राजनीति और रणनीति में हमेशा एक प्लस एक दो नहीं होता है बल्कि कभी ग्यारह होता है तो कभी शून्य. राजनीति की अपनी दिशा, दशा और अपनी चाल होती है. चुनावी दुनिया में व्यक्ति बलवान नहीं होता है बल्कि समय और परिस्थितियां व्यक्ति को बलवान बनाती हैं, चूंकि 2014 लोकसभा चुनाव में मोदी की शानदार जीत हुई है इसीलिए उन्हें हमें जीत के शहंशाह मानते हैं जबकि राहुल गांधी को हार का बाज़ीगर. जीत को आगे रखकर सारी व्याख्याएं आसान हो जाती हैं लेकिन जमीनी स्तर पर ऐसा नहीं होता है. लोकसभा चुनाव की जीत के एक साल भी नहीं हुए थे कि मोदी की जीत के घोड़े को केजरीवाल दिल्ली में रोकने में कामयाब हुए थे लेकिन वही दिल्ली की राजनीतिक जमीन कभी मोदी की तरफ झुक जाती है तो कभी केजरीवाल के चक्कर में फिसल जाती है. कहने का मतलब पल पल राजनीति की दिशा बदलती रहती है. यूं कहा जा सकता है कि राजनीति भी शेयर मार्केट के पेंडुलम की तरह रोज गिरती-उठती रहती है.


क्या गुजरात कांग्रेस जीत पाएगी?
खासकर नोटबंदी और जीएसटी के बाद कहा जाता है कि देश की राजनीतिक हवा बदल रही है. पहले पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की शानदार जीत फिर गुरुदासपुर के लोकसभा उपचुनाव में बीजेपी की करारी हार हुई यही नहीं महाराष्ट्र के कुछ स्थानीय चुनावों और इलाहाबाद, गुवाहटी, दिल्ली और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के चुनावों में मिली हार के मोदी सरकार की लोकप्रियता पर सवाल उठने लगे हैं. ऐसे ही सवाल दिल्ली और बिहार में करारी हार के बाद मोदी सरकार पर उठने लगने थे लेकिन उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, असम, गोवा और मणिपुर में बीजेपी की जीत के बाद सवाल पर विराम लग गया कि मोदी का जादू खत्म हो रहा है.


दरअसल स्थानीय चुनाव का विधानसभा उपचुनाव, विधानसभा उपचुनाव का विधानसभा और विधानसभा चुनाव का लोकसभा चुनाव का मोटामोटी चुनावी जीत और हार का कोई रिश्ता नहीं होता है लेकिन एक ट्रेंड के तौर पर देखा जाता है, जैसे लोकसभा चुनाव के साथ ही कांग्रेस लगातार सारे चुनाव हारती जा रही थी लेकिन पंजाब विधानसभा, दिल्ली विश्वविद्यालय और गुरदासपुर के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की करारी हार के बाद कांग्रेस का हौसला बुलंद हो गया है. ऐसा कहा जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी में जान आ गई है इसीलिए राहुल गांधी की हिम्मत बढ़ गई है. चाहे सोशल नेटवर्किंग साइट पर बोलबाला हो और चाहे गुजरात की राजनीतिक जमीन पर सरगर्मी का मामला हो, राहुल गांधी छाए हुए हैं.


राहुल गुजरात में जीतने के सारे हथकंडे अपना रहे हैं. दिलचस्प बात ये है कि इसबार का गुजरात विधानसभा का चुनाव अलग है क्योंकि 2014 के बाद पहली बार नरेन्द्र मोदी राज्य की राजनीति से दूर हैं और इसीलिए ये चुनाव मोदी की प्रतिष्ठा का विषय बना हुआ है. वहीं राहुल गांधी की कोशिश है कि मोदी की कर्मभूमि और जन्मभूमि गुजरात में ही बीजेपी को पटकनी दी जाए ताकि गुजरात चुनाव के बाद देश में होने वाले सारे विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में संदेश जाए कि अपनी ही जमीन पर नरेन्द्र मोदी की हार हो गई यानि उनकी लोकप्रियता जहां से शुरू हुई वहीं खत्म हो गई है. जाहिर है कि अगर ऐसा होता है तो देश की राजनीति की धूरी बदल सकती है. इसीलिए राहुल गांधी एक नहीं दो नहीं बल्कि गुजरात के तीन युवा नेता हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर, जिग्नेश मवानी को अपने पक्ष में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जोड़ने में कामयाब हुए हैं. मकसद साफ है कि गुजरात में सोशल इंजीनियरिंग करके कांग्रेस को मजबूत करना और बीजेपी को हराना.


