खबर बस इतनी सी है कि देश में महिला पुलिस अधिकारियों की भारी कमी है. ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट के नए डेटा का कहना है कि हमारे देश में 3 हजार 5 सौ 65 औरतों पर सिर्फ एक महिला पुलिस कर्मचारी है. बहुत से राज्यों में तो महिलाओं के लिए पुलिस बलों में कोई रिज़रवेशन भी नहीं है. ऐसे नौ राज्य देश में हैं. जिस देश में औरतें अपराध की रिपोर्ट करने से भी घबराती हैं, वहां पुलिस फोर्स में ऐसा जेंडर गैप कोई अच्छी खबर तो नहीं है.
ये डेटा 2011 के जनगणना के आंकड़ों के आधार पर तैयार किए गए हैं. देश में महिला पुलिस की संख्या 1.4 लाख है, जोकि कुल पुलिस फोर्स का सिर्फ 6.6% है. मतलब हर सौ पुलिस वालों में औरतें सिर्फ साढ़े छह हैं. डेटा सरकारी है और एक दूसरे सरकारी डेटा का यह भी कहना है कि 2016 में औरतों के खिलाफ 2.38 लाख गंभीर अपराध के मामले सामने आए हैं, जोकि उससे पिछले साल से काफी ज्यादा हैं. वैसे सच्चाई साबित करने के लिए हर बार डेटा पलटने की जरूरत भी नहीं होती. बहुत सारी बातें यूं भी समझी जा सकती हैं. यह समझना कतई मुश्किल नहीं है कि औरतों की संख्या पुलिस बलों में क्यों कम है.
कम इसलिए है क्योंकि तमाम दूसरे क्षेत्रों की तरह यहां भी जगह आदमियों से भरी हुई है. विज्ञान, तकनीक, व्यापार, राजनीति वगैरह की तरह यहां भी औरतों के लिए सांस लेने की जगह नहीं है. आदमी धक्का दे रहे हैं और नहीं चाहते कि औरतों के लिए उन्हें अपनी जगह छोड़नी पड़े. 2014 मे पैरा मिलिट्री फोर्सेज में औरतों की भर्ती पर एक स्टडी की गई थी. इस स्टडी में गुजरात पुलिस के एक पूर्व डायरेक्टर जनरल ने साफ बताया था कि पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज में औरतों को बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. प्रशिक्षण देने वाले पुलिस इंस्ट्रक्टर्स जेंडर इनसेंसिटिव होते हैं और गाली-गलौच करते हैं. इससे महिला ट्रेनीज़ का मनोबल गिरता है. बहुत सी प्रशिक्षण अकादमियों में पुरुष ट्रेनीज़ पर ही ज्यादा ध्यान दिया जाता है. कई जगहों पर महिला ट्रेनीज़ को आउटडोर एक्सरसाइज में अनावश्यक रूप से छूट दी जाती है. आदमियों को लगता है कि ये काम औरतों का नहीं है. ये काम तो सिर्फ उनके बूते की बात है.
पुलिस वाले अपनी महिला साथिनों के साथ बर्ताव भी गड़बड़ करते हैं. जाहिर सी बात है, वे हमारे बीच के ही लोग हैं. हम सबकी सोच एक सी ही है. इसी सोच का नतीजा था कि दो साल पहले तमिलनाडु के नामक्कल जिले की डीएसपी विष्णुप्रिया ने सिर्फ इसलिए सुसाइड कर लिया था क्योंकि वह अपने कमांडिंग ऑफिसर के प्रेशर की वजह से बहुत परेशान थी. बिहार की एक महिला कॉन्स्टेबल ट्रेनी को इस साल जनवरी में सिर्फ इसलिए सस्पेंड कर दिया गया क्योंकि उसने शादी किए बिना प्रेग्नेंट होने का ‘अनैतिक काम’ किया था. कोई औरत अनैतिक काम करे, तो उसके प्रति क्या संवेदना रखी जाए.
दो साल पहले झारखंड के लातेहार की कॉन्स्टेबल नीतू कुमार के रेप के मामले में एसएसआई ने कहा था कि तो, क्या हुआ...उसके बहुत से अफेयर्स थे. नीतू विधवा थी, दो बच्चों की मां थी, बहन के दाह संस्कार के लिए जाते समय उसके साथ रेप हुआ था. बहन की डेड बॉडी गाड़ी में पड़ी थी, उसके साथ दरिंदगी हो रही थी. फिर भी एसएसआई ने हंसकर कहा था- उसने रेप के समय कोई विरोध क्यों नहीं किया?
कई सवाल, जवाब के पैरों में गिरना नहीं जानते. वे ज्यों के त्यों खड़े रहते हैं. पूछते हैं कि औरतों के अपराधों के प्रति हमारा रवैया कब बदलेगा. एक रास्ता तो यही है कि औरतों को ही उनसे निपटने दिया जाए. थाने में औरतें होंगी, महिला थाने होंगे तो कई बार औरतों और ट्रांसजेंडरों का गुहार लगाना आसान होगा. ट्रांसजेंडरों को अक्सर मेल कॉप्स के कारण हैरेसमेंट झेलनी पड़ती है. नॉर्थ डकोटा स्टेट यूनिवर्सिटी की क्रिमिनल जस्टिस और पॉलिटिकल साइंस की प्रोफेसर कैरोल आर्चबोर्ड की रिसर्च कहती है कि महिला पुलिस वालियां, पुरुषों की तुलना में हिंसा में कम शामिल होती हैं.
एनकाउंटर वगैरह को फिजिकल ऐक्शन के बिना हैंडल कर लेती हैं. वे पुलिस फोर्स में ज्यादा होंगी तो दूसरी औरतों की हिम्मत बनेगी. महिला पुलिस स्टेशनों और घरेलू हिंसा पर पिछले साल विश्व बैंक के एक वर्किंग पेपर में ब्राजील पर अध्ययन किया गया था. इसमें कहा गया था कि ब्राजील के मेट्रोपॉलिटन शहरों में महिला पुलिस स्टेशनों के खुलने के बाद हत्या की दरों में कमी आई है. भारत में महिला पुलिस थानों की संख्या लगभग 500 है. इनकी संख्या बढ़ाए जाने की भी जरूरत है.
यूं इस पर हम घंटों बहस कर सकते हैं कि महिला पुलिस के होने से शोषण के मामलों में कितनी कमी आएगी. अक्सर मामले थाने तक पहुंचते ही नहीं. फिर घरों में मौजूदा हिंसा और शोषण को हम किस श्रेणी में डालेंगे. औरतें घर की चारदीवारी में भी उतनी ही असुरक्षित हैं, जितनी सड़कों पर. फिर भी महिला पुलिस से पुलिसिंग व्यवस्था को एक नया परिदृश्य, नया स्टाइल मिलेगा. यह पुलिस फोर्स में मौजूद माचोइज्म, पौरुष से अलग होगा. इस नए परिवेश में नई उजास फूट सकती है.
(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)