राजस्थान के राजसमंद में हुई जघन्य हत्या का वीडियो देखने के बाद यह लिखने-कहने में भी शर्म आ रही है कि हमारा सिर शर्म से झुका जा रहा है. उग्र हिंदू राष्ट्रवाद के अभियान की चरम परिणित अब बर्बरता एवं अमानवीयता की शक्ल में सामने आ रही है. किसी देश का बहुसंख्यक तबका अगर तालिबानी राह पर चल पड़े तो उसके भविष्य की कल्पना करके ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं.


अफसोस! घृणा का विष लोगों के दिमागों में इस कदर भरा जा चुका है कि किसी व्यक्ति को विधर्मी जान कर उसकी हत्या करने मात्र से ही मन को संतुष्टि नहीं मिलती बल्कि नफरत की आग को ठंडा करने के लिए उसे जलाना भी पड़ता है, हेट मर्डर का वीडियो बनाकर उसे यूट्यूब पर वायरल करना पड़ता है और फिर ऐसा ही कुकृत्य करने के लिए अपने धर्म के लोगों का आवाहन भी करना पड़ता है!


भारतीयों की सहिष्णुता का यह रसातल में जाता स्तर देख कर लगता है कि जैसे हमारी ही हत्या करके हमें ही फूंक दिया गया हो! यह पहली घटना नहीं है, अगर हम देश में होने वाले हिंदू-मुस्लिम दंगों के इतिहास की बात छोड़ भी दें तो पुणे का मोहसिन शेख, दादरी का अखलाक, अलवर का पहलू खान, झारखंड का असगर अंसारी, बॉडी बिल्डर नावेद पठान, मथुरा के पास ट्रेन में जुनैद खान और अब पश्चिम बंगाल के मालदा का मजदूर मोहम्मद अफराजुल जैसे कई लोग नफरत के इस खेल की बलि चढ़ चुके हैं. लेकिन इस सिलसिले को रोकने के लिए न्याय, प्रशासन एवं सत्ता प्रतिष्ठान कुछ नहीं कर रहे बल्कि उनकी खामोशी कान के परदे फाड़ रही है.


यही वजह है राजसमंद का हत्यारा आत्मविश्वास से लबरेज है, उसे पता है कि इस जघन्य कृत्य के लिए सरकार उसे दंडित नहीं करेगी; उल्टे उसे समाज के कई सिरफिरों का समर्थन और सहानुभूति ही मिलेगी. हमारे दौर के एक बड़े कवि वीरेन डंगवाल की भाषा में कहूं तो- ‘हमने यह कैसा समाज रच डाला है?’ इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि इतना निर्घृण वीडियो देखने के बाद भी कुछ लोगों की रूह नहीं कांप रही.


वे घटना पर लीपापोती करने में लगे हुए हैं और इसके बरक्स केरल, कर्नाटक, पंजाब और बंगाल में हिंदू नेताओं की हत्याओं को रख रहे हैं. मॉब लिंचिंग को जस्टीफाई करने के लिए मुसलमानों द्वारा किए गए आक्रमणों की याद दिला रहे हैं. पाकिस्तान, बांग्लादेश और अन्य मुस्लिम देशों में हिंदुओं की स्थिति से तुलना करने में जुटे हैं. सीमा पर शहीद होने वाले सैनिकों की दुहाई दे रहे हैं!


इनका ऐसा ब्रेन वॉश किया गया है कि ये भारत की महान परंपरा, अस्मिता और संस्कृति भी बिसरा चुके हैं. स्पष्ट है कि अगर इनके हाथ में राजस्थान के उस शंभूलाल रैगर की तरह बका, कुल्हाड़ा और द्रव ईंधन हाथ लग जाए तो ये भी उसी रास्ते पर चलने से जरा भी नहीं हिचकेंगे! हिंदू कौम सहिष्णु थी, है और रहेगी; इसने दूसरी कौमों को भी आत्मसात कर लिया, लेकिन अब इसे बर्बर बनाया जा रहा है.


