राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने नया अध्यक्ष ही नहीं पाया बल्कि गुजरात चुनाव की पूरी मुहिम के साथ वह अपने नए स्वरूप में भी हैं. इंदिरा गांधी ने जिस कुशलता के साथ समाजवादियों और वामपंथियों को अपने प्रभाव में लाने के साथ पार्टी के सॉफ्ट हिदुत्व होने का अहसास दिलाया नेतृत्व, वर्तमान कांग्रेस उससे आगे निकल कर जनेऊ और मंदिर दर्शन के अभियानों के साथ एक नए कलेवर दिखाना चाहती है.
कह सकते हैं कि राहुल गांधी का मंदिर-मंदिर जाना और कांग्रेसजनों के जरिए उनके जनेऊधारी होने की बात को जोर से उठाना, राहुल के शिवभक्त होने की बात गुजरात चुनाव के समीकरण में फिट बैठती है. मगर चुनाव केवल गुजरात भर का नहीं है. यहां कहे संवाद, यहां उठी तमाम बहस आगे की राजनीति पर भी प्रभाव डालेंगी. इसलिए इस तरह के कदम केवल गुजरात चुनाव जीतने भर के लिए नहीं उठाए गए हैं. यह नया चोला कांग्रेस की आगे की रणनीति का भी हिस्सा है. कांग्रेस अब तक जिन परिचय के साथ रही है उससे अलग निकल कर वह जनमानस में नई छवि के साथ दिखना चाहती है. इस छवि में धर्मनिरपेक्षता की बात तो होगी लेकिन हिंदुत्ववादी आग्रहों में वह बीजेपी का आधिपत्य नहीं चाहेगी. वह खुल कर बताना चाहेगी कि उसके नेता भी धार्मिक हैं, परंपराओं का पूरा आदर करते हैं, देश के मंदिरों के प्रति उनमें गहरी श्रद्धा है.
आजादी के बाद से कांग्रेस अपने धर्मनिरपेक्ष समाजवादी परिचय में इस ताने बाने के साथ खड़ी रही कि उसे गैर हिंदुवादी मत पड़ते रहे साथ ही उसने अपने राजनीतिक समीकरण में दलित और पिछड़े समाज को भी जोड़े रखा. कांग्रेस में ऊंची जातियों का प्रभामंडल पार्टी के लिए अपना काम करता था. साथ ही मुस्लिम और कमजोर मानी जाने वाली जातियों को अपने साथ लेकर कांग्रेस ने सत्तर के मध्य तक लगभग एकछत्र राज्य किया. पहले जनसंघ फिर उससे बनी बीजेपी की कोशिश इसी चक्र को तोड़ने में लगी रही. वह निरंतर अपने प्रयासों से प्रबल हिंदुवादी पार्टी की छवि के साथ लोगों को विश्वास दिलाने की कोशिश करती रही कि हिंदुवादी आग्रहों और राष्ट्रीयता का उद्घोष करने वाली वही पार्टी है. साथ ही उसकी कोशिश रही कि कांग्रेस के तुष्टिकरण नीति पर प्रहार कर लोगों को अपने प्रभाव में लाया जाए. आपातकाल के बाद चुनाव में कांग्रेस की पराजय और जनता पार्टी का सत्ता में आना एक सत्ता का परिर्वतन ही नहीं था, यहां से भारतीय राजनीति ने मोड़ लिया. बेशक ढाई साल बाद इंदिरा गांधी फिर सत्ता में लौटीं, लेकिन इस बीच के दौर में जनसंघ को जनता पार्टी का एक अंग होने का लाभ मिला. आरएसएस ने इस समय अपना फैलाव किया. सत्ता को पहली बार हाथ में लेने वाली जनसंघ जब जनता पार्टी के विघटन के बाद बीजेपी बनकर आई तो देश भर में उसका अपना परिचय हो गया था.