बीजेपी की जीत में पाटीदार जाति का अहम रोल रहा है अब उसी जाति के हार्दिक पटेल बीजेपी के खिलाफ बिगुल बजा रहे हैं. खासकर बीजेपी को हराने में हार्दिक पटेल कांग्रेस का साथ दे रहे हैं. ओबीसी में भी बीजेपी की पकड़ अच्छी खासी रही है वहां पर कांग्रेस खेल खेल रही है. ओबीसी में उभरे नये नवेले अल्पेश ठाकोर को भी राहुल कांग्रेस में शामिल करने में कामयाब हो गये हैं. यही नहीं राहुल की नजर दलित पर भी है. जिग्नेश मवानी भी दलित नेता होने का दावा करते हैं वो भी बीजेपी के खिलाफ उतर गये हैं जबकि कांग्रेस के प्रति हमदर्दी है यानि गुजरात के तीन युवा नेता और तीनों राहुल के समर्थन में दिख रहें हैं लेकिन बीजेपी के लिए सबसे चिंता की बात ये है कि अगर पाटीदार जाति के वोटर बीजेपी से खिसकते हैं तो स्थिति खराब हो सकती है. हालांकि ऐसा नहीं है कि राहुल गांधी के समर्थन में हार्दिक पटेल के आने से सारे पाटीदार वोटर बीजेपी के खिलाफ हो जाएंगे क्योंकि पाटीदार के सबसे बड़े नेता केशुभाई पटेल बीजेपी से अलग पार्टी बनाकर नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने का काम किया था लेकिन मोदी का बाल भी बांका नहीं हुआ यानि केशुभाई पटेल को पार्टीदार जाति का समर्थन नहीं मिला था. यही नहीं बीजेपी के खिलाफ 1996 में शंकर सिंह वाघेला ने विद्रोह किया था उस समय केशुभाई पटेल के बाद पाटीदार के सबसे दूसरे बड़े नेता आत्माराम पटेल माने जाते थे जो शंकरसिंह वाघेला के साथ खड़े हुए थे. शंकरसिंह वाघेला कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने में तो कामयाब हो गये लेकिन बीजेपी को कमजोर करने में कामयाब नहीं हो पाये.


1998 में विधानसभा का फिर चुनाव हुआ तो शंकरसिंह वाघेला और आत्माराम पटेल के अलग होने के बावजूद बीजेपी पर कोई असर नहीं हुआ यानि बीजेपी की फिर शानदार जीत हुई. छुटभैये नेता की पूछ तो चुनाव के पहले खूब होती है लेकिन उनकी जमीनी हकीकत चुनाव के बाद ही पता चलती है. लेकिन एक बात तो साफ है कि तीनों युवा नेताओं का समर्थन कांग्रेस को मिलने से राहुल का हौसला सातवें आसमान पर पहुंच गया है. खासकर राहुल और कांग्रेस के वैचारिक धुर विरोधी भी नरेन्द्र मोदी को गुजरात में हराने के लिए कांग्रेस को समर्थन देने से परहेज नहीं कर रहे हैं. गुजरात की बदली राजनीतिक फिजा में राहुल गांधी की सभाओं में आने वाली भीड़ और उसके उत्साह ने भाजपा के कान खड़े कर दिए हैं.


क्या मोदी को हराना आसान है?
गुजरात नरेन्द्र मोदी के लिए जन्मभूमि भी है और कर्मभूमि भी है साथ ही है उनका प्रयोगशाला भी है. जिस शख्स ने गुजरात में अपने 13 साल के दौरान में हर चुनाव जीता, गुजरात के विकास मॉडल पर सीएम से पीएम की कुर्सी तक सफर किया है क्या उन्हें हराना राहुल के लिए आसाना होगा?


नरेन्द्र मोदी भले ही सीएम से पीएम बन गये हैं लेकिन उनकी आत्मा अब भी गुजरात में बसती है. जब से मोदी देश के पीएम बन गये हैं तब से गुजरात की रफ्तार दोगुनी हो गई है. राज्य सरकार तो पहले से काम कर रही है और केन्द्र सरकार की विशेष दया हो गई है तो ऐसी स्थिति में मोदी को हराना क्या आसान होगा.


मोदी सरकार अपने बड़े तीन फैसले नोटबंदी, जीएसटी और पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राईक का डंका पीट रही है. इसके अलावा जनधन, उज्जवला योजना, मुद्रा योजाना इत्यादि कई योजना शुरू की है. वहीं मोदी सरकार के विरुद्ध भ्रष्टाचार का कोई इतना बड़ा मामला अभी तक सामने नहीं आया है. गुजरात चुनाव से पहले अहमदाबाद-मुंबई के बीच बुलेट ट्रेन चलाने का सौगात दे चुके हैं वहीं करीब 11000 करोड़ की सौगात छोटे-मोटे प्रोजेक्ट के जरिए दे चुके हैं. वो चुनाव जीतने के लिए एड़ी और चोटी की मेहनत शुरू कर चुके हैं. जहां कांग्रेस के साथ तीन युवा नेता खड़े दिख रहे हैं वहीं शंकरसिंह वाघेला कांग्रेस छोड़कर राहुल को झटका दे चुके हैं. दूसरी बड़ी बात ये है कि बीजेपी की तरफ से साफ है कि मुख्यमंत्री का चेहरा विजय कुमार रूपानी ही होंगे वहीं कांग्रेस मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है. जहां राहुल को एक तरफ से फायदा होगा तो दूसरी तरफ शंकर सिंह बघेला के जाने से कांग्रेस का नुकसान होगा.


गुजरात में जो स्थिति बदलने की बात हो रही है वो विकास दर. विकास दर गिरने से मोदी पर सवाल उठ रहे हैं दिसंबर के पहले हफ्ते में दूसरी तिमाही के विकास दर आने की संभावना है. अगर विकास दर में सुधार होता है तो मोदी की स्थिति और सुधऱ सकती है. वहीं राहुल सिर्फ मोदी पर हमला कर रहे हैं लेकिन वो उनकी नीति और सोच क्या है उस पर स्पष्टता नहीं दिख रही है. ऐसे में गुजरात में कौन जीतेगा और कौन हारेगा इसके लिए 18 दिसंबर का इंतजार करना होगा.


धर्मेन्द्र कुमार सिंह राजनीतिक-चुनाव विश्लेषक हैं और ब्रांड मोदी का तिलिस्म के लेखक हैं.


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