पायल का सच साबित होना बाकी है, पर फिल्म इंडस्ट्री की सच्चाई बहुत कड़वी है
हैशटैग मीटू कई साल पहले शुरू हुआ था. इस अभियान में यौन उत्पीड़न का शिकार हुई दुनिया भर की लड़कियों-महिलाओं ने ऑनलाइन अपनी आपबीतियां शेयर की थीं.
राइटर डायरेक्टर अनुराग कश्यप पर हैशटैग मीटू की आंच आ गई है. ऐक्ट्रेस पायल घोष ने उन पर आरोप लगाया है कि कई साल पहले अनुराग ने उनके यौन शोषण की कोशिश की थी. उन्होंने कई साल बाद इसलिए मुद्दा उठाया है क्योंकि अनुराग लगातार महिलाओं के हक की बात कर रहे हैं जबकि वह खुद महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करते रहे हैं. जाहिर सी बात है, अनुराग ने इस आरोप से इनकार किया है और वह कह रहे हैं कि उनके चरित्र हनन के लिए ऐसे आरोप जान-बूझकर लगाए जा रहे हैं.
हैशटैग मीटू कई साल पहले शुरू हुआ था. इस अभियान में यौन उत्पीड़न का शिकार हुई दुनिया भर की लड़कियों-महिलाओं ने ऑनलाइन अपनी आपबीतियां शेयर की थीं. बताया था कि अलग-अलग मौकों पर कैसे पुरुषों ने उनका हैरेसमेंट किया था. इसके साथ ही कई बड़े और मशहूर पुरुषों का कच्चा-चिट्ठा खुला था. सजा भले किसी को न हुई हो, लेकिन फौरी नतीजे हुए थे. बॉलिवुड में कइयों के हाथ से फिल्में निकल गई थीं, कइयों के साथ लोगों ने काम करने से इनकार कर दिया था. लेकिन इससे न तो समस्या का कोई हल निकला था और न ही पीड़ित या आरोपी को न्याय मिला था. बाद में, सभी इन किस्सों को भूल गए. यह अभियान भी कमजोर पड़ गया.
इसके कई साल बाद अनुराग के खिलाफ मामला सामने आया है. मानो, हैशटैग मीटू को फिर से जिंदा करने की कोशिश है. पायल घोष ने एक टीवी इंटरव्यू के दौरान यह खुलासा किया है कि किस तरह अनुराग ने उन पर हावी होने की कोशिश की थी. अगर पायल सही कह रही हैं तो भी अपनी बात को साबित करने का उनके पास कोई सबूत नहीं है. ऐसी स्थितियों में अगर अनुराग दोषी नहीं हैं तो उनके या ऐसे किसी भी आरोपी के लिए खुद को निर्दोष साबित करना बहुत मुश्किल नहीं है.
पायल का मामला वर्कप्लेस हैरेसमेंट का मामला है
यूं पायल का मामला वर्कप्लेस में हैरेसमेंट का मामला है. इस सिलसिले में हमारे यहां पॉश एक्ट यानी कार्यस्थल पर महिला यौन उत्पीड़न (निवारण, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 लागू है. यह काम करने वाली जगहों पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न से संबंधित प्रावधान करता है. पॉश एक्ट संगठित और असंगठित, दोनों तरह की इंडस्ट्री पर लागू होता है. इसमें सेक्सुअल हैरेसमेंट की परिभाषा काफी व्यापक है. सेक्सुअल प्रकृति का हर किस्म का शारीरिक, मौखिक या गैर मौखिक व्यवहार इसमें शामिल है जो किसी को नापसंद हो. वर्कप्लेस की परिभाषा में भी बहुत सारी जगहें शामिल हैं. फिल्म इंडस्ट्री के लिहाज से देखें तो हर लोकेशन या स्टूडियो, पार्टी, प्रमोशनल इवेंट्स, और दूसरी सोशल गैदरिंग्स यहां वर्कप्लेस कहलाती हैं. इस कानून के तहत इंडस्ट्री से जुड़े हर संगठन से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने यहां सेक्सुअल हैरेसमेंट को रोकने के लिए पॉलिसी बनाएगा. अगर उसके यहां दस या उससे अधिक कर्मचारी काम करते हैं तो वह एक इंटरनल कमिटी यानी आईसी बनाएगा जहां उत्पीड़न का शिकार महिलाएं अपनी शिकायत दर्ज कराएंगी. अगर किसी संगठन में दस से कम कर्मचारी काम करते हैं तो विक्टिम अपनी शिकायत लोकल कंप्लेन कमिटी यानी एलसीसी में कर सकती है. मुंबई में एलसीसी 2015 में बनाई गई थी. वैसे रिपोर्ट्स बताती हैं कि यहां पिछले तीन सालों में सिर्फ छह शिकायतें दर्ज कराई गई हैं.