जनसंघ महज कांग्रेस के सामने चुनाव लड़ने और पराजित होने वाली पार्टी के परिचय के साथ रही. लेकिन उससे निकलकर बीजेपी बनी उसने समय के साथ महज चुनाव लड़ना ही नहीं, चुनाव जीतना भी सीख लिया. जनसंघ की वैचारिक दृष्टि को बीजेपी के विचार बने रहे, कार्यकर्ता से लेकर नेता सब बीजेपीई चेहरा बन कर आए. संघ के वो लोग जो राजनीति में प्रवीण हो सकते थे वो बीजेपी की मुख्य धारा से जुड़ गए. ऐसे में बीजेपी जहां एक तरफ हिदुत्व राष्ट्रीयता के बोध को लेकर प्रबल रही वहीं उसने चुनावी समर के दांव पेंच भी सीख लिए. यह बीजेपी अब केवल कमजोर विपक्ष के रूप में रहने के लिए नहीं थी, इसे आगे चुनाव भी जीतना था और अपने मुख्यमंत्री और समय के साथ प्रधानमंत्री भी बनाने थे. कांग्रेस ने पूरे देश में अपनी साख और मजबूती का जो आधार बनाया था उसकी तोड़ में बीजेपी, कांग्रेस के भ्रष्टाचार, निरंकुश शासन राष्ट्रीयता की भावना में ओतप्रोत न होना, तुष्टिकरण करना जैसे आरोपों के साथ तो थी ही, साथ ही हिंदुत्व की जोरशोर से पैरवी उसका अस्त्र बनी. कांग्रेस ने बीजेपी के जवाब में अपनी उस धारा को बनाए रखा, जिसमें उसे मुस्लिम दलित कमजोर जातियों के एकमुश्त वोट पड़ते रहे. यहीं कशमकश थी.
कांग्रेस का अपना जनाधार तब दरकने लगा जब समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी जैसी राजनीतिक पार्टियां राजनीतिक परिदृश्य में छा गईं. बाबरी मस्जिद ढहने की घटना का संताप कांग्रेस ने भोगा. केंद्र में नरसिंहराव की कांग्रेस सरकार के प्रति मुस्लिमों की नाराजगी इतनी बढ़ी कि उतर प्रदेश ही नहीं मुंबई तक में समाजवादी पार्टी के साए में रहना सुरक्षित समझा. मुंबई में मुस्लिम लीग टूट कर सपा से जुड गई. यूपी, बिहार सहित देश के दूसरे इलाकों में कांग्रेस ने अपने साथ अल्पसंख्यकों का जो भरोसा बनाए रखा वह इस तरह बिखरा कि कांग्रेस में फिर गांधी परिवार का वर्चस्व बढ़ा, लेकिन अल्पसंख्यकों का आधार सपा कहीं राजद कहीं बसपा में बना रहा. कांग्रेस के लिए उसे फिर से वोटबैंक बनाना संभव नहीं रहा. खासकर यूपी और बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस जातीय और धर्म के राजनीतिक संतुलन को साधने में सफल नहीं हो पाई. इन राज्यों में सपा, बसपा, राजद जैसी क्षेत्रीय पार्टियां अपने को पिछड़े और अल्पसख्यकों की खेवनहार दिखाने लगी और अपने मकसद में सफल भी हुई. इन राज्यों की राजनीतिक कशमकश में कांग्रेस एकदम हाशिए पर चली गई और उसे समय समय पर कहीं सपा तो कही राजद से समझौते करने पड़े और वह मुख्यपार्टी नहीं बल्कि सहयोगी पार्टी के तौर पर दिखी.
चुनावों में दहाई का अंक जुटाना भी उसके लिए चुनौती बन गया. जिस कांग्रेस का यूपी में अपना गढ़ था वह अपने अस्तित्व के लिए लड़ती दिखी है. बीजेपी के लिए केंद्र में पहला वर्चस्व अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में मिला. वाजपेयी ने बहुत कुशलता के साथ अपने साथी संगठन पार्टियों को साधा और पहली बार तेरह दिन की सत्ता गंवाने के बाद दूसरे अवसर पर पूरी जिम्मेदारी से निभा ले गए. यह बीजेपी के लिए ऐसा समय था जब उसने राजनीति में केवल अपनी साथी पार्टियों को नहीं साधा बल्कि अपने जनाधार को उन राज्यों तक फैलाया जहां उसकी पहचान नहीं थी. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हए दूसरे कार्यकाल में आखिरी समय पर कथित भ्रष्टाचार के खिलाफ असंतोष फैलने पर जहां अन्ना हजारे की रैलियों ने देश का ध्यान खींचा, वहीं गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी आगे बीजेपी के लिए मजबूत गलियारा बना रहे थे. नरेंद्र मोदी ने जहां एक तरफ कांग्रेस के कथित भ्रष्टाचार को निशाना बनाते हुए सुशासन के लिए लोगों के मन में अपने प्रति विश्वास दिलाया वहीं राष्ट्रवाद की ध्वनि पर देश के मतदाताओं को अपने साथ जोड़ दिया. कांग्रेस के पास समुचित जवाब नही था वह राजनीति के अपने सबसे खराब रिजल्ट के साथ लोकसभा में आई.
नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के पद पर भी चुनाव में बीजेपी के मुख्य प्रचारक के रूप में होते हैं. यूपी, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, हिमाचल जहां जहां भी चुनाव हुए बीजेपी ने मोदी के नाम पर मत मांगे. बीजेपी ने स्थानीय संगठन और नेताओं के बजाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व पर वोट मांगे. संवाद यही रहा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली पार्टी को राज्य में समर्थन दीजिए, वह राज्य को नई दिशा देंगे. नरेंद्र मोदी जहां आगे किए गए दूसरी आभाए कमजोर पड़ गईं. बिहार अपवाद रहा कि लालू यादव और नितिश का गठजोड़ ताकतवर हो गया. इसमें कांग्रेस भी जुड़ गई. लेकिन बाकी राज्यों में राजनीतिक पार्टियो का ऐसा ध्रुवीकरण संभव नहीं हो पाया. यूपी में समाजवादी पार्टी अपने ही घर पर बिखरी हुई थी. उसकी सहयोगी बनी कांग्रेस उसके लिए किसी ढाल की तरह नहीं बल्कि बोझ बन गई. जिस मजबूत आगाज में राजद और नितिश की पार्टी सामने आई उसकी तुलना में यूपी में सपा और कांग्रेस का गठजोड़ से नतीजे निकलना रूमानी कल्पना साबित हुई.
कांग्रेस के लिए यह निराशा का दौर रहा है. कांग्रेस हमेशा इस बात को दोहराती रही कि एक समय इंदिरा गांधी ने भी कठिन हालातों से निकल कर सत्ता में जोरदार वापसी की थी. जनता पार्टी के उदय के बाद कोई नहीं सोचता था कि यह कांग्रेस के लिए एक छोटा सा अंतराल है. फिर कांग्रेस की सत्ता लौटेगी. यह सच साबित हुआ था, लेकिन तब कांग्रेस के पास इंदिरा गांधी जैसा नेतृत्व था. उनके जैसी विलक्षण नेता ने महसूस कर लिया था कि जनता पार्टी में विघटन के तत्व पूरी तरह मौजूद हैं. यह कुनबा जल्दी आपस में टकराएगा. उन्होंने चुपचाप कांग्रेस की सत्ता वापसी का माहौल बनाना शुरू किया था. इसके अलावा उस दौर में आपातकाल की नाराजगी कांग्रेस को ले डूबी थी. जातीय या धर्म के आग्रहों पर लोग कांग्रेस से नहीं छिटके थे. इसलिए जैसे ही जनता पार्टी में आपसी कलह का दौर शुरू हुआ और बड़े नेताओं की महत्वकाक्षाएं हिलौरे मारने लगी, लोग फिर से कांग्रेस के करीब आने लगे.
मध्यावधि चुनाव तक जनता पार्टी इस तरह बिखर गई थी कि कांग्रेस को सत्ता में आने का पूरा अवसर मिल गया. कांग्रेस के लिए वापसी का दौर इसलिए मुश्किल भरा नहीं रहा कि उसे किसी जातीय धर्म के ताने बाने को फिर से नया आकार नहीं देना था. कांग्रेस से जो जनाधार छिटक गया था वह फिर आ गया. आज बीजेपी जिस स्वरूप में है और उसके पास नरेंद्र मोदी के रूप में एक प्रबल नेता है उसकी तुलना उस समय के कांग्रेस विरोधी पार्टियों से नहीं की जा सकती. जनता पार्टी के अंदर की दक्षिणपंथी शक्तियां केंद्र में सत्ता का पहली बार अनुभव कर रही थीं. अभी उनके कांग्रेस का अखिल भारतीय विकल्प बनने में करीब एक दशक का और समय बाकी था. इसकी तुलना में आज कांग्रेस के लिए बीजेपी से सत्ता वापस लेने की राह काफी संघर्ष भरी है. राहुल गांधी को अपने नेतृत्व के प्रति विश्वास जताना है. कांग्रेस से ही अलग होकर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बोफोर्स के मामले को सुर्खियों में लाकर कांग्रेस के ही अंदर एक विकल्प दे दिया. यहां भी ऊंचे स्तर पर भ्रष्टाचार को मसला बनाकर कांग्रेस से सत्ता छीनी गई थी.