राजसमंद जैसी अमानवीय घटनाएं इसी का नतीजा है. पिछले उदाहरण बताते हैं कि ऐसी घटनाओं के दोषियों को बचाया जाता है, उन्हें ईनाम- इकराम से नवाजा तक जाता है, इससे ऐसे तत्वों का मन बढ़ता है. मुसलमानों पर हमले करने और उन्हें घेर कर मार डालने के बहाने ढूंढ़े जाते हैं. कभी लव जिहाद बहाना बनता है, कभी बीफ, कभी गोरक्षा तो कभी आतंकवादी होने का शक.


कोई बताए कि 48 वर्षीय मजदूर मोहम्मद अफराजुल उर्फ भुट्टा खान कौन-से लव जिहाद को अंजाम दे रहा था? लेकिन सिर्फ मुसलमान होना उसकी जान का दुश्मन बन गया. ऐसी हत्यारी मानसिकता कौन तैयार कर रहा है? ऐसे तत्वों को शह और समर्थन कौन दे रहा है? क्या इनका बचाव करने वालों को चिह्नित नहीं किया जाना चाहिए?


हमें यह समझ लेना चाहिए कि हिंदुत्व के ये झंडाबरदार जिस तरह से मुसलमानों के मन में भय उत्पन्न करने वाले पूर्वनियोजित और राजनीति-समर्थित अभियान चला रहे हैं वे हिंदू धर्म की नहीं बल्कि हिंदू आतंकवाद की परिभाषा की शर्तें पूरी करते हैं. मई 2014 में आरएसएस के राजनीतिक मोर्चे भाजपा के केंद्र की सत्ता संभालने के बाद मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की नदी बह रही है. लेकिन जैसा कि पूरी दुनिया में चलन है कि बहुसंख्यकों का अल्पसंख्यकों पर हमला आतंकवाद की श्रेणी में नहीं रखा जाता, इसीलिए हमारे देश में भी इसे रोकने में सख्ती नहीं बरती जाती और राजनैतिक स्वार्थ के लिए अतिवाद की अनदेखी की जाती है. लेकिन इसका दुष्प्रभाव इस रूप में देखने को मिल रहा है कि एक पूरी कौम अंदर ही अंदर खदबदाने लगी है.


वह मुख्यधारा से अलग-थलग और असहाय महसूस कर रही है. कहावत है कि अगर बिल्ली को भी कमरे में बंद करके मारा जाए तो आखिरकार वह हमला कर देती है. लेकिन तारीफ करनी होगी कि अब भी अल्पसंख्यक कौम के सब्र का पैमाना नहीं छलका है. वह समझ रही है कि उसकी एक प्रतिक्रिया पूरे देश को ऐसी आग में झोंक देगी कि भारत के लाक्षागृह बनते देर नहीं लगेगी.


इस मायने में इस कौम की देशभक्ति को  सलाम करना होगा. जो अपराध मात्र एक दारोगा की सक्रियता से काबू में किए जा सकते हैं, उनको हवा देकर राजनीतिक दल देश का किस प्रकार भला कर रहे हैं, समझ से परे है. यह राम-राम करते हुए मरा-मरा के मार्ग पर चल निकलने का परिणाम है. अब भी देर नहीं हुई है.


बाहुबल, धनबल, वोट, पद, सत्ता, सम्मान पाने के भारत कई तरीके और मौके उपलब्ध करवाता है. पशु बन कर मनुष्योचित उपलब्धियां कभी प्राप्त नहीं हो सकतीं. नवाज देवबंदी कह गए हैं- ‘जलते घर को देखने वालो, फूस का छप्पर आपका है/ आपके पीछे तेज़ हवा है आगे मुकद्दर आपका है/ उसके क़त्ल पे मैं भी चुप था मेरा नम्बर अब आया/ मेरे क़त्ल पे आप भी चुप हैं अगला नम्बर आपका है.’


-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार


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