पॉश के अलावा आईपीसी, 1860 के अंतर्गत भी यौन उत्पीड़न की शिकार महिला शिकायत दर्ज करा सकती है. पॉश में अगर शिकायत दर्ज कराने की समय सीमा तीन महीने है तो आईपीसी के अंतर्गत उत्पीड़न के तीन साल के अंदर शिकायत दर्ज कराई जा सकती है.
फिर भी शिकायत दर्ज कराना मुश्किल
तमाम कानूनी उपाय होने के बावजूद फिल्म इंडस्ट्री को यौन उत्पीड़न के मामले में घेरना आसान नहीं है. ज्यादातर प्रोडक्शन कंपनियों में आईसी नहीं है. अगर हैं भी तो महिलाएं इस बारे में जानती ही नहीं हैं. हीरोइनें भले ही यौन उत्पीड़न के आरोप लगाने की हिम्मत रखती हों, जूनियर आर्टिस्ट्स की तो कोई सुनता ही नहीं है. वैसे भी देश भर फिल्म इंडस्ट्री की संरचना बहुत अनौपचारिक है. यहां वर्कप्लेस पॉश एक्ट में परिभाषित वर्कप्लेस के मुकाबले काफी बड़ा है. यह प्राइवेट रूम हो सकता है जहां स्क्रिप्ट रीडिंग होती है या फिर कॉस्ट्यूम डिजाइनर की शॉपिंग वाली जगह या जूनियर आर्टिस्ट के इंतजार करने वाली जगह भी. पीड़ित आरोपी के साथ सिर्फ एक जगह पर काम नहीं करती, बल्कि अलग-अलग प्रॉजेक्ट्स के लिए अलग-अलग जगह पर काम करती है. इसके अलावा फिल्म प्रोडक्शन की फिजिकल लोकेशन तय नहीं है. वह दुनिया में कहीं भी स्थित हो सकती है. अगर कंपनी में आईसीसी नहीं हो तो ऐसी स्थिति में एलसीसी में शिकायत दर्ज कराना मुश्किल है, चूंकि एलसीसी लोकल कमिटी होती है जिसका न्याय क्षेत्र संबंधित जिले तक सीमित होता है.
मलयालम फिल्म इंडस्ट्री से लें सबक
मुंबई में सिने कर्मचारियों के संगठन उतने मजबूत नहीं जितने मलयालम फिल्म इंडस्ट्री के हैं. वहां के एक मामले से बॉलिवुड कुछ सीख सकता है. 2017 में एक मशहूर मलयालम ऐक्ट्रेस को अगवा करके, चलती कार में उस पर सेक्सुअल असॉल्ट किया गया और इस असॉल्ट का वीडियो बनाया गया. इस सिलसिले में ऐक्टर-प्रोड्यूसर दिलीप को गिरफ्तार किया गया. दिलीप ने ही इस अपराध के लिए आरोपियों को पैसे दिए थे. इसके बाद मलयालम हीरोइनों ने मिलकर एक संगठन बनाया और उसे नाम दिया- विमेन ऑफ सिनेमा कलेक्टिव. इसका मकसद महिला आर्टिस्ट्स के लिए काम करना था. इस संगठन ने केरल के मुख्यमंत्री को मलयालम सिनेमा में महिलाओं की स्थिति पर एक मेमोरेंडम दिया. बदले में सरकार ने तीन सदस्यों वाला जस्टिस हेमा कमीशन बनाया. इस कमीशन ने 2019 में अपनी रिपोर्ट सौंपी. रिपोर्ट में कहा गया था कि फिल्म इंडस्ट्री के मसले एकदम अलग हैं जो बाकी के उद्योगों में नहीं होते. इसलिए इस इंडस्ट्री के लिए अलग से ट्रिब्यूनल बनाया जाना चाहिए.
इस सड़ांध में धंसे रहने में कई बार लड़कियां भी खुश रहती हैं
पायल घोष-अनुराग कश्यप मामले में अभी जांच और सुनवाई होनी बाकी है. मीडिया ट्रायल से अलग हटकर अगर इस मसले पर चर्चा के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं बनती. बिना सबूत के किसी को भी दोषी करार देना उचित भी नहीं है. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि फिल्म इंडस्ट्री ऐसे दुर्व्यवहार से इनकार नहीं कर सकती. मशहूर लेखिका और पत्रकार रही शोभा डे ने इस पर एक किताब लिखी है, स्टारी नाइट्स. वह स्टारडस्ट जैसी फिल्म मैगजीन की एडिटर रही हैं. उन्होंने एक इंटरव्यू में बताया था कि फिल्म इंडस्ट्री तमाम तरह से कीचड़ में फंसी हुई है. यहां सेक्सुअल हैरेसमेंट के खिलाफ कभी कभार लोग खड़े जरूर होते हैं लेकिन ज्यादातर को इस सड़ांध में धंसे रहने में कोई दिक्कत नहीं होती. उन्होंने बताया था कि हीरोइनें खुद चाहती हैं कि उनके नाम किसी बड़े हीरो से जुड़ जाएं ताकि वे हर ऐरे-गैरे नत्थू खैरे के के हत्थे चढ़ने से बच जाएं.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)