जिसमें विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्री बनने पर बोफोर्स की गूंज तो दबती चली गई लेकिन आरक्षण का जिन्न बाहर आया. यही से कांग्रेस का असली जनाधार का छिटकना शुरू हुआ. राजनीतिक परिदृश्य में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस एक बार फिर सत्ता में तो आई लेकिन यूपी और बिहार में जातीय समीकरणों में तब तक क्षेत्रीय पार्टियां मजबूती से अपना प्रभाव जमाने लगी थी. उस दौर में जिस तरह क्षेत्रीय पार्टियों के शामियाने तने उसमें कांग्रेस अपने कुनबे में लगातार कमजोर होती गई. आज तक वह उस जमीन को पाने में तरस रही है. हालत यह है विधानसभा चुनाव में गांधी परिवार अमेठी और रायबरेली से भी कांग्रेस का परचम नहीं फहरता.
बदले हालातों में जब लंबी राजनीति के बाद समाजवादी पार्टी के अंदर बिखराव दिख रहा है, परिवार कलह सामने आया. उधर बिहार में लालू प्रसाद का वर्चस्व भी कम होता दिखने लगा तब कांग्रेस के अंदर कहीं आशा जागी है कि राहुल गांधी का नया नेतृत्व शायद फिर से कोई लहर बना दे. बीजेपी से किसी भी स्तर पर निराश होने वाली पार्टी कांग्रेस को ही विकल्प माने. कांग्रेस की असली इच्छा इन राज्यों में राजनीति की दूसरी शक्ति के रूप में बने रहना है. ताकि जब भी बीजेपी कहीं से दरकती दिखे, तो सामने कांग्रेस का चेहरा रहे. इसलिए कांग्रेस ने महसूस किया कि क्षेत्रीय शक्ति के तौर पर ये क्षेत्रीय पार्टियों के नेता भले कितने ही प्रभावशाली रहे हों लेकिन उनकी आवाज अपने ही राज्यों मे ज्यादा प्रबल बनी रही. अपने राज्य से बाहर उन्हें उस तरह नहीं स्वीकारा गया. जबकि कांग्रेस बहुत कमजोर अवस्था में भी अपने अखिल भारतीय स्वरूप में बीजेपी की प्रखर विरोधी बनी रही.
जीएसटी हो या नोटबंदी या कोई और मसला राहुल गांधी और उनके प्रवक्ता विरोध की आवाज बने रहे. इसलिए गुजरात चुनाव को कांग्रेस ने आशा भरी नजरों से देखा. जब कयास यही लगता रहा कि गुजरात में कई वजहों से शायद बीजेपी इस बार भी तर जाए. कांग्रेस ने आसानी से अस्त्र दीवार में नहीं टांगे, बल्कि सुनियोजित रणनीति के साथ गुजरात अभियान शुरू किया गया. जिससे पहली कोशिश तो किसी करिश्मे को जगाने की थी. इसमे राहुल गांधी के गुजरात के ताबड़तोड़, दौरे जनसभाएं केंद्र की नीतियों पर हमले, प्रचार में सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग के अलावा वहां के नाराज क्षेत्रीय नेताओं को जोड़ने की मुहिम चलाकर कांग्रेस ने बेहतर पहल की. इससे पहले पाटीदार नेताओं के आंदोलनों ने कांग्रेस को अपने ही स्तर पर आश्वस्त किया कि अगर यह आंदोलन वोट के रूप में बदल जाए तो नतीजे चौंका सकते हैं. कांग्रेस ने उन बिंदुओं मसलों को छुआ जहां लोगों की सरकार से कुछ अपेक्षाएं रहती है.
