चलते महज बोफोर्स घोटाले के आरोप में ही नेस्तनाबूद हो गई थी. आज एक नहीं बल्कि किसानों की आत्महत्या, बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, सीमा सुरक्षा, खरबों के बैंक घोटाले, नोटबंदी, साम्प्रदायिकता, कुशासन, महिलाओं के खिलाफ अत्याचार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहरे जैसे अनगिनत मुद्दे हैं, जिन्हें लेकर तीसरा मोर्चा गठित हो और अगर मीडिया साथ दे दे तो सोने पर सुहागा हो सकता है.
लेकिन सवाल वही है कि क्या केंद्र से खफा होने के बावजूद आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू केसीआर के साथ तीसरा मोर्चा बनाने के लिए राजी होंगे? तेलंगाना अलग होने के बाद संसाधनों के बंटवारे को लेकर इन दोनों पड़ोसी राज्यों में काफी कड़वाहट पैदा हो चुकी है. सवाल यह भी है कि क्या घरेलू मैदान वाले धुर विरोधी वाम दलों के साथ ममता बनर्जी राष्ट्रीय स्तर पर मंच शेयर कर सकेंगी?
अंतर्विरोध इतना गहरा है कि वर्ष 2016 में 'संघमुक्त भारत' का आवाहन करने वाले बिहार के सीएम नीतीश कुमार अब एनडीए की गोद में जा बैठे हैं. थोड़ी देर को हम मान भी लें कि मुद्दा आधारित किसी साझा कार्यक्रम के तहत नीतीश तीसरा मोर्चा के साथ आ सकते हैं, लेकिन ऐसे में लालू यादव के कुनबे को किस पलड़े में बिठाया जाएगा? तमिलनाडु में एक दूसरे की कट्टर विरोधी डीएमके और एआईएडीएमके का तीसरा मोर्चा के साथ प्रेम-त्रिकोण कैसे बनेगा? एसपी और बीएसपी इस मोर्चे को किस लोभ में ज्वाइन करेंगी? केर-बेर का संग कैसे निभेगा?
प्रधानमंत्री पद तीसरा मोर्चा में शामिल दलों के लिए चिड़िया की आंख बन जाया करता है. हर क्षत्रप खुद को पीएम मैटीरियल समझने लगता है. लेकिन आज की तारीख में संभावित भानुमती के कुनबे में- सीपीआई, सीपीएम, एसपी, बीएसपी, तृणमूल, डीएमके, बीजद, आप, टीडीपी, टीआरएस, एनसीपी आदि के पास पीएम नरेंद्र मोदी का सामना करने लायक कोई नेता दूर-दूर तक नजर नहीं आता. तब मतदाताओं के सामने संयुक्त मोर्चे पर किसका चेहरा पेश किया जाएगा?
पूर्व में गठित राजनीतिक मोर्चे थोड़ी-बहुत कामयाबी तभी पाते थे जब कांग्रेस और बीजेपी दयनीय स्थिति में होती थीं. आज कांग्रेस तो हर तरह से दुर्बल है लेकिन बीजेपी जनसमर्थन के साथ-साथ साम-दाम-दंड-भेद के मामले में भी महाबली बन चुकी है. अपने जमाने में किए गए धतकरमों की पोल खुलने के भय से कुछ क्षत्रपों के हाथ भी दबे हुए हैं. ऐसे में मोदी-शाह की जोड़ी का मुकाबला 50% से ज्यादा मतदाताओं को अपने पाले में लाकर ही किया जा सकता है, जो शेर के जबड़े से मांस छीनने जैसा दुष्कर कार्य है. अगर ममता बनर्जी और केसीआर जैसे सूरमाओं को मुकाबला करना ही है तो उन्हें अपने जमीनी कार्यक्रम लेकर कांग्रेस के छाते तले एकजुट होना पड़ेगा, जो अपने आपमें टेढ़ी खीर है. इसीलिए फिलहाल किसी भी क्षत्रप के माध्यम से देखे जा रहे तीसरे मोर्चे की सरकार का सपना एक मृगमरीचिका के सिवा कुछ नहीं लगता.
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