गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव के परिणाम राहुल गांधी के लिए एक बड़ी चुनौती और सीख साबित हुए हैं. राहुल की उपलब्धि यह रही है कि उन्होंने गुजरात चुनाव प्रचार के द्वारा जुझारु और गंभीर राजनेता के रूप में खुद को पेश किया है. लेकिन नरेंद्र मोदी की भाषण कला और राजनीतिक पैंतरों के सामने उनकी एक नहीं चल पाई. राहुल ने मणिशंकर अय्यर को कांग्रेस से तुरंत निलंबित करके डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश तो की, पर पाकिस्तान, कश्मीर, अफजल गुरु जैसे मुद्दों के सामने वो बेबस साबित हुए.
दरअसल राजनीति में मर्यादा और गरिमा एक ऐसे पैमाने हैं जो जनता के विवेक पर निर्भर करते हैं. सालों से गुजरात में जिस प्रकार की राजनीति की गई है, वहां कांग्रेस चाहकर भी पाकिस्तान और कश्मीर अलगाववाद पर पुरजोर जवाब नहीं दे पाई. नतीजे दिखाते हैं कि मोदी ने दूसरे चरण के चुनाव से जीत को अपने पक्ष में कर लिया. जबकि अगर बात पहले चरण के चुनावी नतीजों की की जाए तो बीजेपी और कांग्रेस में कांटे की टक्कर देखने को मिली.
बेमानी थी बहुमत की उम्मीद
राहुल ने गुजरात में जहां हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी से तालमेल करके बीजेपी की राह मुश्किल की तो, लेकिन प्रदेश कांग्रेस को बीजेपी से मुकाबला करने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं कर पाए. परिणामस्वरूप 10 से ज्यादा वरिष्ठ कांग्रेस उम्मीदवारों को इस चुनाव में मुंह की खानी पड़ी. यदि शक्ति सिंह गोहिल, अर्जुन मोढ़वाडिया और सिद्धार्थ पटेल जैसे दिग्गज अपनी सीट ही नहीं बचा पाए तो बहुमत की उम्मीद ही बेमानी थी.
मुश्किल चुनौतियों से होगा सामना
राहुल के सामने अब और बड़ी चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं. सबसे पहले तो राहुल के सामने अगले साल कर्नाटक विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी को फिर से सत्ता में लाने की लड़ाई लड़नी है. इसके साथ ही मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, मिजोरम और मेघालय में विधानसभा चुनाव का सामना करना है. इन सभी राज्यों में राहुल को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार से लेकर मुद्दों और संसाधनों का प्रबंध करना है. जमीनी लेवल पर कांग्रेस के संगठन को मजबूत करने का चैलेंज भी राहुल गांधी के सामने है. गुटबाजी में बंटी कांग्रेस अपने प्रदेश अध्यक्षों का चयन भी ठीक से नहीं कर पाती है. यदि हार का दौर चलता रहा तो पंजाब छोड़कर देश लगभग कांग्रेस मुक्त ही हो जाएगा.
राहुल के पास नहीं है समस्याओं का समाधान
राहुल गांधी के लिए सबसे बड़ी समस्या सामाजिक स्तर पर कनेक्टिविटी की है. चाहे बात अगर किसानों की करें या फिर युवाओं की, वह इनकी समस्या तो उठाते हैं, लेकिन उन्हें इस समस्या से निजात दिलाने का समाधान उनके पास नहीं दिखता है. धर्मनिरपेक्षता, हिंदुत्व और सॉफ्ट हिंदुत्व के फेर में वो फंसे हुए नज़र आते हैं. कांग्रेस जन के पास ऐसे जटिल सवालों का कोई जवाब नहीं है. उदाहरण के लिए अगर मंदिर जाना और जनेऊ धारण राहुल के लिए अपनी आस्था और संस्कृति का विषय था तो कांग्रेस अध्यक्ष बनने के समय अपनी माता के चरण स्पर्श करते हुए क्यों नहीं दिखे?
राहुल की सबसे बड़ी कमजोरी उनकी संवादहीनता है. क्या कारण है कि अध्यक्ष बनने के बाद भी एआईसीसी कमेटी के अधिवेशन का कोई एलान नहीं हुआ. कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद राहुल ने अपने पहले भाषण में कोई विजन या फिर किसी और प्रोग्राम का जिक्र नहीं किया. इसके अलावा उनके भाषण में काम करने को लेकर कोई चार्ट भी पेश नहीं किया गया. ऐसे में नए साल के माहौल में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को शंका है कि वह फिर से छुट्टी मनाने न निकल जाएं.
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