लगातार अपने आधार को खोती और सिमटती कांग्रेस ने फिर से खड़े होने के लिए रणनीति बनाई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके ही घर पर कमजोर किया जाए. पहले तो गुजरात की सत्ता में वापसी फिर अगर संभव न हो तो गुजरात में बीजेपी को पिछले आकडों से कम लाकर उस स्थिति में लाया जाए जहां से कहा जा सके कि मोदी का जादू दरकने लगा है. गुजरात के कांग्रेस की रणनीति हर स्तर पर बनी. जहां क्षेत्रीय महत्वकांक्षा रखने वाले नेता हार्दिक पटेल को अपने साथ लाया गया, वहां पिछड़े और कमजोर जातियों के लिए अपने स्तर पर संघर्ष करने वाले सामाजिक नेताओं के साथ तालमेल बनाकर कांग्रेस ने बीजेपी के लिए चुनौती रखी. कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने धुआंधार प्रचार करके मतदाताओं के मन में यह बात बिठाने की कोशिश की है कि बीजेपी अपने दो दशक के शासन में गुजरात के लिए कोई विकास नहीं कर पाई. मोदी की बातें केवल आसमानी हैं. राहुल गांधी का टीम मैनेंजमेंट इस बार खास तैयारी के साथ था.
राहुल गांधी ने हर दिन एक सवाल उठाकर नरेंद्र मोदी से जवाब मांगा. साथ ही ट्विटर का बखूबी प्रयोग किया गया. गुजरात में प्रतीक के तौर पर जीएसटी टैक्स को गब्बर सिंह बनाया गया. कोशिश यही रही कि केंद्र में मोदी की नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदमों को विफल बताकर कारोबारियों और गुजराती जनमानस को बीजेपी से दूर किया जाए. इसी तरह किसानों को कर्जा माफी का प्रलोभन भी चलते चलते दे दिया गया. यह सब तो राजनीतिक तेवर, पैंतरे चुनाव में दिखते ही हैं. लेकिन कांग्रेस सबसे अलग जिस स्वरूप में दिखी वह उनके नेता के हिंदुवादी छवि को उभारने की है. राहुल गांधी ने गुजरात के सारे मंदिरों में शीश झुकाया. कांग्रेसियों ने उन्हें शिवभक्त और जनेऊधारी बताया. पहले भी कांग्रेसी नेता मंदिरों में जाते रहे पुजारियों से आशीर्वाद लेते रहे लेकिन कांग्रेस नेताओं ने अपनी धर्म आस्था और छवि के तौर पर उसे सामने नहीं रखा. उनके स्वर ज्यादा आग्रही इस बात के होते थे कि वह धर्मनिरपेक्ष नेता है. बल्कि गैर हिंदू धर्म स्थलों में जाने की तस्वीरे ज्यादा दिखाई जाती थी. राहुल गांधी माथे पर तिलक लगाकर गुजरात के मंदिरों में दिखाई दिए. इसका संदेश यही था कि बीजेपी हिंदुत्व के कार्ड पर कांग्रेस के बनाए खेल को खराब न कर दे.
कांग्रेस ने अपने छिपे सॉफ्ट कॉर्नर हिंदुत्व को इस बार पूरा प्रचारित होने दिया. बहस हुई तो कांग्रेस के प्रवक्ता बीजेपी की तर्ज पर राष्ट्रवाद और खास धर्म के प्रति आस्था का उद्घघोष करने लगे. गुजरात में बीजेपी ने पूरी कोशिश की है कि चुनाव नरेंद्र मोदी के गुजराती अस्मिता और राहुल गांधी के बीच हो. बीजेपी ने कुछ अवसरों पर कांग्रेस को उलझा भी दिया. लेकिन कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने गुजरात के लिए इस चोले को भी पहन लिया. लेकिन ऐसा नहीं है. आज दृश्य मीडिया के प्रभाव में पुराने चुनाव के संदर्भ मिटते नहीं है. कांग्रेस का यह नया बदला स्वरूप केवल गुजरात चुनाव के लिए नहीं है. सॉफ्ट हिंदुत्व के साथ वह आगे भी चलेगी. इसके जरिए बीजेपी से किसी न किसी स्तर पर उसके जनाधार पर सेंध लगाने की कोशिश होगी. कांग्रेस जानती है कि अभी हिदुत्व और राष्ट्रवाद का बिगुल फूंकने का जिम्मा बीजेपी ने ही लिया है. इस नाते उनके इस प्रयास में उतनी प्रखरता नहीं दिखेगी. लेकिन उसे लगता है कि समय के साथ कांग्रेस को अपनी खोई जमीन मिल सकती है.
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